सफ़लता को मारिये गोली,पहले असफ़ल होना सीखिए
अरे, जिसका जितना जीवन है वो जीता है...।
परेशानियाँ, संघर्ष, दुःख किसके साथ नहीं चलते?
इन्हीं से जूझते, लड़ते, कभी गिरते, कभी उठते, संभलकर
चलने का नाम ही तो है ज़िंदगी.
इसमें घबराने जैसा क्या है?
हिम्मत है तो जीकर दिखाइए और नहीं है तो...,
सीखिए जीना!
सभी को यथायोग्य
सस्नेहाशीष
क्लास फेलो 【CLASS FELLOW】और
गिलास फेलो 【GLASS FELLOW】के जोश में
सात्विक तोष से
द्वेष का कोई नाता नहीं
विश्वास पड़ताल के
“दलित का दुःख दलित का है उसे वही
अभिव्यक्त कर सकता है तो स्त्री का दुःख स्त्री का है |
उसे छोड़कर दूसरा उसके दर्द को क्या समझे?”
ये प्रश्न अपने मूल स्वरूप में समकालीन भी हैं, समसामयिक भी |
कमोबेस ये दोनों आन्दोलन ‘स्वानुभूति और सहानुभूति’ के
माध्यम से चर्चा-परिचर्चा का माध्यम बनते हैं |
“नांचने का शौक एक बार सबको होता है/
लेकिन पैरों में जिंदगी बांधकर नहीं नाचा जाता/
जिंदगी कोई घुंघुरू नहीं है/ और न ही वो बच्चों का झुनझुना है.../
कब तक थामेंगे कमजोर हाथ/पहाड़ सा दिन और वज्र सी रातें/
कब तक चलेंगी खून की कुल्लियों के बीच सांसें।”
क्या एक कवि को दूसरे कवि के निकष पर कसना और
फिर उनका मूल्यांकन करना उचित है ? ...
तुलसीदास की कविता की व्याख्या करनेवाले आलोचक
या लेखक बहुधा बहुत ही सुनियोजित तरीके से तुलसीदास के
उन पदों को प्रमुखता से उठाते हैं
जिंदा रहने की लड़ाई ने
जिंदा रहने की वजह के बारे में
सोचने का समय नहीं दिया
भीड़ के साथ दौड़ते-दौड़ते
मैं घर से बहुत दूर चला आया।
बार बार अपनी विराट खोज 'ऋत' पर भी
संशय कर के भारतीय सोच जहाँ एक ओर
प्रगतिशील होती रही,
वहीं मानव की मेधा के प्रति सहिष्णुता
><><><
पुन: मिलेंगे...
><><><
सुप्रभात दी।
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम।
कविता और कवि पर आधारित आज यह आलेख विशेषांक जहाँ एक ओर संकुचित विचारों की,परिपाटी,लीक में गूँथे कविता विधान को आईना दिखा रहा दूसरी ओर कविता और कवि के बंधनयुक्त मन की विचारशीलता की हर गाँठ खोलने में सक्षम है।
जी दी आभार आपका बहुत सुंदर संकलन हमेशा की तरह अलग और संग्रहणीय अंक।
सादर।
---
अभी परसों ही फ़ेसबुक पर हमारे भूतपूर्व सहकर्मी और प्रसिद्ध कवि माननीय श्री राजेंद्र उपाध्याय जी ने एक ऐसा ही बेतुका सवाल खड़ा कर दिया कि "कौन बड़ा - 'निराला' या 'नागारजुन'।" सभी रचनाकारों को अपने संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। हर इलेक्ट्रॉन का अपना नियत ओर्बिटल होता है। आज की प्रस्तुति का बौद्धिक पक्ष अत्यंत सुगढ और सराहनीय है। आभार और बधाई इतनी सुंदर प्रस्तुति की!
जवाब देंहटाएंव्वाहहहहहह...
जवाब देंहटाएंजिंदा रहने की वजह के बारे में
सोचने का समय नहीं दिया
सादर नमन..
अति सुन्दर विचारणीय प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत सराहनीय और पठनीय लिंकों से सजा अंक |खासकर गद्य रचनाओं का जवाब नहीं | निकष यानि कसौटी | आखिर क्या हो साहित्य की कसौटी ? आखिर कुछ तो मापदंड हों जिनपर खरा उतरे साहित्य सृजन | यूँ तो साहित्य में हर विचारधारा को अभिव्यक्त करने की आजादी है , पर सिर्फ साहित्य शब्दों का खेल ना होकर समसामयिक घटनाक्रम को भी परखे | समस्याएं जीवन के साथ- साथ चलती हैं जिनपर हरेक की स्वानुभूति होती है | पर साहित्यकार यदि कालखंड की प्रमुख घटनाओं पर तठस्थ रहें जो उनपर ऊँगली उठना लाज़मी है | जैसे साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर अमृता प्रीतम जब पंजाब के ओपरेशन ब्लू स्टार पर मौन रही तो उन पर उँगलियाँ उठीं | आखिर बंटवारे की विभीषिका पर लेखन का इतिहास रचने वाली संवेदनशील कवियित्री- इतिहास के इस काले अध्याय पर क्यों मौन साधे बैठी रही -ये प्रश्न आज भी समीक्षकों और उनके प्रशंसकों को बैचैन करता है | जिसने कलम थामी है वही जबावदेह है- अपने समय की विसंगतियों और समस्याओं का | हाँ जो समीक्षक द्वेष और संकुचित दृष्टि के कारण उत्तम रचनाकारों की सही समीक्षा नहीं करते वे भी समय की कसौटी में असफल माने जाने चाहिए | रही तुलना की बात तो ये वही बात है किस फूल को अधिक उपयोगी और सौन्दर्य से परिपूर्ण माना जाये | हरेक की अपनी सुगंध है और अपना सौन्दर्य | अतः ये प्रश्न ही बेमानी है| सभी साहित्यकार अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं सभी का योगदान अतुलनीय है | सार्थक चित्न्परक रचनाएँ पढ़कर बहुत अच्छा लगा आदरणीय दीदी | सादर आभार और प्रणाम |
जवाब देंहटाएंवाह बेहतरीन अंक।
जवाब देंहटाएं