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गुरुवार, 2 जून 2022

3412 नशा है नाश का घर...

सादर अभिवादन.
गुरुवारीय अंक के साथ हाज़िर हूँ.
आज की पाँच रचनाएँ-

प्रहरी हमारे



हो रात भी घनेरी अरि घात हो लगाए।
जयघोष भारती का सुनकर सदा डरेंगे॥ 

माता धरा हमारी हम प्राण वार देंगे।
तन से लहू बहे पर हम वार भी करेंगे॥



दोनों मे प्यार हो गया। बहुत प्यार करते थे  दोनों एक दूसरे से। उन्मुक्त गगन में विचरने  वाले को पिंजरा कतई रास ना आता और पिंजरे में रहने वाली ने तो अब अपना घर ही बसा लिया था...




नशा है ,नाश का घर,
रुलाती है जीवन भर।
सभी को कंगाल कर,
लेती धन-प्राण को हर।
धन-प्राण ना अब हरने दो।
न बेमौत मरो, ना मरने दो।



अगर आप भूल गए हो हँसना भी,
भले ही न याद हो
आप कभी हँसे थे खुलकर भी,
पथरायी आँखें भूल गईं हों चमकना, 
और दिल में सुलगता हो शोला भी,
 पर हुजूर मुस्कुराना ज़रूरी है।




बात उन दिनों की है जब आज से चार साल पहले मैं पहली बार मुंबई आयी थी। मुझे आए हुए अभी एक महीना भी नहीं हुआ था। मायानगरी की अदाओं से मैं अभी बिल्कुल अनजान थी, इसके मिजाज के बारे में थोड़ा बहुत सुना पढ़ा तो था मगर अनुभव के नाम पर सब जीरो था। ना रास्तों का ढंग से पता था ना ही बाजार-हाट का, ना ही किसी व्यक्ति विशेष से परिचय था। पहचान के नाम पर हमारी एक बुजुर्ग हाउस ऑनर थी जो मराठी थी ना उनकी कोई बात मेरी समझ में आई ना ही मेरी कोई बात उनके पल्ले पड़ती बस, दुआ सलाम तक ही बातें होती थी।
---/---

आज के लिए बस इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में-
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9 टिप्‍पणियां:

  1. सारे लिंक्स पर गई ।सभी रचनाएँ सराहनीय और पठनीय । बहुत आभार आपका ।

    जवाब देंहटाएं
  2. शानदार अंक
    व्यस्तता से समय चुराना इसे ही कहते हैं
    सादर...

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति। मेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार।

    जवाब देंहटाएं
  4. मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद श्वेता जी,कल व्यस्तता के कारण उपस्थित नहीं हो पाई, क्षमा चाहती हूं, आप सभी का स्नेह बना रहे यही कामना करती हूं 🙏

    जवाब देंहटाएं

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