निवेदन।


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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

4469...बर्फ का रंग

शुक्रवारीय अंक में 
आप सभी का हार्दिक अभिनंदन।
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 बर्फ़ से ढके

 निर्विकार श्वेत पाषाण 

साक्षी है

हरी घास को सींचते

लहू के छींटो की...

मौसम की आहट पर 

इतराते चिनार के फूल

ख़ुद पर लगे रक्त के धब्बों से

सहमे, मासूम आँसुओं से नम,

दर्द की छटपटाहट में

उदास तो होंगे शायद...

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आज की रचनाएँ-

बर्फ का रंग 
हमेशा सफ़ेद नहीं होता 
जैसा कि दिखता है नंगी आँखों से 
वह रोटी की तरह मटमैला होता है 
बीच बीच में जला हुआ सा 
गुलमर्ग के खच्चर वाले के लिए 
तो सोनमार्ग के पहड़ी घोड़े के लिए 
यह हरा होता है घास की तरह 




 बैठी पति की मृत देह के समीप 

जैसे बैठी हो सावित्री  

पर जीवित नहीं होगा उसका सत्यवान

पत्नी और पुत्र के सामने गोली उतार दी 

जिस व्यक्ति के सीने में 

 दिल चीर देती है उनकी मुस्कान

जब कश्मीर को जन्नत बता रहे थे 

 एक दिन पहले शिकारे में बैठे हुए 

कश्मीर में कितना खून बहा है 





सत्य अहिंसा
के सीने पर
वार सहेंगे आख़िर कब तक,
सैन्य शक्ति
के रहते भी
लाचार रहेंगे आख़िर कब तक
ख़त्म करो
जो आँख उठाकर
देखे हिंदुस्तान को.




गधे के कान में घी डालो तो वह यही कहेगा कान मरोड़ते हैं

तोते को जितना भी प्यार से रखो वह मौका देख उड़ जाते हैं
काला कौआ पालो तो वह चोंच मारकर ऑंखें फोड़ देगा
खलनायक नायक बना तो वह मौका देख छुरा भोंक देगा



पर मन में एक खटका बना ही हुआ था, क्योंकि उन्हें अपना सामान नजर नहीं आ रहा था ! हेमंत से पूछने पर उसने कहा आप जहां रहेंगे वहां रखवा दिया है ! रामगोपाल जी समझ गए कि मुझे यहां नहीं रहना है ! सामान पहले ही वृद्धाश्रम भिजवा दिया गया है ! आज नहीं तो कल तो जाना ही था, पहले से ही पहुंचा दिया गया है ! तभी हेमंत बोला, पापा आपके लिए एक सरप्राइज है ! रामगोपाल जी ने मन में सोचा काहे का सरप्राइज बेटा, मैं सब जानता हूँ ! तुम भी दुनिया से अलग थोड़े ही हो ! पैसा क्या कुछ नहीं करवा लेता है ! खुद पर क्रोध भी आ रहा था कि सब जानते-समझते भी सब बेच-बाच कर यहां क्यों चले आए ! पर अब तो जो होना था हो चुका था !



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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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गुरुवार, 24 अप्रैल 2025

4468...भूलो नहीं कि यह धूल ही है, जिससे आख़िर में तुम्हें मिलना है...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

शोक और आक्रोश के माहौल में डूबा देश पहलगाम कश्मीर में हुए नरसंहार को लेकर क्षुब्ध है। आरोप-प्रत्यारोप के दौर में सरकार व सैन्य बलों को समय मिलना चाहिए कारगर रणनीति बनाने का ताकि ऐसे दुर्दांत दरिंदों को कड़ा सबक़ सिखाया जा सके जो मानवता और शांति के शत्रु हैं।

803. धूल

महसूस करो उसका स्पर्श,

आदत डाल लो उसकी,

भूलो नहीं

कि यह धूल ही है,

जिससे आख़िर में

तुम्हें मिलना है।

*****

किताबों से बात

इन्ही किताबों पर है दारोमदार

विद्या के सम्यक बीजारोपण का।

मेधा और विवेक के सिंचन का।

*****

स्मृति के छोर पर

वह दिन में नहीं सोता

इस डर से नहीं कि रात को उठने पर

कहीं वह रात को

रातके रूप में पहचान न पाया तो,

बल्कि इसलिए

कि वह

दिन को दिनके रूप में पहचानता है,

और स्वयं को पुकारता है

टूटती पहचान की अंतिम दीवार की तरह।

*****

टाइम कैप्सूल

मेरी नानी की माँ एक बोली की ज्ञाता थीं! उस बोली को संरक्षित नहीं किए जाने से उनके साथ उनकी बोली लुप्त हो गई…! एक दिन ऐसा न हो कि धरती से पानी भी लुप्त हो जाये. . .! और जलरोधक पात्र में जल भरकर जमीन में दबाना पड़ जाए. . .!

नहीं! नहीं! ऐसा नहीं होगा बड़े मामा. . .! आप ही तो अक्सर कहते हैं, ‘जब जागो तभी सवेरा’! कोशिश करते हैं अभी से जागने-जगाने हेतु. . .!

*****

सपूत

पर मन में एक खटका बना ही हुआ था, क्योंकि उन्हें अपना सामान नजर नहीं आ रहा था! हेमंत से पूछने पर उसने कहा आप जहां रहेंगे वहां रखवा दिया है! रामगोपाल जी समझ गए कि मुझे यहां नहीं रहना है! सामान पहले ही वृद्धाश्रम भिजवा दिया गया है! आज नहीं तो कल तो जाना ही था, पहले से ही पहुंचा दिया गया है! तभी हेमंत बोला, पापा आपके लिए एक सरप्राइज है! रामगोपाल जी ने मन में सोचा काहे का सरप्राइज बेटा, मैं सब जानता हूँ! तुम भी दुनिया से अलग थोड़े ही हो! पैसा क्या कुछ नहीं करवा लेता है! खुद पर क्रोध भी आ रहा था कि सब जानते-समझते भी सब बेच-बाच कर यहां क्यों चले आए! पर अब तो जो होना था हो चुका था!

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

4467..सब ठीक है?

 धरती की सुलगती छाती से बेचैन शरारे पूछते हैं

तुम लोग जिन्हें अपना न सके वो ख़ून के धारे पूछते हैं..!!

~ साहिर लुधियानवी
आतंकवाद का कोई “धर्म”नहीं होता,सुना जाता है,
फिर “नाम” पूछ-पूछ कर हिंदुओं की “हत्या” ..फिर जबरदस्त चोट लगी हमसब पर..
लिजिए बुधवारिय प्रस्तुतिकरण में..
वो आये नाम पूछा
धर्म देखा और मार दी गोली
न ब्राह्मण देखा, न क्षत्रिय
न वैश्य और न ही शूद्र,
न अगड़ा, न पिछड़ा
न ऊंच न नीच
म सवर्ण न दलित..
✨️
 मैंने कहा 

जा रहा हूँ 

फिर कभी नहीं दिखाऊँगा 

अपना चेहरा तुम्हें, 
✨️
 

हे रुष्ट प्रकृति
करके क्रोध का त्याग
होंगी तुम कैसे प्रसन्न?

ये मूढ़ मानव
है तो तुम्हारी ही संतान
लाड़ का कर दुरुपयोग..
✨️

तेज हवाएँ लू लपट सूखे मैदानों में

हाहाकार प्रचण्डिका अग्निधार बाण

उफनती चिंगारियाँ लौहवर्ण सावधान 

मनसा सावधान ! थोड़ा सोच-विचारकर  

काम करो जहाँ भी जैसे भी संभव..
✨️
पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍️

मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

4466...एक आस एक विश्वास

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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बरसों की कठिन 
तपस्या से
धरती को प्राप्त
अनमोल उपहारों का
निर्दयता से प्रयोग करते हैं
अपनी सुविधानुसार,
दूहते...!
कलपती,सिसकती,
दिन-प्रतिदिन
खोखली होती
धरती,
 अपने गर्भ में ही 
मार डाले गये भ्रूणों के
अबोले शाप की अग्नि में
झुलसने से
कब तक बचा पायेगी
मनुष्य का अस्तित्व ...?
"राग-रंग बदला मौसम का
बदले धूप के तेवर
रुई धुन-धुन आसमान के
उड़ गये सभी कलेवर"

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आज की रचनाएँ


किस पर यक़ीन करे जब पड़ौसी ही लूट
ले घर अपना, अपने ही देश में हो
जाएं शरणार्थी, गांव जल रहे
हैं शहर हैं धुआं धुआं,
मानवता का दम
भरने वाले
छुपे बैठे
हैं जाने
कहाँ,




सोई   चेतना   का  जागरण  बाकी   है  काली  
भयंकर   रातों   में   दीप  का  जलना  शेष   है
शेष   है   अभी   जीवन    शेष   है   अभी
जीवन   का   महत्तर   ,  लघुपाद   चलती
तिलतिल   इन    मेहनतकश   चींटियों   को
गौर   से   देखना  ,   उनसे    वो   ज्ञान   लेना
बाकी   है   ,   जो   सतत   अविरत   निश्छल 
निस्वार्थ  भाव  से  कर्म   में  आस्था  जागता  है




ईश का स्वर दिया सुनाई 
माँगने में है नहीं भलाई
सूर्य अपने तन को जलाते 
प्राणी मात्र की सेवा करते।
तेरे पास है जो उत्सर्ग कर
कुछ देने का साहस तो कर


परिवार के सभी सदस्य आ चुके थे बातचीत हँसी फोटो का दौर चल रहा था। नदी किनारे बड़े पत्थर पर बैठें पानी में पैर डालें या बाहर रखें जैसी महत्वपूर्ण चर्चा चल रही थी। सूर्य अस्त नहीं हुआ था बस पहाड़ के पीछे चला गया था। वर पक्ष के मेहमान भी आ चुके थे वे भी नदी को प्रणाम करके फोटो खिंचवा रहे थे। पण्डित जी आरती की तैयारी में लगे थे। तेज हवा में दीपक की लौ का ठहरना मुश्किल था इसलिए रुई की बाती के साथ कपूर डाला गया था।


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आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।

सोमवार, 21 अप्रैल 2025

4465...आज हालत यह है कि लेखक लिखते बाद में हैं, ‘सम्मान’ की गारंटी पहले माँगते हैं...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय संतोष त्रिवेदी जी के लेख से। 

सादर अभिवादन।

सोमवारीय प्रस्तुति में पढ़िए पॉंच पसंदीदा रचनाएँ-

घर इक मंज़िल

है स्वयं पूर्ण, जगत अधूरा

मिथ्या स्वप्न, सत्य है पूरा,

 

क्षितिज कभी हाथों ना आता

चलता राही थक सो जाता!

*****

नीरव सौंदर्य

जब उदासियाँ

घाटियों में बैठकर कविताएँ रचती हैं,

तब उनके पास

केवल चमकती हुई दिव्य आँखें ही नहीं होतीं,

अपार सौंदर्य भी होता है।

*****

११ मार्च

मुझे और सीखना था

बहुत कुछ

मग़र मैं बनकर रह गयी पैसिव लर्नर

उन सात दिनों के क्षेपित सच के साथ

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यह न्याय तो नहीं!

यदि हमारी न्याय प्रणाली त्वरित और सख्त हो तो समाज में इसका अच्छा संदेश जाएगा और अपराधियों के हौसलों पर लगाम लगेगी। गिरगिट की तरह बयान बदलने वाले गवाहों पर भी अंकुश लगेगा और अपराधियों को सबूत और साक्ष्यों को मिटाने और गवाहों को खरीद करउन्हें लालच देकर मुकदमे का स्वरूप बदलने का वक़्त भी नहीं मिलेगा। कहते हैं जब लोहा गर्म हो तब ही हथौड़ा मारना चाहिए। समाज में अनुशासन और मूल्यों की स्थापना के लिये कुछ तो कड़े कदम उठाने ही होंगे। त्वरित और कठोर दण्ड के प्रावधान से अपराधियों की पैदावार पर अंकुश लगेगा और शौकिया अपराध करने वालों की हिम्मत टूट जाएगी।

*****

सम्मान समारोह में एक दिन

आए दिन सम्मानों को लेकर हाय-तौबा मची रहती है। लगता है साहित्य केवल सम्मान के लिए ही बना और बचा हुआ है।ठीक वैसे ही जैसे सियासत सेवा के लिए।आज हालत यह है कि लेखक लिखते बाद में हैं, ‘सम्मान’ की गारंटी पहले माँगते हैं।सम्मान के वादे पर इन्हें भरोसा नहीं होता क्योंकि यह शब्द अब अपना अर्थ खो चुका है।साहित्य हो,सियासत हो या निजी जीवन हो,वादे किए ही इसलिए जाते हैं कि उन्हें पूरा करने का   कोई नैतिक दबाव नहीं होता।सम्मान-समारोह का ताजा जिक्र इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि तीन दिन पहले इंटरनेट मीडिया पर इसका  सामूहिक न्योता परोसा गया था।उस साहित्यिक-भंडारे में सम्मानित होने वालों में                  चिर-वरिष्ठ से लेकर वर्षों से उभरते हुए रचनाकार शामिल थे।उन्होंने अलग से इस बात का ढोल भी पीटा कि माँ सरस्वती जी की कृपा से उन्हें इस लायक समझा गया यानी वे भी मानते हैं कि वाक़ई वे हैं नालायक ही पर भोले इतने हैं कि दूसरों से अपने को ‘लाइक’  करवाना चाहते हैं।

*****

फिर मिलेंगे।

रवीन्द्र सिंह यादव

 


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