निवेदन।


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शनिवार, 30 अप्रैल 2022

3379... यादें

       
नेपाल की धरती से हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...


एक कतरा रौशनी

एक बार विचार आया था कि

इस गलत डिजाइन हुये रोशनदान को पाट दिया जाये।

 पर परसों लेटे-लेटे सूरज की रोशनी का एक किरण पुंज

 छत के पास कमरे में दीखने लगा तो मैं मुग्ध हो गया।

 मुझे लगा कि प्रकृति को कमरे में आने/झांकने का 

यह द्वार है छोटा रोशनदान।

कमरे की लोरी

खोलो खिड़की रोशनदान

माना खप के आए हो

मैं भी दिन भर घुटा घुटा सा पिचा हुआ

अंबर का टुकड़ा ढूंढ रहा हूं

तुम ऐसे तीसे की उमरों में

पस्त हुए सोफे पर ढह जाओगेl

थोड़ी देर रुका जीवन...

थोड़ा संयम और सही ये संशय जाने वाला है

देखा है मैंने गमले में अंकुर नया फूटकर आया

      अचेतन था दुबका अंदर वह जीवन बन आया

अंदर बैठा अंधकार में साँसों को संभाला होगा

     जड़ को आस दिखाकर कितना समझाया होगा

एक पुराने पौधे पर फूल नया इतराया है

दीदार

हूर थी या कोई अप्सरा का साया था...

तारीफ को शब्द न मिले किताबों में,

आने लगी फिर वो, हर रात ख्वाबों में...

हर रोज़ वो कालेज में सीढ़ी के पास मिलती थी,

शायद वो किसी का इंतज़ार करती थी..

शायद वो भी किसी से प्यार करती थी

यादें

पन्ने भी मेरे, कलम भी मेरी और सोच भी मेरी...

बस मैंने जो लिखा वो सारे ख्याल तेरे...

गुनगुनी सर्दियाँ, नदी का किनारा, अदरक की चाय और तुम्हारी याद...

इससे बेहतर सिर्फ़ तुम हो सकते थे...

इतना आसान कहाँ होता है भूल पाना सबकुछ...

कई रातें लगती है यादों का शहर जलाते हुए.

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पुनः भेंट होगी...
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शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

3378....जात न पूछो औरत की

शुक्रवारीय अंक में 
आप सभी का स्नेहिल अभिनंदन।
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भूख-प्यास,
ध्वनियां-प्रतिध्वनियाँ
तर्क-वितर्क,  विश्लेषण 
शब्दकोश, कल्पनाएँ
यहाँ तक कि
जीवन और मृत्यु की
 परिभाषा के स्थान पर
अब नये शिलापट्ट अंकित किये गये हैं
जिस पर लिखा गया है राजनीति...।

विषय-वस्तुओं,भावनाओं,
के  राजनीतिकरण के इस  दौर में
कवि-लेखक,चिंतकों की
लेखनी का 
प्रेम और सौहार्द्र के गीत भुलाकर
पक्ष-विपक्ष के
ख़ेमे में विभाजित होकर
खंजरी बजाते हुए अलग-अलग धुन में
एक ही गीत गाना
राजनीति-राजनीति-राजनीति
राजनीतिकरण के इस 
असंवेदनहीन दौर में
आपका स्वागत है...।

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आइये आज की रचनाओं के संसार में-


जरूरतमंदों को हमारे आपके स्नेह और सही दिशानिर्देशन की आवश्यकता है न कि
दिखावा,कृत्रिमता,भावनाओं का छद्म प्रदर्शन 
की। सबसे अलग तरह के बिंबों से सजी मन को झकझोरती एक धारदार अभिव्यक्ति-

तमाम 'सोशल मीडिया' पर जब-जब 
तमाम बहुरंगी 'सेल्फियाँ' हैं अपनी बिखेरते,
कई सारे 'टैग्स' और 'कैप्शन्स' भरे,
करते हुए भव्य स्वघोषणा स्वयं के 
एक सभ्य समाजसेवी होने के,
चंद बच्चों को किसी 'स्लम एरिया' के 


स्त्रियों के सम्मान में कही गयी सारगर्भित अभिव्यक्ति
एक नवीन दृष्टिकोण 
महिला ने उल्टा ही पूछ लिया...
       एक मां की या एक महिला की
उसने कहा....चलो दोनों की बता दो.....
     और चेहरे पर हल्की सी मुस्कान बिखेरी।
महिला ने भी पूरे धैर्य से बताया




लेकिन अब
चूहानुमा
मानवीय नस्ल
राजनीति से
आ गई है
प्रेम में भी,
छोड़ जाती है साथ
संकट की घड़ी में
प्रेम रह जाता है
हो कर आहत
एक
डूबे जहाज की तरह


भाषा कभी भी भावनाओं की अभिव्यक्ति में बाधक नहीं हो सकी है। शब्दों को महसूस किया जा सके वही  कविताएँ भाषा,देश की सीमाओं को
तोड़कर पाठकों को छू जाती है-

पारदर्शी हो उठता है 
मोटा आवरण! 
साफ़ हो जाता है प्यार का मतलब! 
साबुन के बुलबुले की तरह 
विस्फोट होता है प्यार का! 
लेकिन, उसी बुलबुले से 
गिर जाती है समूची दुनिया! 


और चलते-चलते एक प्रेरक कहानी
अपमान का उत्तर देने के लिए इससे सभ्य और अच्छा तरीका  कुछ नहीं शायद....
दूसरे दिन वे भारत लौट आए  फोर्ड कंपनी के मालिक के बेहद ही नकारात्मक कमेंट को भी इन्होंने सकारात्मक रूप में लिया। बिल की बातों को उन्होंने दिल पर नहीं लिया, बल्कि उसे दिमाग पर लिया और कंपनी बेचने की सोच को ना सिर्फ टाला बल्कि उन्होंने ठान लिया था कि वे कंपनी को ऊंचाइयों पर पहुंचाएंगे। रतन टाटा ने उस कंपनी को फिर से ऐसी खड़ी की उसने नया इतिहास रच डाला।  भारत लौटने के बाद उन्होंने अपना पूरा फोकस मोटर लाइन में लगा दिया उनके इरादे बुलंद थे। लक्ष्य बस एक था, फोर्ड को सबक सिखाना है। लेकिन चैलेंज बहुत बड़ा था। 

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आज के लिए बस इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर आ रही हैं
प्रिय विभा दी।
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गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

3377...जैसा इतवार, वैसा सोमवार...

 शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक लेकर हाज़िर हूँ।

दुनियाभर में 28 अप्रैल को कार्यस्थल पर सुरक्षा और स्वास्थ्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। दिन तो 365 /366 ही हैं लेकिन उनके साथ किसी न किसी विचार को जोड़ने का चलन अब ढलान पर है। 

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-

बंद मुट्ठी

मेरा अनुरोध है तुमसे

मत खोलना इस मुट्ठी को तुम कभी भी

मैं नहीं चाहती कि अपार संभावनाओं से भरे

ये बीज तुम्हारी मुट्ठी खुलते ही

निर्जीव हो जाएँ और उनके पनपने की

सारी संभावनाएं ही समाप्त हो जाएँ !

६४७.रिटायरमेंट के बाद

बस एक ही चीज़ खटकती है

कि अब दिनों में कोई फ़र्क़ नहीं रहा,

जैसा इतवारवैसा सोमवार,

सारे दिन एक जैसे.

शब्द रचना - -

जाल हैं खुली
निगाहों के

95. भावनाओं को आलोड़ित करता : लम्हों का सफ़र - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

जेन्नी जी ने बहुत कम वय में अपने पिता को खोया हैये पीड़ा उनकी नितांत निजी हैपर ज्यों ही ये पीड़ा- 'बाबाआओ देखो! तुम्हारी बिटिया रोती हैकविता में व्यक्त होती हैयह हर उस व्यक्ति की पीड़ा बन जाती हैजिसने अल्प वयस में अपने पिता को खोया है। इस खण्ड में प्रबल अतीत-मोह हैबड़ी होती हुई स्त्री बार-बार अतीत में लौटती है और वहाँ से स्मृतियों के कुछ पुष्प ले आती है। समाज मे लड़कियों को अभी भी अपनी इच्छा से जीने की आज़ादी नहीं हैइसीलिए ज्यों-ज्यों लड़की बड़ी होती हैउसका मन अतीत में भागता है। 'जाने कहाँ गई वो लड़कीमें इसी दर्द को देखा जा सकता है- ''जाने कहाँ गईवो मानिनी मतवाली / शायद शहर के पत्थरों में चुन दी गई / उछलती-कूदती वो लड़की''। 'वो अमरूद का पेड़', 'उन्हीं दिनों की तरह', 'ये कैसी निशानी है', 'इकन्नी-दुअन्नी और मैं चलन में नहीं', 'ये बस मेरा मन है', 'उम्र कटी अब बीता सफ़रऐसी ही कविताएँ हैं जिनमे कवयित्री का मन अतीत के भाव-जगत् में डूबता-उतराता रहता है। 

 "एक कप चाय" (लघुकथा)

रात भर के जागरण  के बाद भोर से पूर्व मंदिरों

की आरती की घंटियों ने प्रभात-वेला होने की सूचना दी कि सभी जाने की तैयारी में लग गए । उसने कमरे की दहलीज पर

पहुँच कर पूछा---'एक कप चाय और'… । कई स्नेहिल

आशीर्वाद से भरे ठंडे हाथ उसके ठंडे बालों पर स्वीकृति से

टिके ही थे कि  कानों में एक आवाज गूंजी --'जी हाँ …,चलते

चलते एक कप चाय और …, हो ही  जाए।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव  


बुधवार, 27 अप्रैल 2022

3376..सुनोगे नहीं क्या किताबों की बातें ..

 

"किताबें करती हैं बातें

बीते जमानों की

दुनिया की, इंसानों की

आज की कल की

एक-एक पल की...

सुनोगे नहीं क्या

किताबों की बातें?"

सफ़दर हाशमी 

सहज रूप से कुछ प्रश्न करतीं पंक्तियों के साथ,लिजिए प्रस्तुतिकरण के क्रम को आगें बढ़ातें हुए रूबरू होते हैं.. ✍️

लहरें




इन लहरों की ही तरह 
एक दिन मैं भी आजाद 
हो जाऊँगी
तुम कैद करते रहना मुझे 
मैं इन किनारों..
➖➖











उतरती है चाँदनी धीरे - धीरे, मुंडेरों से
हो कर, झूलते अहातों तक, फिर भी
मिलती नहीं, रूह ए मकां  को
तस्कीं, इक रेशमी अंधेरा
सा घिरा रहता है दिल
की गहराइयों तक ..
➖➖

दृष्टियाँ


 ये वृक्ष, ये चहचहाते पक्षी, नीला गहराता अनंत आकाश, 

गोद ले जीवन झुलाती, घूमती धरती,

नक्षत्रों की उंगलियाँ थामे यह...

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हंगामा है क्यों बरपा???

आज के फाइव जी दौर में जहां सूचना सबकी हथेली में है। किसी से कुछ भी छुपा नहीं रहा। लोगों को रील पर अर्धनग्न कपड़े पर फूहड़ गाने कमर मटकाती नवयौवनाओं से, रियल्टी के नाम पर टीवी सीरियल..

➖➖

धूप के चश्में से मौसम की कहानी लिखना

कितना मुश्किल है कभी रेत को पानी लिखना


लोकशाही है,न राजा , नहीं दरबार कोई

फिर भी बच्चों की कथाओं में तो रानी लिखना

➖➖

।।इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️



मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

3375 ..."मेरा डर उसी समय भाग गया साहब जब युद्ध छिड़ा..।"

सादर अभिवादन.....
सामान्य ज्ञान गतांक से आगे......
लूणी नदी पुष्कर के निकटवर्ती अरावली की पहाड़ियों में स्थित नाग पर्वत से उद्गम होकर थार मरुस्थल के दक्षिण-पूर्वी भाग में बहती हुई कच्छ के छोटे रण में जा मिलती है।

कच्छ का रण एक नमक का दलदल है, जहाँ यह नदी समा जाती है।

लगभग ४७५ किलोमीटर लम्बी लूणी नदी से अनेक नदियों का संगम भी होता है, लूणी के रण में समाहित होने का तात्पर्य है कि यह नदियाँ भी कच्छ की रणभूमि में खेत हो जाती हैं।


(लूणी तथा उसकी मुख्य सहायक नदियाँ)

इनमें से बड़ी नदियाँ हैं :

१. सरस्वती (पुष्कर झील से उत्पन्न नदी, सरस्वती और लूणी नदी के संगम से 
पूर्व लूणी नदी को सागरमती कहते हैं। )
२. जवाई
३. सुक्री
४. गुडिया
५. बन्दी (हेमवास)
६. खारी
७. सागी
८. जोजरी (पश्चिम से मिलने वाली एकमात्र नदी)

विशेष :—
लूणी एक बरसाती नदी है और इसकी सहायक नदियाँ भी। अतः यह वर्षा ऋतु में ही पूरे प्रवाह से बहती है। रेतीली भूमि पर बहने के कारण इसके तट सुविकसित नहीं हैं, अतः यह चौडे पाट वाली छिछली नदी है, जिसका अधिकांश पानी रेत सोख लेती है अथवा सूर्य की ऊष्मा से सूख जाता है।

यहाँ एक बात और है कि बरसात में कच्छ का रण भी एक विशाल छिछली झील में परिवर्तित हो जाता है, जो कुछ स्थानों पर समुद्र में भी मिलती है, अतः गुजरात के सिद्धपुर के निकट अल्पकाल के लिए लूणी का भी कुछ पानी समुद्र में मिलता ही है।

अब रचनाएँ



समय कुसमय को न देखा
बिना सोचे अनर्गल बोलते रहे
अरे यह क्या हुआ ?
क्या किसी ने न बरजा |
क्या हो समकक्ष सभी के
कोई बड़े छोटे का ख्याल नहीं



लसोड़े बहुत ही कम समय के लिए आते है। बाद में यदि हमें लसोड़े की सब्जी खाना है 
तो साल भर इंतजार करना पड़ता है। 
यदि आपको लसोड़े की सब्जी पसंद है और आप इसे स्टोर करना चाहती है 
तो जानिए लसोड़े को साल भर के लिए स्टोर करने का तरीका...




तुम आते हो प्रतिदिन
अब तो नियम सा हो गया है
तुम्हारा आना
जैसे आता है सूरज , चाँद
जीवन में
दे जाते हो शब्दों के कण
और तुम चाहते हो
कण कण मिलाकर
मै ऋचाएं रचूं




"ये रे लखिया तू किस मिट्टी की बनी है?
तुझे ना तो इस श्मशान बने जगह पर
आने में डर लगा और ना मृतक को बटोरने में!"
"मेरा डर उसी समय भाग गया साहब जब युद्ध छिड़ा..।"
"तू इनका करेगी क्या?"




शादी के कार्ड जो रद्दी की शोभा बढ़ाएं ।
कैलेंडर,लिफ़ाफ़े,चित्र, जो काम न आएं ।
बचे हुए रंग, कतरनें , सब काम में लाएं ।
होनहारों के रहते कुछ भी बेकार न जाए ।

.....
आज बस

सादर 

सोमवार, 25 अप्रैल 2022

3374...कभी लड़े-झगड़े, कभी साथ मुस्कराये हम...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय विकास नैनवाल जी की रचना से। 

सादर अभिवादन

सोमवारीय अंक लेकर हाज़िर हूँ।

आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

किस्से सुनाने

दहशतजदा दीवारों में

जंग लगी

खिड़कियों को बंद कर

देखना पड़ता है

छत की तरफ़

नींद में चौंककर

रोना पड़ता है

बच्चों की तरह

मन-मस्तिष्क की दीवारों पे...

ईंट की दीवारों की जगह

मन-मस्तिष्क की दीवारों पे,

काश ! .. कुछ इस तरह

हो पाते अंकित ये नारे

"स्वच्छ भारत अभियान" के।

जागृत देवता हैं पुस्तकें

अपरिमित ध्रुवों को समेटे

विस्तार धारे अपने अंक में

क्या कुछ नहीं गर्भ में भरा

जगत आधारी है ॥

रामधारी सिंह दिनकर

धारी दिनकर सिंह का, लेखन कार्य महान।

अलख क्रांति की नित जगा, रखा देश का मान।।

रखा देश का मान, खरी खोटी थे कहते।

रहे सदा निर्भीक, झूठ को कभी न सहते ।।

पात्र या दर्शक?

नाटकों के पात्र हैं हम सब,

नही किसी पात्र के दर्शक,

हमारा कर्म है अभिनय,

हमारा धर्म है अभिनय,

हमारे कर्म का,सत्कर्म का,

मंजिल

कभी लड़े-झगड़े, कभी साथ मुस्कराये हम

न जाने कब एक दूसरे की मंजिल हो गए

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव  


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