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गुरुवार, 21 मई 2020

1770...दामिनी करती है शोर...



सादर अभिवादन। 

पढ़िए अनवर सुहैल साहब की एक बेमिशाल लघुकविता-
अंडर टेस्टिंग
कोई नहीं करेगा विश्वास
चाहे जितनी मेहनत कर लो
चाहे दे दो अपनी जान
कदम-दर-कदम माँगा जाएगा
देश-प्रेम और वफादारी का प्रमाण
तुमसे नहीं वफा की उम्मीद
खैर मनाओ ' दिन काटो
शक की नजर रहेगी सदा तुम पर.....
-अनवर सुहैल

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें- 
 
गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती
लड़ती, अरि से तनिक डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।
  
 
 वृक्ष कटे छाया मरी, पसरा है अवसाद।
पनपेगा कंक्रीट में, कैसे छायावाद।।
बहुमंजिला इमारतें, खातीं नित्य प्रभात।

प्रथम रश्मि अब हो गई, एक पुरानी बात।।

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फिर भी सब कहते हैं   
हमारे बीच बड़ा प्यारा संबंध है   
हम लड़ते-झगड़ते दिखते हैं   
कभी कहा-सुनी होती है   
बहुत प्यार से हम जीते हैं,   
यह हर कोई जानता है   
कहासुनी में दोनों को बोलना पड़ता है   


निज जीवन की परवाह नहीं परदुख सीने की कोशिश -
अंतस में प्रेम सरोवर है ,चाहें देना हर मानस को,
प्रतिफल प्रतिदान की चाह नहीं,अर्पण करने की कोशिश -


चीरती है बादलों को
दामिनी करती है शोर।
मेघ काले गर्जना सुन
झूमते उपवन में मोर।
प्रीत के अनमोल धागे
विरह गाथा कह रही है।


जाते-जाते 
समय की हवा 
अपने साथ 
  कितना कुछ ले गयी
जून का महीना 
धूप की खान 
यादों का नमक 
मेरे नाम कर गयी। 

‘लोकबंदी’ और ‘भौतिक-दूरी’......विश्वमोहन 

My photo
उसी तरह तकनीकी विकास के दौर में भी नयी-नयी इजाद होने वाली चीज़ों के नाम के बारे में भी यहीं प्रथा है कि उसका अविष्कार करने वाले क्षेत्र की भाषा  में उसके प्रचलित नाम को ही अमूमन उसका सार्वभौमिक नाम सभी भाषाओं में स्वीकार कर लिया जाता है और आज के सूचना क्रांति के युग में उन विदेशज शब्दों के आम जन के मुँह चढ़ जाने में तो कोई बड़ा वक़्त भी नहीं लगता है। इसीलिए विज्ञान के क्षेत्र में रासायनिक, जैविक और वानस्पतिक नामों के एक मानक ‘नोमेंक्लेचर’ की प्रणाली इजाद कर ली गयी है ताकि किसी तरह की कोई भ्रांति नहीं रहे। लेकिन मानविकी और समाज-शास्त्र में अपनी-अपनी भाषा में अनुवाद की स्वतंत्रता है। भलें ही, वह अनुदित समानार्थक शब्द आपकी पारिभाषिक शब्दावली में अपना स्थान बना ले, किंतु आम जन की ज़ुबान पर चढ़ने में उसे लम्बा वक़्त लग जाता है।


चेतावनी स्वरूप आई ये बिषम परस्थितियाँ आज हमें एक और अवसर प्रदान कर रही हैं ,हमसे कह रही हैं -" सम्भल जाओ ,सुधर जाओ ,अभी भी वक़्त हैं कदर करो अपनी प्रकृति की ,अपनी संस्कृति की ,अपने संस्कारो की ,अपने रिश्तों की ,अपने स्वर्गरूपी घर की.... 


हम-क़दम का नया विषय




आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगली प्रस्तुति में। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

9 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया प्रस्तुति...
    वृक्ष कटे छाया मरी, पसरा है अवसाद।
    पनपेगा कंक्रीट में, कैसे छायावाद।।
    आज के लिए प्रासंगिक..
    सादर नमन पंत जी को..

    जवाब देंहटाएं
  2. विनम्र नमन पंत जी....

    सराहनीय प्रस्तुतीकरण
    शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  3. पंत जी को सादर नमन🙏खूबसूरत प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  4. पंत जी को शत् शत् नमन 🙏
    बहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय।

    जवाब देंहटाएं
  5. नमन महान कवि पंतजी को, सुंदर प्रासंगिक
    प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  6. पंत जी को सादर नमन ! सुंदर प्रस्तुति!!

    जवाब देंहटाएं
  7. आदरणीय पंत जी को सादर नमन ,बेहतरीन प्रस्तुति सर ,मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार आपका ,सादर नमस्कार

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत अच्छी प्रस्तुति...


    चीरती है बादलों को
    दामिनी करती है शोर।
    मेघ काले गर्जना सुन
    झूमते उपवन में मोर।

    अनुराधा जी की ये रचना बहुत पसंद आयी। ..
    .
    नमन महान कवि पंतजी को,
    सुंदर प्रासंगिक प्रस्तुति

    मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय

    जवाब देंहटाएं

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