शीर्षक पंक्ति: सुधा सिंह 'व्याघ्र'
सादर अभिवादन।
मंगलवारीय हलचल प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
करोना वायरस से संक्रमित मरीज़ों की संख्या में भारत में आए दिन भारी इज़ाफ़ा हो रहा है फिर भी कल से बाज़ार की गतिविधियाँ आरम्भ हो गईं हैं। सावधानियों के साथ जीना सीखें और इस महामारी का मुक़ाबला करें।
आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-
गूंजा एक निश्चल प्रतिकार
सिसका निसर्ग भीगे लोचन
संतप्त मन का हाहाकार
फूट गया बन दारुण क्रदंन्
आज जानकी विहल हृदय से
अवसर्ग मांगे क्षिति भिगोये।।
क्या ख़ाली सड़कों से
उड़ जाएंगी चिड़ियाँ,
क्या उनकी जगह ले लेंगे
रेंगते वाहन, घिसटते पांव?
प्रेम का हो खाद पानी, प्रेम भरी मीठी बानी ।
श्रेष्ठ बीज धरती से, आप उपजाइये ।3।
जो भी हम बोएँगे जी, वही हम काटेंगे भी।
सोच के विचार के ही, कदम बढ़ाइये। 4।
कहाँ गुम होती हैं औरतें
झरोखों से झांकती
खिड़कियों की सलाखों को पकड़
आसमान की धूप-छाँहीं देखतीं
पंछियों, बादलों की आवाजाही देखतीं औरतें?
बंद दरवाज़ों के कमरों में बैठीं
ग़ालिब से पूछती हैं
बे-दरो-दीवार का घर क्या तुमसे बन सका था चचा?
तन्हा आवाज़ की
प्रतिध्वनि असरदार नहीं
होती, आओ मिल के
सभी दें आवाज़,
कि बेदर्द
ज़माना
हर हाल में वहीं ठहर जाए..
हम-क़दम के अगले अंक का विषय है-
'स्वतंत्र'
इस विषय पर सृजित आप अपनी रचना आगामी शनिवार (13
जून 2020) तक कॉन्टैक्ट फ़ॉर्म के माध्यम से हमें भेजिएगा।
चयनित रचनाओं को आगामी सोमवारीय प्रस्तुति
(15 जून 2020) में प्रकाशित किया जाएगा।
उदाहरणस्वरूप मशहूर
व्यंग्यकार पदमश्री शरद जोशी जी की लघुकथा-
बुद्धिजीवियों का दायित्व
शरद जोशी
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"लोमड़ी पेड़ के नीचे पहुँची। उसने देखा ऊपर की डाल पर एक कौवा बैठा है, जिसने मुँह में रोटी दाब रखी है। लोमड़ी ने सोचा कि अगर कौवा गलती से मुँह खोल दे तो रोटी नीचे गिर जाएगी। नीचे गिर जाए तो मैं खा लूँ।
लोमड़ी ने कौवे से कहा, ‘भैया कौवे! तुम तो मुक्त प्राणी हो, तुम्हारी बुद्धि, वाणी और तर्क का लोहा सभी मानते हैं। मार्क्सवाद पर तुम्हारी पकड़ भी गहरी है। वर्तमान परिस्थितियों में एक बुद्धिजीवी के दायित्व पर तुम्हारे विचार जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। यों भी तुम ऊँचाई पर बैठे हो, भाषण देकर हमें मार्गदर्शन देना तुम्हें शोभा देगा। बोलो... मुँह खोलो कौवे!’
इमर्जेंसी का काल था। कौवे बहुत होशियार हो गए थे। चोंच से रोटी निकाल अपने हाथ में ले धीरे से कौवे ने कहा - ‘लोमड़ी बाई, शासन ने हम बुद्धिजीवियों को यह रोटी इसी शर्त पर दी है कि इसे मुँह में ले हम अपनी चोंच को बंद रखें। मैं जरा प्रतिबद्ध हो गया हूँ आजकल, क्षमा करें। यों मैं स्वतंत्र हूँ, यह सही है और आश्चर्य नहीं समय आने पर मैं बोलूँ भी।’
इतना कहकर कौवे ने फिर रोटी चोंच में दबा ली।"
-शरद जोशी
साभार : हिंदी समय
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आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे आगामी गुरुवारीय प्रस्तुति में।
रवीन्द्र सिंह यादव
सुंदर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति. मेरी कविता शामिल की. आभार.
जवाब देंहटाएंवाह!अनुज रविन्द्र जी ,सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंव्वाह...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
सादर
-जो बोयेंगे वही काटेंगे लेकिन समय-समय पर गुड़ाई/निकाई की भी जरूरत पड़ती है
जवाब देंहटाएं–भाई रविन्द्र जी के सौजन्य से पढ़ने का सुख मिला... पीढ़ी दर पीढ़ी बहुत कुछ बदल गया जहाँ नहीं बदला वहाँ शायद बदलाव सम्भव नहीं हुआ.. हर पत्थर पर दूब नहीं उगा करती.. दूब उगने के लिए कुछ तो नमी चाहिए
अद्धभूत लेखन
विविधता के रंग लिए सुंदर रचना प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुंदर रचनाओं का संगम।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संकलन।
जवाब देंहटाएंसभी सुरक्षित व स्वस्थ रहें यही कामना है
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतनीय भूमिका।
सभी लिंक मनभावन पठनीय।
सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
मेरी रचना को शामिल करने केलि हृदय तल से आभार।