निवेदन।


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मंगलवार, 30 जून 2020

1810 ...रस्ते में फिसलन है दिन है आषाढ़ का ,

सादर नमस्कार
आज अल सुबह
हम...वज़ह जो भी हो
आज की प्रस्तुति में
अचानक हम..

ये बारिशें,ये वादियाँ,और ये फूलों के अदभुत रंग ,
धरा की रहस्यमई,अंगड़ाइयों के ये नवीन से ढंग ,
के चलो गुनगुनाएं तराने,इन वादियों में खो जाएं ,
गर मेरी नजर से देखो,तो ये बहारें दिखेंगी और। 

इन दिनों 
भरा पूरा कमरा 
है मेरा है जिसमें 8-10 लोग 
चिन्हित करके बताउं तो... 

हैं चार दीवारें 
है ऊपर छत 
तीन पर घूम रहे पंखे के साथ 
है 'गो कोरोना' के रिवीयू के साथ 
चिल्लाते एंकर वाला टीवी भी 

नक़ाब जब हटता है
और सच सामने आता है

मुखौटे में शैतान देख
रुदन तब मुस्कुराता है

चेहरा जब बदलता है
और शूल बन  चुभता है


गम के किस्से, ख़ुशी के ठेले हैं
ज़िन्दगी में बहुत झमेले हैं

वक़्त का भी अजीब आलम है
कल थी तन्हाई आज मेले हैं

बस इसी बात से तसल्ली है
चाँद सूरज सभी अकेले हैं

हाथों में 
मेहँदी है 
साड़ी शिफ़ान की |
मौसम में 
खुशबू है 
इतर और पान की |

रस्ते में
फिसलन है 
दिन है आषाढ़ का ,
नदियों का 
मंसूबा है 
शायद बाढ़ का ,
खेत में 
कछारों में 
हरियाली धान की |
...
चुनिन्दा रचनाएँ बस
विषय जारी
125 वां विषय
"सरहद"
उदाहरण...
कोई भी फिल्मी-गैर फिल्मी गीत के बोल भेजिए
रचनाएँ शनिवार 04 जुलाई शाम तक
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सादर

सोमवार, 29 जून 2020

1809 हम-क़दम का इस्पेशियल अंक...बारिश

हम-क़दम का अंक आज
पाठकों की पसंद से
अपनी पसंद 
मिलाने की एक कोशिश है।
देश और दुनिया की
तमाम परेशानियाँ,मन की
उलझनें जीवन के साथ अनवरत
जारी रहेंगी
चलिए आइये
बारिश की रिमझिम फुहारों के
संगीत में
कुछ पल के लिए सबकुछ
भूलकर
 तरोताज़ा हो लीजिए 
सावन की सुगबुगाहट  है..
रिम-झिम बौछारें जारी हो गई है
गरम बड़ों,पकौड़ों के साथ आनन्द लें
आज के अंक का


ओ सजना बरखा बहार लाई




अबकी बरस भेजूँ भैय्या को पाती




डम-डम डिगा-डिगा




एक लड़की भीगी भागी सी



भीगी भीगी रातोंं मेंं



रिमझिम के गीत सावन गाये भीगी भीगी रातो में



रिम-झिम गिरे सावन



कोई लड़की है जब वो हँसती है बारिश आती है



सावन का महीना, पवन करे सोर 
जियारा रे झूमें ऐसे, जैसे बनमां नाचे मोर 
राम गजब ढाये ये पुरवइया 
नैय्या संभालो कित खोये हो खेवइया 

पुरवइया के आगे चले ना कोई जोर

.......
आज के लिए बस
कल आ रहे है भाई रवीन्द्र जी
125 वें विषय के साथ
सादर

रविवार, 28 जून 2020

1808.....• दुनिया की सबसे खूबसूरत चीजें न ही देखि जा सकती हैं न ही छुई, उन्हें बस दिल से महसूस किया जा सकता है।   


दुनिया की सबसे खूबसूरत चीजें न ही देखी जा सकती हैं
न ही छुई, उन्हें बस दिल से महसूस किया जा सकता है। 
ये कथन है......

हेलन केलर जी का......
जिन्होंने अपनी कई  दिव्यांगताओं के बावजूद भी.......
हिमत नहीं हारी......और जीवन में एक सफल महिला बनी.....
कल यानी 27 जून को उनका जन्म दिवस था.....
 हेलन केलर (Helen Keller) का जन्म 27 जून 1880 को अलबामा में हुआ | उनके पिता शहर के समाचार-पत्र के सफल सम्पादक थे और माँ एक गृहिणी थी | हेलन (Helen Keller)
अभी छोटी ही थी कि उन्हें तेज बुखार से जकड़ लिया | अधिकतर मामलो में ऐसे रोगी की मृत्यु हो जाती थी लेकिन हेलन बच गयी | बाद में पता चला कि उनकी देखने और सुनने
की शक्ति जा चुकी थी | माता-पिता विकल हो उठे किन्तु वे जानते थे कि उनकी पुत्री सब संघर्षों का सामना करने की ताकत रखती है
हेलन केलर एक लेखक, सक्रीय राजनीतिक और आचार्य भी थीं । समाजवादी नाम के दल मे एक सदस्य के रूप में उन्होंने दुनिया भर के श्रमिकों और महिलाओं के मताधिकार,
श्रम अधिकार, समाजवाद और कट्टरपंथी शक्तियों के खिलाफ अभियान चलाया। हेलन केलर जन्म के कुछ महीनों बाद ही वो बिमार हो गये और उस बिमारी में उनकी नजर, जबान और
सुनने की शक्ती गयी. पर उनके माता पिता ने उन्हें पढ़नें का निश्चय किया और शिक्षक ढूढने लगे और नशिब से अनी सुलिव्हान इस टिचर ने हेलन केलर इन्हें शिक्षा दी.
अब पेश है.....आज के लिये मेरी पसंद......




मजबूत इच्छा शक्ति और कोरोना बचाव

अधिकतर लोग कहते हैं कि इस उम्र में बीमारियां इतनी हैं कि हंसने की हिम्मत ही नहीं होती , मुझे भी ५ वर्ष पहले ऐसी ऐसी बीमारियां थीं जो मुझे भय के कारण आराम से सोने भी नहीं देती थीं मगर ज़िंदा रहने की तेज इच्छा के कारण उनकी उपेक्षा करना शुरू की और एक आलसी और कमजोर शरीर से एक लम्बी दूरी का धावक निकल कर बाहर आया जो लगातार तीन घंटे तक बिना रुके दौड़ता था इस करामात ने जो मजबूत आत्मविश्वास दिया उससे न केवल चेहरे की रौनक जवानों से अधिक बेहतर बन गयी बल्कि मैं अपनी जवान
शक्ति को महसूस भी करने लगा था  और मैं वाकई हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया !!

वर्षा की दस्तक

नन्हीं नन्हीं बूंदों ने किया सराबोर
घर आँगन खेतों को हो कर विभोर |
 तरसी निगाहें इसे आत्मसात करने को
प्रकृति की अनमोल छवि मन में उतारने को
मनोभाव मन में दबा न सकी
कागज़ पर कलम भी खूब चली |

Online YouTube Video Editor Website ki Jankari
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जीवन बचाने के लिए चिंतन जरूरी- कोरोना काल

मानव ने  चाँद  पर कदम रखकर फतेह हासिल  की  व आज भी अन्य ग्रहों पर जाकर फतेह करने का जज्बा कायम है . लेकिन क्या प्रकृति पर काबू पाया जा सकता है ? प्रकृति जितनी सुंदर है वहीं उसे बंजर बनाने में मानव का बहुत बडा हाथ है. धरती को रासायनिक उर्वरों व संसाधनों द्वारा बंजर व शुष्क बनाकर मानव, आग में घी डालने का काम कर रहा है. क्योंकि प्रकृति जहरीली गैसों से भरा बवंडर भी है. हम मानव निर्मित संसाधनों द्वारा प्रकृति से खिलवाड़ करके अपनी ही सांसों को रोकने का प्रबंध कर रहे हैं. आज हम विश्व स्तर पर प्रकृति से युद्ध लड़ रहें  हैं. जिसमें उसका हथियार एक अदृश्य सूक्ष्म जीव है . जिसने आज  जगत  ,में  कहर मचा रखा है.

चिट्ठी-पत्री का युग बीता,

मंजिल पहले जैसी ही है,
मगर डगर तो बदल गयी है।
जिसको देखो वही यहाँ पर,
मोबाइल का हुआ दिवाना।
मुट्ठी में सिमटी है दुनिया,
छूट गया पत्रालय जाना।।

संयुक्त

दौलत का निहायत ही भूखा है, हरामी,
कुटिल बातों मे उसकी कभी हरगिज भी,
डगमगाने न देना तुम, अपने यकीन को,
वक्त आने पे छोडना मत, कुटिल चीन को।

भारत माँ का सैनिक हूँ----पूरण मल बोहरा की देश भक्ति से पूर्ण रचना

मातृभूमि से सच्चा नाता।
मां भारती के गीत गाता।।
युद्ध में पीठ दिखात नही।
है फौलादी सीना हमारा।
हमको भारत सबसे प्यारा।।

रिश्तों का मर्म

कण-कण जुड़ा है,
एक दूसरे से ।
रिश्ते ना जुड़ें
ये हो सकता नहीं ।

धन्यवाद।

शनिवार, 27 जून 2020

1807.. निकष

सफ़लता को मारिये गोली,पहले असफ़ल होना सीखिए
अरे, जिसका जितना जीवन है वो जीता है...।
परेशानियाँ, संघर्ष, दुःख किसके साथ नहीं चलते?
इन्हीं से जूझते, लड़ते, कभी गिरते, कभी उठते, संभलकर
चलने का नाम ही तो है ज़िंदगी.
इसमें घबराने जैसा क्या है?
हिम्मत है तो जीकर दिखाइए और नहीं है तो...,
सीखिए जीना!
सभी को यथायोग्य
सस्नेहाशीष
क्लास फेलो 【CLASS FELLOW】और
गिलास फेलो 【GLASS FELLOW】के जोश में
सात्विक तोष से
द्वेष का कोई नाता नहीं
विश्वास पड़ताल के
“दलित का दुःख दलित का है उसे वही
अभिव्यक्त कर सकता है तो स्त्री का दुःख स्त्री का है |
उसे छोड़कर दूसरा उसके दर्द को क्या समझे?”
ये प्रश्न अपने मूल स्वरूप में समकालीन भी हैं, समसामयिक भी |
कमोबेस ये दोनों आन्दोलन ‘स्वानुभूति और सहानुभूति’ के
माध्यम से चर्चा-परिचर्चा का माध्यम बनते हैं |
“नांचने का शौक एक बार सबको होता है/
लेकिन पैरों में जिंदगी बांधकर नहीं नाचा जाता/
 जिंदगी कोई घुंघुरू नहीं है/ और न ही वो बच्चों का झुनझुना है.../ 
कब तक थामेंगे कमजोर हाथ/पहाड़ सा दिन और वज्र सी रातें/
कब तक चलेंगी खून की कुल्लियों के बीच सांसें।”
क्या एक कवि को दूसरे कवि के निकष पर कसना और
फिर उनका मूल्यांकन करना उचित है ? ... 
तुलसीदास की कविता की व्याख्या करनेवाले आलोचक 
या लेखक बहुधा बहुत ही सुनियोजित तरीके से तुलसीदास के
उन पदों को प्रमुखता से उठाते हैं
जिंदा रहने की लड़ाई ने
जिंदा रहने की वजह के बारे में
सोचने का समय नहीं दिया
भीड़ के साथ दौड़ते-दौड़ते
मैं घर से बहुत दूर चला आया।
बार बार अपनी विराट खोज 'ऋत' पर भी
संशय कर के भारतीय सोच जहाँ एक ओर
प्रगतिशील होती रही,
वहीं मानव की मेधा के प्रति सहिष्णुता

><><><
पुन: मिलेंगे...
><><><



शुक्रवार, 26 जून 2020

1806 ..युवा-मन भविष्य की तस्वीर पर असमंजस से भर गया है

शुक्रवारीय अंक में 
आप सभी पाठकों का 
स्नेहिल अभिवादन
------
आज का उद्धरण
हमारे देश में सबसे आसान काम आदर्शवाद बघारना है और फिर घटिया से घटिया उपयोगितावादी की तरह व्यवहार करना है। कई सदियों से हमारे देश के आदमी की प्रवृत्ति बनाई गई है अपने को आदर्शवादी घोषित करने की, त्यागी घोषित करने की। पैसा जोड़ना त्याग की घोषणा के साथ ही शुरू होता है।
हरिशंकर परसाई 

कुछ पंक्तियाँ मेरी लिखी-

साथ उम्मीद के चलना ज़िंदगी है।
मरने की हक़ीक़त छलना ज़िंदगी है।

 स्याह आसमान जानता है नींद का सच,
ख़्वाबों से ख़्वाबों का जलना ज़िंदगी है।

दुनियावी बंदिश और हालात के खंज़र,
 बच-बच के दरम्यान से चलना ज़िंदगी है।
#श्वेता

★★★

आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-


अंबर के आनन में 
मेघमाला सज रही है 
कलियाँ-फूल और पत्तियाँ 
अपनी नियति के पथ पर हैं 
नदी मटमैली होकर 
अपने तटबंधों को 
सचेत कर रही है


दूर मेरा गांव पहाड़ी और पहाड़ी जिन्दगी
पर हमारी जिन्दगी थी मस्त मौला जिन्दगी
स्कूल थे सब बन्द तब शीतावकाश की बात है





प्रीत में डूबे भाव लिखे ...
जो कहे नहीं थे अब तक वो
भीगे-भीगे जज़्बात लिखे।
पलकों पर ठहरा इंतेज़ार लिखा,
उम्र भर का क़रार लिखा,
आँखों के झिलमिल ख़्वाब लिखे,
लब पर ठहरे अल्फ़ाज़ लिखे।






ज़रूरत से कहीं अधिक
पिता के लिए सबकुछ ज़िम्मेदारी ही रहा-
उनकी माँ से लेकर उनके बच्चों की माँ तक
घर की टूटी दीवार से लेकर बच्चों की नौकरी तक
दुआर पर गाय से लेकर धान उगाने वाले खेत तक
जब-जब बीमार हुए पिता
उन्हें डागदर बाबू की दवाई ने कम
ज़िम्मेदारी ने अधिक बार ठीक किया।





आसान न था
उस पार का सफर
मिथिल भ्रम की उपासना का मोह
जन्मजात क्रियाओं का दम्भ
बहुतेरा था इस पार के स्थायित्व के लिए




काश कोई घर में उन्हें देख-भाल करने वाला होता।
पर कोई देख-भाल करने वाला होता कैसे ? उसकी अंतरात्मा ने उससे पूछते हुए याद दिलाया। तुम तो किसी को अपने साथ रहने नहीं देती।अभी भी घर से आते वक्त मोहन साथ में अपनी माँ को लाना चाहता था तो तुमने उसेे मना करते हुए कहा था हमारे घर में बस हम दो , हमारे दो ही रहेंगे। कभी भी माँ-पिताजी या कोई परिवार का सदस्य आ गया तुम्हारी तवियत बिगड़ जाती है या खाना बनाना भूल जाती हो।पिछली बार पिताजी आए थे तो उन्हें बार-बार मैगी खाने दे देती थी।जबकि तुम्हें पता है कि उन्हें मैंगी नहीं पसंंद।



पर हे मानव-विशेष! तनिक बतला दीजिए मुझे भी,
भला आप ने ये रिपोर्ट पायी
किस फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की ?
या कह दी उन्हीं देवता-पैग़म्बर ने ही,
आप से कि सच में मिली है आपको डीएनए उन्हीं की? 

★★★★★★★

आज का अंक आशा है
आपको पसंद आया होगा।

कल का अंक पढ़ना न भूलें
कल आ रही हैं विभा दी
विशेष प्रस्तुति लेकर।

#श्वेता









गुरुवार, 25 जून 2020

1805...एक अदृश्य वायरस है जो इतिहास लिख रहा...

सादर अभिवादन। 

बसंत से पावस ऋतु तक 
करोना भी साथ चल रहा,
एक अदृश्य वायरस है 
जो इतिहास लिख रहा।
-रवीन्द्र 

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-     




टप टप का संगीत गूंजता
सरि के जल में कल कल।
पाहन करते  स्नान देख लो
अपनी काया मल मल।
श्यामल बदरी मटक रही है
चढ़ पर्वत की चोटी।।


मेरी फ़ोटो 
समय के साथ बदला मन   
दुख-सुख का साथी ईनार, अब मर गया है   
चापाकल घर-घर गया है   
परिवर्तन जीवन का नियम है   
पर कुछ बदलाव टीस दे जाता है   
आज भी ईनार बहुत याद आता है। 
  

 
उठ खड़े थे, प्रश्न अन-गिनत,
थी, सवालों की झड़ी,
हर कोई, हर किसी से पूछता,
जाने, किसका पता!


 

दिमाग ने सब वो पल, जो मुझे बाँध लेते हैं खुद से, मोह लेते हैं , वो सारे टुकड़े जेहन से निकाल-निकाल के जोड़ दिए और इक सपने की रचना कर दी। और आदतन ही वो आदत भी सपने में जुड़ गयी। 

घूँट -घूंट चाय के खत्म होने के साथ साथ  समय भी करवट ले चूका थाऔर अब आकाश के सारे रंग छंट चुके थे। अब ना वो गुलाबी रंग हैं, ना नारंगी, बैंगनी और ना ही अब वो 'नील-लोहित आकाश' है।
  

 Image may contain: plant and food
सुबह नींद खुली तो कविराज ख़ुश हुए बोले - चलो बच गया दुनिया खत्म नही हुई , अब 11000 कविताएँ लिखने का जो अनुष्ठान बाकी था - वो शीघ्र ही पूरा कर लूँगा, विश्व पुस्तक मेले तक 11 नई किताबें और उन पर 44 समीक्षाएं ही जायेंगी
कवि भगवान को धन्यवाद देते हुए अनलॉक 1 में रजिस्टर खरीदने निकल गया 
*****

आज बस यहीं तक 

फिर मिलेंगे आगामी मंगलवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

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