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शनिवार, 8 अगस्त 2020

1849... सौदाई

सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

मैं में जीने वाले की जुबान
तेज धार वाली कैंची सी चलती है
हम में जीने वाले होते
सौदाई

बुझा-बुझा सा ये दिल सुबह शाम करता है
सुस्त क़दमों से कोई सूरज को दफ़्न करता है
कोई हवा जो बहुत रहमदिल हो ये सुन ले
पहाड़ अब भी समंदर को याद करता है
इस जनम में तो है रिश्ता यही तेरा मेरा।
इंतजार और करें अगले जनम तक आओ
सौदाई

जैसे परियों का फलक से हो उतरना धरती पे
उस की बातें मेरे दिल में थीं पोशीदा कभी ‌
उस के हर लफज से आती थी वफा की खुशबु
किसी सौदाई की चाहत में जिसे ठुकराया कभी
विशेष

इस लेख में दिया गया कोई तथ्य यदि
आपको गलत लगे तो कृपया
हमें जरूर सूचित करें, ताकि
जनता में सिर्फ सच ही जाए।    -संपादक मंडल
सौदाई

बड़ी बेबाक होती जिंदगी की अजीब राहें
पता नहीं ये किसे कब चाहे कब भूल जाये
प्रीतम से सितमगर तक का दस्तूर निभाये
इनायत की राह में कांटो की चुभन सह जाये
अपनी ही साँसों का कैदी

एक-एक सांस बजाकर सुनता है सौदाई
एक-एक सांस को खोल के ,अपने तन पे लिपटाता जाता है
अपनी ही साँसों का कैदी  रेशम का यह शायर एक दिन
अपने दी तागों में घुटकर मर जायेगा

किसी को जो मेरी बातों से इत्तफाक ना हो...,
><><><><
पुन: भेंट होगी...
><><><><
...
हम-क़दम
अब 130 वाँ विषय..
व्यथा

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आप अपनी किसी भी विधा की रचना 
और भेज दीजिए कॉन्टैक्ट फ़ॉर्म के ज़रिये
आज शनिवार 08 अगस्त 2020 तक

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6 टिप्‍पणियां:

  1. सदा की तरह सदाबहार प्रस्तुति
    आभार
    सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत-बहुत धन्यवाद हमारी कविता को यहाँ "पाँच लिंकों का आनन्द" में शामिल करने के लिए
    अच्छी प्रस्तुति है और प्रोत्साहन बढ़ाने के लिए धन्यवाद !

    आभारी
    फ़िज़ा

    जवाब देंहटाएं
  3. सराहनीय रचनाएँ हैं दी।
    बहुत सुंदर प्रस्तुति।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूब,बेहतरीन अभिव्यक्ति,सादर अभिवादन

    जवाब देंहटाएं

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