निवेदन।


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रविवार, 31 मई 2020

1780....बस वो दिन ही अच्छे थे..... जब करोना नहीं था.....

जय मां हाटेशवरी......
आज मई का अंतिम दिन......
चार लॉक-डाउन भोग चुके हैं.....
कल से पांचवे की तैयारी.....
3 महीने से अधिक समय हो गया......
हम सबने सबसे अधिक समय.....
करोना पर चर्चा ही की होगी.....
टीवी चैनलों या सोशल मिडिया पर भी.....
बस करोना ही करोना.....
कभी विश्व के आंकड़े....
कभी देश के.....
कभी अपने राज्य व शहर में.....
करोना संक्रमितों की संख्या....
बढ़ती देख....चिंतित ही होते रहे हैं......
शायद आज कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा.....
जो परेशान न हो.....
जो भय-भीत न हो......
कब होगा....ये तांडव समाप्त.....
हमे और अच्छे दिन नहीं चाहिये.....
बस वो दिन ही अच्छे थे.....
जब करोना नहीं था.....

मजदूरों के पलायन पर कविता
वस्तुस्थिति से वाक़िफ हर एक इंसान
जूझ रहा सूक्ष्म एक वायरस से जहान
गर्भवती महिलाएं  बूढ़े-बच्चे नौजवान
चल पड़े हैं पैदल देखो बिना समाधान ।
कई हादसों के हो गये असमय शिकार
दबी वक्त के सन्नाटे में रह गई चित्कार
व्यवस्थायें तो हुईं मगर बिलम्ब हो गया
हताशा ने तोड़ा सबर का बंध छल गया ।


Dard shayari
मशहूर हूँ तेरे दर्द के कारण।
नज़रें तुम्हारी, हुस्न तुम्हारा,
और हम पर कत्ल का इल्ज़ाम आया,
झुमकों ने तुम्हारी शरारत की,
तब जाकर मयख़ाने में जाम आया।


डर
भूख भी
मरने की
वजह हो सकती है
भूखे लोग
डरे रहते हैं कि
मर न जाएं
डरे लोग
दुबके हैं
पर भूख और डर की समग्रता
करवा रही है


चाह -अचाह

लोग ठिठकते हैं पल भर को उसे निहार
भँवरे गीत सुनाते हैं
तितलियाँ तृप्त होती हैं पराग से
वह किसी घड़ी चुपचाप झर जाता है !


वे भी मेरी निष्पक्षता और मंतव्य को समझते थे।
पिता नाखुश ही रहा। उसके इस बर्ताव से युवक को दुःख के साथ-साथ क्रोध भी बहुत आया और उसने अपने पिता से कहा कि लगता है आप मेरी सफलता से ईर्ष्या करते हैं !
मेरी यशो-कीर्ति आपको अच्छी नहीं लगती। आप किसी दुर्भावना के तहत मेरी हर कृति में खामियां निकाल देते हैं ! ऐसा क्यों ? आज आपको बताना ही पडेगा ! अपने पुत्र की बात सुन शिल्पकार गंभीर हो गया ! पर आज समय आ पहुंचा था सच बताने का ! उसने अपने बेटे को शांत हो जाने को कहा और बोला कि मैं तुम्हें अपने से भी बड़ा शिल्पकार बनता हुआ देखना चाहता हूँ ! इसीलिए मैं तुम्हारी हर कलाकृति में मीन-मेख निकाला करता हूँ और इसीलिए अब तक तुम अपनी कला को और बेहतर करने के लिए जुट जाते थे। मुझे पता था कि जिस दिन मैंने तुम्हारी कला की प्रशंसा कर दी; उसी दिन तुम संतुष्ट हो जाओगे !


छलावा
जीवन कोल्हू के वर्तुल में
निरंतर जोते हुए
बैल की तरह
जिसे कभी कौतूहल
तो कभी सहानुभूति से
देखा जाता है,
उनके प्रति
 सम्मान और प्रेम का
 प्रदर्शन
 छलावा के अतिरिक्त
 कुछ भी नहीं


महामारी 
लोग तड़प कर बीमारी से मर रहें हैं,
सब चुप है पर कुछ नहीं कर रहे |
इस महामारी में जाति धर्म है
इस बार केवल एक दूजे के लिए मर्म हो |
लड़ना है इस महामारी से अगर,
मिल जुलकर चलना होगा हर डगर |



धन्यवाद।

शनिवार, 30 मई 2020

1779...छिद्रान्वेषण


सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
चाहत जागी है , सो वो जगी तो जागी
धान से महंगा हुआ कोदो सांवा रागी
हम पर मैं , मेरा हुआ हावी है।
मेरा मन करता है
बिना तन-धन लगाए
 देशभक्ति दिखाऊँ।
वो अच्छा/भला सा कहते हैं
नाख़ून कटवाकर
शहीद हो जाना
समाज के लिए
परबचन देता जाऊँ।
है ही
समाज के वश में है करना
छिद्रान्वेषण

प्रायः प्रगतिवादी विज्ञजन आंग्ल संस्कृति/ वैचारिक प्रभाव वश ..पोज़िटिव  थिंकिंग,
आधे भरे गिलास को देखो ....आदि कहावतें कहते पाए जाते हैं ...
परन्तु गुणात्मक ( धनात्मक + नकारात्मक ) सोच ..सावधानी पूर्ण सोच होती है..
जो आगामी व वर्त्तमान खतरों से आगाह करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है |

निराला का कहा/निराला

हिन्दी समालोचना की एक विकट स्थिति अब रूढ़ हो गई है।
प्रारम्भ से ही यह बात प्रमाणित है कि लक्षण ग्रन्थ अथवा
आलोचनात्मतक कृति का मूल आधार लक्ष्य ग्रन्थ ही रहा है।
 यहाँ तक कि भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ अथवा अन्य किसी भी महान लक्षण ग्रन्थ का आधार
उससे पूर्व लिखी गई सर्जनात्मक कृतियाँ ही रही हैं। पर बाद के दिनों में आलोचकों ने कुछ फरमे बनाए
और उन फरमों में कृतियों को ठूँस-ठूँसकर उसके गुणावगुण की व्याख्या की जाने लगी। 


‘मोटर सफेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिंताकुल चेहरा-बुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है
हर सांस विषैली काली है
छत्ता है काली बर्रों का
वह भव्य इमारत काली है।


रातों के स्थाई
उतार और चढ़ाव
सवाल और जवाब भी
कोई मुद्दे है क्या -
गूँगी दुनियाँ के उस छोर पर
जहाँ हलक में
ठूँस दी गई है जंजीरें


जेहि जैसी सङ्गति करी, सो तैसो फल लीन ।
कदली सीप भुजंग मुख, एक बून्द गुण तीन ।।

जो जैसी सङ्गति करता है, वह वैसा ही फल पाता है ।
मेह की एक बून्द केले में कपूर,
सीप में मोती और सर्प मुख में विष हो जाती है ।
दो शफ्फाक फूल

कि जैसे माथे लगाना नदी
पैर उतारने से पहले

कि जैसे तुम्हारा नाम
मेरा गीत

><><><
पुन: मिलेंगे...
><><><
हम-क़दम के अगले अंक का विषय है-

'शलभ'

इस विषय पर सृजित आप अपनी रचना आज
 शनिवार (30 मई 2020) तक
कॉन्टैक्ट फ़ॉर्म के माध्यम से हमें भेजिएगा। 
चयनित रचनाओं को आगामी सोमवारीय प्रस्तुति
(01 जून 2020) में प्रकाशित किया जाएगा। 


शुक्रवार, 29 मई 2020

1778....मानवता की बात वहाँ बेमानी है

शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल
अभिवादन
-------
कन्हैया लाल मिश्र "प्रभाकर"
29 मई 1906-9 मई 1995
स्वतंत्र सेनानी, समाजसेवक, गाँधीवादी विचार धारा के पोषक, प्रसिध्द सम्पादक , लेखक , रिपोर्ताज लेखन में  सिध्द हस्त,  उच्चविचारक , आचरण की पवित्रता एवं जीवन की सादगी के  साधक मिश्र जी का हिन्दी साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान है।
पढ़िए स्मृतिशेष प्रभाकर जी की दो लघुकथाएँ
अंगार ने ऋषि की आहुतियों का 
घी पिया और हव्य के रस चाटे। 
कुछ देर बाद वह ठंडा होकर 
राख हो गया और 
कूड़े की ढेरी पर फेंक दिया गया।

ऋषि ने जब दूसरे दिन 
नये अंगार पर आहुति अर्पित की 
तो राख ने पुकारा, 
"क्या आज मुझसे रुष्ट हो, महाराज?"

ऋषि की करुणा 
जाग उठी और 
उन्होंने पात्र को पोंछकर 
एक आहुति उसे भी अर्पित् कर दी।
.......
मैं अपना काम ठीक-ठाक करूँगा और उसका पूरा फल पाऊँगा..
एक ने कहा
मैं अपना काम ठीक-ठाक करूँगा और निश्चय ही भगवान उसका पूरा फल मुझे देंगे यह दूसरे ने कहा
मैं अपना काम ठीक करूँगा। फल के बारे में सोचना मेरा काम नहीं...यह तीसरे ने कहा
मैं काम-काज के झमेले में नहीं पड़ता। जो होता है, सब ठीक है। जो होगा सब ठीक होगा...यह चौथे मे कहा

आकाश सबकी सुन रहा था। उसने कहा "पहला गृहस्थ है, दूसरा भक्त है, तीसरा ज्ञानी है, पर चौथा परमहंस है या अहदी (आलसी) यह मैं कह नहीं सकता
......



कोई तो समझाए इन नादानों को
जीवनमूल्य सिखाये इन अनजानों को
जानेंगे जब त्याग, प्रेम की महिमा को  
मानेंगे निज हित चिंता बेमानी है !





रेल होना चाहती हूँ
कि जहाँ सोये हों मजदूर
बदल सकूँ उधर से गुजरने का इरादा
पानी होना चाहती हूँ
कि हर प्यास तक पहुँच सकूं
पुकार से पहले
रोटी होना चाहती हूँ
कि भूख से मरने न दूं
धरती पर किसी को भी

कल-आज-कल 
हे वर्तमान!
मैंने तो नहीं सौंपा था तुम्हें ऐसा हो जाने का सपना। 
मैंने तो स्वयं को मिटाकर 
तुम्हें हर हाल में बेहतर
 होने के लिए गढ़ा है। 
कल भविष्य जब तुम्हें नकारेगा, 
दुत्कारेगा; तुम्हारी मंशा पर उँगली उठाएगा 
और तुम्हारे किए-धरे को ख़ारिज़ करेगा 
तब तुम क्या करोगे?"



यह चुप्पी हमारे अस्तित्व  हमारी स्वतंत्रता,हमारे अधिकरों और हमारी महत्वकांक्षाओं को नष्ट कर रही है और हम मनुष्य से जानवर में परिवर्तित हो रहें हैं.
अब समय है चुप्पी तोड़ने का, अब हमें असंख्य आवाजों के साथ चीखना होगा.

हम भी



चुभते रहे न जानिए, कितनों की निगाह में
आपने जो थामा हाथ , गुलाब हम भी हुये

गुज़र रहे थे आम से, रात दिन बेज़ार से
हुई निगाह तुमसे चार, ख़ास हम भी हुये

उपकृत



अंट जाते हैं इनमें
मिट्टी और कंकड़ भी
लीप दिया जाता है 
दरो दीवार को कुछ इस तरह
कि फर्क की किताब पर लिखे हर्फ़ धुंधला जाएं

मैं भूखे रहकर आत्महत्या कर रहा हूँ 

दुखद यह है कि लाशों के पास कोई सुसाइड नोट लिखा हुआ नहीं मिल रहा है। या कि मिला भी होगा ! वह भी वायरल किया जाएगा! इसमें लिखा होगा, मैं भूखे रहकर आत्महत्या कर रहा हूं। इसके लिए किसी सरकार, किसी अधिकारी, किसी  किसी राजा का दोष नहीं है। मैं इसके लिए दोषी हूं। और सरकार इस दोष की सजा जो मुकर्रर करें, मैं कबूल कर लूंगा!!
....
हम-क़दम का 
नया विषय
यहाँ देखिए


कल मिलिए विभा दीदी से
उनकी अनूठी प्रस्तुति के साथ
आज के अंक के बारे में
ज़रूर कहें कुछ
#श्वेता


गुरुवार, 28 मई 2020

1777...कैसी तृप्ती है औझड़-सी...

सादर आभार। 

गुरुवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।

2020 की फ़रेबी शुरुआत 
अब हैरान नहीं करती 
 विरक्ति-मार्ग की युक्ति 
अब हैरान नहीं करती।
-रवीन्द्र 

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-  
  
 
कैसी तृप्ती है औझड़ सी
तृषा बिना ऋतु के झरती
अनदेखी सी चाह हृदय में
बंद कपाट उर्मि  भरती।
लहकी नागफणी मरुधर में
लूं तप्त फिर भी सूखे।।

 

अँधेरे से डर नहीं जाना
साँझ ढले सूरज बोला।
रैन ढले ही भोर सुहानी
आशा का भरती झोला।
पुष्प खिलेंगे मन बगिया में
सुंदर महकते सुनहरे।



कौतुहल था शायद ,
शायद जिज्ञासा थी ,
क्योंकि
उस धरातल पर
शब्द बेजरूरत थे ,
अनबोला ख़ामोशी
भाषा की परिणति थी ,
भावों की भाषा थी |


 
शब्द समर्थ नहीं या गढ़े नहीं गए या प्रतिवंधित हैं ,
खंडित विश्वास रक्त रंजित मन किसकी गाथा लिखेगा-



 

बिखेरती हैं जब-जब बारिश की बूँदें
गर्मियों की तपिश के बाद
सोंधी सुगंध तपी मिट्टीयों की,
तब भला बादल कहाँ पास होता है ?
 *****



हम-क़दम का नया विषय


आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे आगामी मंगलवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

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