निवेदन।


फ़ॉलोअर

सोमवार, 31 अगस्त 2020

1872.... हम-क़दम का नया एक सौ तैंतीसवाँ अंक ...उन्मुक्त

स्नेहिल अभिवादन
माह अगस्त का अंतिम विशेषांक
विषय श्रृंखला में आज का शब्द है- 
उन्मुक्त (उड़ान) जिसका अर्थ है स्वतंत्र
उदाहरणार्थ दी गई रचना
आदरणीय मनीष मूंदड़ा 
"मेरा मन अब सीमित संसार में नहीं रह सकता
उसे उडने के लिए एक विस्तृत व्योम चाहिये
एक खुला आसमान
जहाँ का फैलाव असीमित हो
बिलकुल अनंत

आज का शुभारम्भ प्रतिष्ठत रचनाओं से
आदरणीय शिवमंगल सिंह सुमन
पिंजरबद्ध न गा पाएंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

आदरणीय मीना चोपड़ा
कलम ने उठकर
चुपके से कोरे काग़ज़ से कुछ कहा

और मैं स्याही बनकर बह चली
मधुर स्वछ्न्द गीत गुनगुनाती,
उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती!

न शब्दों का बंधन हो ,न छंदो की बंदिशे
सिर्फ और सिर्फ,’दिल ए जज्बात’ लिखा जाये

चलो फिर कोई कविता ,उन्मुक्त लिखी जाये
अहसासो को उकेर दे, पन्नों पे कुछ ऐसे
ना लय की फ़िक्र हो ,न अलंकार की शर्तें

कुछ रचनाएं ब्लॉग जगत से

आदरणीय पुरुषोत्तम सिन्हा
जागृत सा इक ख्याल और सौ-सौ सवाल.....

हवाओं में उन्मुक्त,
किसी विचरते हुए प॔छी की तरह,
परन्तु, रेखांकित इक परिधि के भीतर,
धूरी के इर्द-गिर्द,
जागृत सा भटकता इक ख्याल!


ठहरा सा ये लम्हा, ये उन्मुक्त से पल,
ठहरा सा है, वो बीता सा कल,
ठहरे से हैं, वो ही बेसब्रियों के पल,
गुजरता नहीं, सुस्त सा ये लम्हा,
जाऊँ किधर, कैद ये कर गया यहाँ....


आसक्त होकर फिर निहारता हूँ मैं 
वो खुला आकाश!
जहाँ....
मुक्त पंख लिए नभ में उड़ते वे उन्मुक्त पंछी,
मानो क्षण भर में पाना चाहते हो वो पूरा आकाश...

रचनाएँ ई-पत्रिका अनहदकृति से

आदरणीय हेमंत राज बलेटिया
नारी ...

वह, उन्मुक्त है;
उसे जीने दो!
युग-युग जलती,
सब कुछ सहती,
काराओं की कैदी,
आशामय तकती आँखे,

आदरणीय सुमन जैन लूथरा
गुरुदक्षिणा .. 
तुम्हें देख उड़ते,
आकाश मे उन्मुक्त,
मैंने भी चाहा सीखना तुमसे,
और,
एकलव्य की तरह,
बैठा ली तुम्हारी प्रतिमा,
अपने मन-आँगन में,
खुद ही सीखती,
तुमसे,
गुर,

आदरणीय मंजु महिमा 
सिरहाने के ख़्वाब.. 
हुड़दंगी ये जादूगर
पल में इधर, पल में उधर,
चपल खरगोश, चतुर बन्दर
और कभी एक योगी सुन्दर!!

फिर उसके रंगों की दुनिया
जिसमें कोई न सीमा-बंधन
रचना का उद्यमी क्रीड़ा-क्षेत्र
उछालें भरता उन्मुक्त मन!!

आदरणीय मधु गुप्ता
कुसूरवार कौन ..... 
बूंदों की पायल बाँधी
रुनझुन थिरके पग, रुनझुन थिरके पग
मोरनियाँ अलमस्त हुईं
हाथों की अंगुलियाँ गोल नचाती
मेघों पर स्नेह लुटाती
भीगे -भीगे पल थे दुर्लभ, लगीं मनाने पर्व उत्सव
पड़ी बदन पर हल्की थपकी, भूल गई सर्वस्व
भूल गई धरा को, उड़ने चली उन्मुक्त गगन पर




नियमित रचनाएँ

आदरणीय साधना वैद
उन्मुक्त है तू अब
खुला हुआ है
विस्तृत आसमान
तेरे सामने
भर ले अपने पंखों में जोश


आदरणीय साधना वैद
तुम उसे उसके हिस्से का
आसमान दे दो !
और उन्मुक्त होकर नाप लेने दो उसे
अपने आसमान का समूचा विस्तार  
उस पर विश्वास तो करो
जहाज के पंछी की तरह
वह स्वयं लौट कर अपने
उसी आशियाने में
ज़रूर वापिस आ जायेगी ! 


आदरणीय आशा सक्सेना
देख कर उन्मुक्त उड़ान भरती चिड़िया की
हुआ अनोखा  एहसास उसे   
पंख फैला कर उड़ने की कला  खुले आसमान में
जागी उन्मुक्त जीवन जीने की चाह अंतस में |
हुआ मोह भंग तोड़ दिए सारे बंधन आसपास के
हाथों के स्वर्ण कंगन उसे लगे अब  हथकड़ियों से
पैरों की पायलें लगने लगी लोहे की  बेड़ियां
यूं तो थी वह रानी स्वयं ही अपने धर की
पर रैन बसेरा लगा अब स्वर्ण पिंजरे सा |

आदरणीय कुसुम कोठारी मैं उन्मुक्त गगन का राही

उज्ज्वल रश्मि मेरी
चंचल हिरणी सी कुलांचे भरती
वन विचरण करती
बन पाखी, द्रुम दल विहंसती
जा सूनी मूंडेरें चढती
झांक आती सबके झरोखे
फूलों से क्रीडा करती,


आदरणीया अनीता सैनी जी
गुजरे छह महीने

इनकी ख़ामोशी में तलाशना शब्द तुम 
मोती की चमक नहीं सीपी की वेदना समझना तुम। 
छह महीने देखते ही देखते एक साल बनेगा 
पड़ता-उठता फिर दौड़ता आएगा यह वर्ष 
इसकी फ़रियाद सुनना तुम।

आदरणीया सुजाता प्रिया जी
उन्मुक्त भाव


हम उन्मुक्त तभी रहेंगे,

जब भाव हमारे हों उन्मुक्त।
सभी जनों का क्लेश हरें हम,
भेद-भाव से होकर मुक्त।
वैर-द्वेष और कलुष रहिए
ऐसा महल सजाइए।
हम सब मिलकर.......


आदरणीय सुबोध सिन्हा जी
एक रात उन्मुक्त कभी

लगाती आ रही चक्कर अनवरत धरती 
युगों-युगों से जो दूरस्थ उस सूरज की,
हो पायी है कब इन चक्करों से उन्मुक्त ? 
बावरी धरती के चक्कर से भी तो इधर 
हुआ नहीं आज तक चाँद बेचारा उन्मुक्त।
धरे धैर्य धुरी पर अपनी सूरज भी उधर 
लगाता जा रहा चक्कर अनवरत हर वक्त।
चाहता है होना कौन भला ऐसे में उन्मुक्त ! ...
-*-*-*-*-*-*-

अपरिहार्य कारणों से एक माह के लिए 

यह विशेषांक मुल्तवी कर रहे हैं
कल आएँगे भाई रवींद्र जी
सादर





रविवार, 30 अगस्त 2020

1871..जन्मदिन की शुभकामनाएं !!


जय मां हाटेशवरी......

हर राह आसान हो, हर राह पर खुशियां हो,
हर दिन खूबसूरत हो, ऐसा ही पूरा जीवन हो,
यही दुआ है हमारी,
ऐसा ही तुम्हारा हर जन्मदिन हो।
पांच लिंकों का आनंद परिवार की ओर से......
 आदरणीय विभा आंटी को......
जन्मदिन की शुभकामनाएं !!
इन की लिखी एक लघु-कथा से आज की हलचल का श्रीगणेश करता हूं......


नया सवेरा'-विभा रानी श्रीवास्तव
रुग्न अवस्था में पड़ा पति अपनी पत्नी की ओर देखकर रोने लगा, “करमजली! तू करमजली नहीं.., करमजले वो सारे लोग हैं जो तुझे इस नाम से बुलाते है..।”
“आप भी तो इसी नाम से...,”
“पति फफक पड़ा.. हाँ! मैं भी.. मुझे क्षमा कर दो!”
“आप मेरे पति हैं.., मैं आपको क्षमा...? क्या अनर्थ करते हैं..,”
“नहीं! सौभाग्यवंती...!”
“मैं सौभाग्यवंती...?" पत्नी को बेहद आश्चर्य हुआ...!
“आज सोच रहा हूँ... जब मैं तुम्हें मारा-पीटा करता था, तो तुम्हें कैसा लगता रहा होगा...!” कहकर पति फिर रोने लगा।
समय इतना बदलता है...। पति की कलाई और उँगलियों पर दवाई मलती करमजली सोच रही थी। अब हमेशा दर्द और झुनझुनी से उसके पति बहुत परेशान रहते हैं। एक समय ऐसा था,
जब उनके झापड़ से लोग डरते थे...। चटाक हुआ कि नीली-लाल हुई वो जगह...। अपने कान की टूटी की बाली व कान से बहते पानी और फूटती-फूटती बची आँखें कहाँ भूल पाई है,
आज तक करमजली फिर भी बोली,- “आप चुप हो जाएँ...।”
“मुझे क्षमा कर दो...,” करबद्ध क्षमा मांगता हुआ पति ने कहा।पत्नी चुप रही वह कुछ बोल नहीं पाई।
“जानती हो... हमारे घर वाले ही हमारे रिश्ते के दुश्मन निकले...। लगाई-बुझाई करके तुझे पिटवाते रहे...।
अब जब बीमार पड़ा हूँ तो सब किनारा कर गये। एक तू ही है
जो मेरे साथ...,"
“मेरा आपका तो जन्म-जन्म का साथ है...!"
पति फिर रोने लगा, "मुझे क्षमा कर दो...,”
“देखिये जब आँख खुले तब ही सबेरा...। आप सारी बातें भूल जाइए...,”
“और तुम...?”
“मैं भी भूलने की कोशिश करूँगी...। भूल जाने में ही सारा सुख है...।”
पत्नी की ओर देख पति सोचने लगा कि अपनी समझदार पत्नी को अब तक मैं पहचान नहीं सका...
आज आँख खुली... इतनी देर से...।￰





देखो भूला ना करो, मास्क लगाया करो
देखो भूला ना करो, मास्क लगाया करो
हम न बोलेंगे कभी, मास्क बिन न आया करो
जो कोई बीमार हुआ, सोचो क्या हाल होगा
इस ख़ता पर तेरी, कितना नुक़सान होगा
खुद भी समझो ज़रा, औरों को समझाया करो
जान पर मेरी बने, ऐसी क्या मर्ज़ी तेरी
क्या मैं दुखी रहूँ, यही चाहत है तेरी




लघुकथा : वो कुर्सी
अब भी बाहर दो कुर्सियाँ ले जाती हूँ ... एक पर बैठी ,बच्चों की गेंद के इस पार आने की प्रतीक्षा करती हूँ और हाथ में थामी हुई किताब को पढ़ने का प्रयास किये
बिना ही दूसरी खाली कुर्सी पर छोड़ देती हूँ ।
पास ही रखे 'कारवाँ'  से गाना गूँज उठता है "ज़िंदगी कैसी है पहेली .... "
सच ये मन भी न कहाँ - कहाँ भटकता रहता है !




ये जरुरी तो नहीं
माना तुम्हारे हजारों दिवाने है जमाने में,
पर मेरी तरह तुम्हें चाहे कोई,
ये जरुरी तो नहीं……..
हर मोड़ पर मिलेगें कोई न कोई जिन्दगी की राह में,
पर मेरे जैसा कोई मिले,
ये जरुरी तो नहीं……..



दिल की गहराई
कौन कहता है गहराई सिर्फ समुंदर की होती है,
जरा दिल की गहराई में झाँक कर देखिए जनाब कई समुंदर समाए हुए मिलेंगे।।




जयचंदों को आज बता दो
लालच की विष बेल बो रहे
करके खस्ता हाल,
जयचंदों को आज बता दो
नहीं गलेगी दाल।
चयन हमारा ऐसा जिससे
बढ़े देश का मान,
विश्वगुरु फिर कहलाएँ और
भारत बने महान ।।



क्या है मेरे ‘मैं’ की परिभाषा
नहीं झुकें आपद के आगे
नहीं व्यर्थ के गाल बजाएं
‘मैं’ को पावन शुद्ध करे जो
‘उसमें’ ही सारा जग पाएं !



सब कुछ ठीक ही है - -
न ही कोई ज़िरह की
उम्मीद, सबूत
ही नहीं
फिर
भी ज़माने के नज़र में आप हैं
गुनाहगार, फिर भी यहाँ
सब कुछ ठीक है।



धन्यवाद।

शनिवार, 29 अगस्त 2020

1870... कबीरा खड़ा बज़ार में

सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

उड़ान वालों तेरे उड़ानों पे वक़्त भारी है
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
बढ़ती सम्पन्नता संग असंवेदनशीलता लाती है

सात दिन सात किताबें
वटवृक्ष सही मायनों में भारतीय संस्कृति का प्रतीक हो सकता है।
एक विशाल वटवृक्ष का निर्माण सदियों में होता है और उसकी शाखाएं
एक नए वृक्ष का रूप धारण कर सदियों तक
अपनी छाया में रहने वालों को शीतलता प्रदान करती हैं।
कबीरा खड़ा बज़ार में
प्यार तुम मत किया करना
किसी से जो तूने कहा  है,
निभा सकते हो तो लगाव न करना ।
किसी से जो तूने कहा  है,
अपनी ऑंखों से किसी की,
किसी से जो तूने कहा  है,
 जिन्दगी बीमार को न करना ।।
सबसे बुरे दिनों से भी...
तब तुम भी
अनिवार्य रूप से
वेदों की ओर मुड़ जाना.
बेहतर होगा
कि शहर के राजपथ छोड़कर
किसी अरण्य की पगडंडी पकड़ लेना
मंतव्य
'एक युवा जंगल मुझे,
अपनी हरी पत्तियों से बुलाता है।
मेरी शिराओं में हरा रक्त बहने लगा है
आंखों में हरी परछाइयां फिसलती हैं
कंधों पर एक हरा आकाश ठहरा है
होठ मेरे एक हरे गान में कांपते हैं:
पहेली
कहत कत परदेसी की बात
मंदिर अरध अवधि बदि हमसो
हरि अहार चलि जात।
 ब्रज के ही नहीं विश्व के महान कवियों में शुमार किए जाते
कवि की एक रचना की यह पहली दो पंकि्तयां हैं।

><><><
पुन: भेंट होगी...
><><><
हम-क़दम का अगला विषय है-
'उन्मुक्त'

              इस विषय पर सृजित आप अपनी रचना आज शनिवार (29 अगस्त 2020) तक कॉन्टैक्ट फ़ॉर्म के माध्यम से हमें भेजिएगा। 

चयनित रचनाओं को आगामी सोमवारीय प्रस्तुति (31 अगस्त 2020) में प्रकाशित किया जाएगा।


शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

1869...ये आधुनिक कौरवों की बस्ती है

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का 
स्नेहिल अभिवादन।
-------
बंद मुद्दों के पिटारे, ज़िंदा हैं सिसकियाँ
मुर्दे के फुदने से लटकायी कठपुतलियाँ
खेल रचे सच-झूठ और रहस्योद्घाटन के 
तमाशबीन रोमांच से पीटते हम तालियाँ
आले पर रोटी और पैताने मनुष्यता रख
जीभ पर झंडे उठाये देकर हम गालियाँ
देशभक्ति का लबादा प्रदर्शनी में पहने 
मुँह में जड़ ताले,आँखों में लगा जालियाँ
न भूख,न बेकारी,न बाढ़ और न बीमारी
मनोरंजक बातें करते 'हम' और मीडिया।
#श्वेता

आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-


परदे बहुत से
बहुत जगह लगे दिखे लहराते हुऐ हवा में
कई कई वर्षॉं से टिके
खिड़कियाँ भी नहीं थी ना ही दरवाजे थे
कहीं दिखा ही नहीं 

My photo
बेदखल जब हो गए हम नींद से
साथ बीते दिन सभी खलते रहे ।

चाँद जब बदली से फिर-फिर झाँकता,
दिल में उठते कुछ भँवर छलते रहे ।

ज़िन्दगी वीरान जब होने लगी,
सपने फिर बन ख़ौफ़ सँग चलते रहे ।

My photo
बेरहम और बेशर्म दौर में 
उनके बनाए चक्रव्यूह से
 निकलना आसान नहीं ,
ओ ! नादान अभिमन्यु 
ये आधुनिक कौरवों की बस्ती है, 
यहाँ कोई इंसान नहीं  .
निकलना हो अगर इस घेरेबंदी से ,



मैं अपने समाजसेवा के क्षेत्र में किये गए अपने महान कार्यों को याद करने लगा। इस कोरोना काल में गरीबों के बीच तेरह मास्क बांटे है। ढाई सौ ग्राम से इक्कीस पैकेट का बंटवारा किया। हाँ, यह अलग बात है कि एक एक तस्वीर को हर रोज रोज ऐसे डाला जैसे सोनू सूद को मैंने ही पछाड़ दिया हो। सबका एलबम बनाया। और  अभियान में शुरू हो गया।

फेमिनिज़्म

लेकिन सवाल यह है कि आग में वो ही क्यों कूदे? सती-प्रथा हो या जौहर, एक नारी के लिए ये समाज की कुदृष्टि से बचने के लिए चुना गया अंतिम विकल्प है जो दुर्भाग्य से सामूहिक भी होता आया है. कितने दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण  होते होंगे वो पल, जहाँ उसे इस बात का पूरा भरोसा हो जाता है कि उसके मान-सम्मान की रक्षा करने वाला कोई नहीं! और लोग इसे महानता कहकर अपनी शर्मिंदगी पर पर्दा डाल देते हैं! हाँ, वो सचमुच महान है पर पुरुष समाज से निराश भी!


हमारे मुहल्ले भर की चाची
जब लाइफबॉय से नहाएँ
तो फिर पियर्स से नहायी
'लकी' चेहरा वाली 'आँटी'
किसी भी 'कम्पटीशन' के पहले
अब हम भला कहाँ से लाएँ ?


आज के लिए विशेष
आज मशहूर शायर,ग़ज़ल गो,
कवि फ़िराक गोरखपुरी का जन्मदिन है।
ख़ुदरंग शायर की लिखी ग़जल
सुनिये

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं. 
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं. 
मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं. 
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं.

उम्मीद है आज का अंक
आपको अच्छा लगा होगा।

हमक़दम के लिए

कल अंक पढ़ना न भूले
विभा दी आ रही है
अपने विषय विशेष के साथ
सादर

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

1868...आसमान से आती चिलचिलाती धूप...


सादर अभिवादन। 

गुरुवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 

आसमान से आती 
चिलचिलाती धूप 
हरियाले खेतों में 
निराई-गुड़ाई करते 
तनों पर पड़ रही है 
क्वार का महीना है 
बाढ़ में कहीं 
फ़सल सड़ रही है। 
-रवीन्द्र 

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-


ज़रूरी नहीं सिर्फ़ तुम्हारे पैमाने
से ज़िन्दगी संवारी जाए,
कभी कभार क्यों
ज़मीर के लिए
जीत के
बाज़ी हारी जाए - - 

 दिल एक मंदिर है, जिसमें एक मूरत है। 
मन-मंदिर में रखकर,हम उसे रिझाते हैं। 
 दिल एक दर्पण है, जिसमें एक सूरत है
पास जाकर उसके,हम प्रेम-गीत गाते हैं। 


My Photo
इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ दोस्त हम जुदा हो जाएँ
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

चीनी यात्रीयों में मुख्यतः बौद्ध भिक्खु ही थे जिन के आने का मुख्य कारण बौद्ध धर्म की जानकारी और गहन अध्ययन था. पर उनका उस समय के रास्ते, गाँव, शहरों और शासन तंत्र के बारे में लिखना इतिहास जानने का अच्छा साधन है


Hindi diwas

हम भूल जाते हैं कि कोई भी पेड़ हरा- भराविशाल छायादार तभी रह सकता है  जब हम उसकी जड़ों को सींचे. उसकी ठीक तरह से देखभाल करें. मुझे डर है कि  जिस तरह देव भाषा संस्कृत मात्र वेदों और पुराणों की पुस्तकों में सिमट गई है. आज केवल गिने चुने लोग ही है जो उसे बोलते और समझते हैं. उसी तरह आज की स्थिति यदि यूँ ही बरकरार रहती है तो कहीं हमारी यह भाषा भी अपना अस्तित्व खो दे और केवल पुस्तकों में सिमट कर ही रह जाए.
*****

हम-क़दम का नया विषय

 आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगेआगामी मंगलवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...