स्नेहिल अभिवादन
माह अगस्त का अंतिम विशेषांक
माह अगस्त का अंतिम विशेषांक
विषय श्रृंखला में आज का शब्द है-
उन्मुक्त (उड़ान) जिसका अर्थ है स्वतंत्र
उदाहरणार्थ दी गई रचना
आदरणीय मनीष मूंदड़ा
आदरणीय मनीष मूंदड़ा
"मेरा मन अब सीमित संसार में नहीं रह सकता
उसे उडने के लिए एक विस्तृत व्योम चाहिये
एक खुला आसमान
जहाँ का फैलाव असीमित हो
बिलकुल अनंत
आज का शुभारम्भ प्रतिष्ठत रचनाओं से
आदरणीय शिवमंगल सिंह सुमन
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjS0fhaS1tOnEw5qhhwcpEHKPXVk5gvPl_2ZlFj8nyEtv_M1vOWeGwmwBtDX0lL9fQzPSBCUE5K6DtsF4IPCU84Dj3O-8nS3uIN6j7UkWDegcqppcRuPb_JVOSNs1uxY36xMMw5VIqYbQI/s1600/%25E0%25A4%2589%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%2595%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A4+%25E0%25A4%2597%25E0%25A4%2597%25E0%25A4%25A8.jpg)
पिंजरबद्ध न गा पाएंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएंगे।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,
आदरणीय मीना चोपड़ा
कलम ने उठकर
चुपके से कोरे काग़ज़ से कुछ कहा
और मैं स्याही बनकर बह चली
मधुर स्वछ्न्द गीत गुनगुनाती,
उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती!
न शब्दों का बंधन हो ,न छंदो की बंदिशे
सिर्फ और सिर्फ,’दिल ए जज्बात’ लिखा जाये
चलो फिर कोई कविता ,उन्मुक्त लिखी जाये
अहसासो को उकेर दे, पन्नों पे कुछ ऐसे
ना लय की फ़िक्र हो ,न अलंकार की शर्तें
कुछ रचनाएं ब्लॉग जगत से
आदरणीय पुरुषोत्तम सिन्हा
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhfqhfNLPKiqc5sqgXnhrSyXj8CrcNoqJD0YKS_XG4wboW1RPzanhCKgG-Chn14DQp5LkuESHWfsuXO6DU6KzYz3V4RJe6-lYvBdR-dgfBUAkkwB2Za7nQr6VAo7ENUnt_ztBvBFVEFKZok/s1600/images+%25281%2529.jpeg)
जागृत सा इक ख्याल और सौ-सौ सवाल.....
हवाओं में उन्मुक्त,
किसी विचरते हुए प॔छी की तरह,
परन्तु, रेखांकित इक परिधि के भीतर,
धूरी के इर्द-गिर्द,
जागृत सा भटकता इक ख्याल!
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtX3Ovu7gc2yuiyRGXdlVQm0BRQWbic4yqjyY5miGeDUOT7LZ_oou4oIxmMa3TiWGl3oBf-Dth1XcD2iHPsSNocpPjgmxvzwGyGpIrPOsvqPRcoHY3l5JpdgxxtH8DPMbDe8eovqduy8Lw/s320/Drought-leads-Argentina-to-buy-US-soybeans_wrbm_large.jpg)
ठहरा सा ये लम्हा, ये उन्मुक्त से पल,
ठहरा सा है, वो बीता सा कल,
ठहरे से हैं, वो ही बेसब्रियों के पल,
गुजरता नहीं, सुस्त सा ये लम्हा,
जाऊँ किधर, कैद ये कर गया यहाँ....
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEinVtB-M6VeOm9ZBR8hAerQfTZTkTAREc5a3eLtO9o_aG2aL-SmLQ9UkkLP4sbVh4DJEqNkSn6Klk2J4jqHsT1_6_0vJ3KVAhX1i8nGF51gipxMZ9HLvKcS_hZYLJJUbwzpj5z1YhEnxESv/s320/sky-and-birds-screensaver.jpg)
आसक्त होकर फिर निहारता हूँ मैं
वो खुला आकाश!
जहाँ....
मुक्त पंख लिए नभ में उड़ते वे उन्मुक्त पंछी,
मानो क्षण भर में पाना चाहते हो वो पूरा आकाश...
रचनाएँ ई-पत्रिका अनहदकृति से
आदरणीय हेमंत राज बलेटिया
नारी ...
वह, उन्मुक्त है;
उसे जीने दो!
युग-युग जलती,
सब कुछ सहती,
काराओं की कैदी,
आशामय तकती आँखे,
आदरणीय सुमन जैन लूथरा
गुरुदक्षिणा ..
तुम्हें देख उड़ते,
आकाश मे उन्मुक्त,
मैंने भी चाहा सीखना तुमसे,
और,
एकलव्य की तरह,
बैठा ली तुम्हारी प्रतिमा,
अपने मन-आँगन में,
खुद ही सीखती,
तुमसे,
गुर,
आदरणीय मंजु महिमा
सिरहाने के ख़्वाब..
हुड़दंगी ये जादूगर
पल में इधर, पल में उधर,
चपल खरगोश, चतुर बन्दर
और कभी एक योगी सुन्दर!!
फिर उसके रंगों की दुनिया
जिसमें कोई न सीमा-बंधन
रचना का उद्यमी क्रीड़ा-क्षेत्र
उछालें भरता उन्मुक्त मन!!
आदरणीय मधु गुप्ता
कुसूरवार कौन .....
बूंदों की पायल बाँधी
रुनझुन थिरके पग, रुनझुन थिरके पग
मोरनियाँ अलमस्त हुईं
हाथों की अंगुलियाँ गोल नचाती
मेघों पर स्नेह लुटाती
भीगे -भीगे पल थे दुर्लभ, लगीं मनाने पर्व उत्सव
पड़ी बदन पर हल्की थपकी, भूल गई सर्वस्व
भूल गई धरा को, उड़ने चली उन्मुक्त गगन पर
रचनाएँ ई-पत्रिका अनहदकृति से
आदरणीय हेमंत राज बलेटिया
नारी ...
वह, उन्मुक्त है;
उसे जीने दो!
युग-युग जलती,
सब कुछ सहती,
काराओं की कैदी,
आशामय तकती आँखे,
आदरणीय सुमन जैन लूथरा
गुरुदक्षिणा ..
तुम्हें देख उड़ते,
आकाश मे उन्मुक्त,
मैंने भी चाहा सीखना तुमसे,
और,
एकलव्य की तरह,
बैठा ली तुम्हारी प्रतिमा,
अपने मन-आँगन में,
खुद ही सीखती,
तुमसे,
गुर,
आदरणीय मंजु महिमा
सिरहाने के ख़्वाब..
हुड़दंगी ये जादूगर
पल में इधर, पल में उधर,
चपल खरगोश, चतुर बन्दर
और कभी एक योगी सुन्दर!!
फिर उसके रंगों की दुनिया
जिसमें कोई न सीमा-बंधन
रचना का उद्यमी क्रीड़ा-क्षेत्र
उछालें भरता उन्मुक्त मन!!
आदरणीय मधु गुप्ता
कुसूरवार कौन .....
बूंदों की पायल बाँधी
रुनझुन थिरके पग, रुनझुन थिरके पग
मोरनियाँ अलमस्त हुईं
हाथों की अंगुलियाँ गोल नचाती
मेघों पर स्नेह लुटाती
भीगे -भीगे पल थे दुर्लभ, लगीं मनाने पर्व उत्सव
पड़ी बदन पर हल्की थपकी, भूल गई सर्वस्व
भूल गई धरा को, उड़ने चली उन्मुक्त गगन पर
नियमित रचनाएँ
आदरणीय साधना वैद
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXb5qHo186ebqkvYKYjwkdAuAbvdQAtyUCIUFiiNf8D0hRtiKQ5yKxUAy60W1a9XqQxChaCx3zMjbvbvC4VA3kS7C01DbgW3FjAd-6AdGlLbL86MT0wjXLHBHd53MseGGXgPr6UwKuJD27/w304-h405/free+bird.jpg)
उन्मुक्त है तू अब
खुला हुआ है
विस्तृत आसमान
तेरे सामने
भर ले अपने पंखों में जोश
आदरणीय साधना वैद
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAFfki28cZt_bPbBcW8Q4CoAyq6ch8_2CFHIKpTfBHl_NIKIz-BrrHdFKtr3yO4CEg1CGrWhEzh7MhrPpFhpAXT-MWyfGI6XVc9y_Su-EPALx3wjwG4_FAPjtj6B7jTklwRtM35x0ik_XT/s0/i_know_why_the_caged_bird_sings_by_danmew-d4gyzdh.jpg)
तुम उसे उसके हिस्से का
आसमान दे दो !
और उन्मुक्त होकर नाप लेने दो उसे
अपने आसमान का समूचा विस्तार
उस पर विश्वास तो करो
जहाज के पंछी की तरह
वह स्वयं लौट कर अपने
उसी आशियाने में
ज़रूर वापिस आ जायेगी !
आदरणीय आशा सक्सेना
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikQUMVbBdDL1igNjEslzcuiYQWHwisMr629j3NLtqCYyurZSAg8DT0ZiowRXusU-dDVu6o3Yd6l9bLAk2a_l2zzPn-hdQJqN-Tl_O7BTMKIYBJPMDZahuqWV2NAFn9lk7IWQz46n9f_CU/s1600/images.jpg)
देख कर उन्मुक्त उड़ान भरती चिड़िया की
हुआ अनोखा एहसास उसे
पंख फैला कर उड़ने की कला खुले आसमान में
जागी उन्मुक्त जीवन जीने की चाह अंतस में |
हुआ मोह भंग तोड़ दिए सारे बंधन आसपास के
हाथों के स्वर्ण कंगन उसे लगे अब हथकड़ियों से
पैरों की पायलें लगने लगी लोहे की बेड़ियां
यूं तो थी वह रानी स्वयं ही अपने धर की
पर रैन बसेरा लगा अब स्वर्ण पिंजरे सा |
आदरणीय कुसुम कोठारी मैं उन्मुक्त गगन का राही
उज्ज्वल रश्मि मेरी
चंचल हिरणी सी कुलांचे भरती
वन विचरण करती
बन पाखी, द्रुम दल विहंसती
जा सूनी मूंडेरें चढती
झांक आती सबके झरोखे
फूलों से क्रीडा करती,
आदरणीया अनीता सैनी जी
गुजरे छह महीने
आदरणीया सुजाता प्रिया जी
उन्मुक्त भाव
आदरणीय सुबोध सिन्हा जी
एक रात उन्मुक्त कभी
अपरिहार्य कारणों से एक माह के लिए
यह विशेषांक मुल्तवी कर रहे हैं
कल आएँगे भाई रवींद्र जी
सादर
आदरणीय कुसुम कोठारी मैं उन्मुक्त गगन का राही
उज्ज्वल रश्मि मेरी
चंचल हिरणी सी कुलांचे भरती
वन विचरण करती
बन पाखी, द्रुम दल विहंसती
जा सूनी मूंडेरें चढती
झांक आती सबके झरोखे
फूलों से क्रीडा करती,
आदरणीया अनीता सैनी जी
गुजरे छह महीने
इनकी ख़ामोशी में तलाशना शब्द तुम
मोती की चमक नहीं सीपी की वेदना समझना तुम।
छह महीने देखते ही देखते एक साल बनेगा
पड़ता-उठता फिर दौड़ता आएगा यह वर्ष
इसकी फ़रियाद सुनना तुम।
आदरणीया सुजाता प्रिया जी
उन्मुक्त भाव
हम उन्मुक्त तभी रहेंगे,
जब भाव हमारे हों उन्मुक्त।
सभी जनों का क्लेश हरें हम,
भेद-भाव से होकर मुक्त।
वैर-द्वेष और कलुष रहिए
ऐसा महल सजाइए।
हम सब मिलकर.......
आदरणीय सुबोध सिन्हा जी
एक रात उन्मुक्त कभी
लगाती आ रही चक्कर अनवरत धरती
युगों-युगों से जो दूरस्थ उस सूरज की,
हो पायी है कब इन चक्करों से उन्मुक्त ?
बावरी धरती के चक्कर से भी तो इधर
हुआ नहीं आज तक चाँद बेचारा उन्मुक्त।
धरे धैर्य धुरी पर अपनी सूरज भी उधर
लगाता जा रहा चक्कर अनवरत हर वक्त।
चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...
-*-*-*-*-*-*-अपरिहार्य कारणों से एक माह के लिए
यह विशेषांक मुल्तवी कर रहे हैं
कल आएँगे भाई रवींद्र जी
सादर