सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
"ये क्या करते हैं आप? हर बार बिना रीढ़ के हड्डी के
मानव को नेतृत्व थमा देते हैं और कामयाबी के
सपने देखने लगते हैं शेखचिल्ली जैसा।"
मानव को नेतृत्व थमा देते हैं और कामयाबी के
सपने देखने लगते हैं शेखचिल्ली जैसा।"
"भैंगा बना व चेहरे का रंग तवा का पेंदी देकर
शक्ल बनाने में कंजूसी कर गये ब्रह्मा...
लेकिन धूर्त तो बनाया! तुम्हें क्या लगता है?
सुदृढ़ व्यक्तित्व को बागडोर देकर अपना पत्ता साफ करवा लूँ?
क्या मैं तुम्हें नजर आता हूँ"
कापुरुष
अक्सर सुना है, पुरुषों का समाज है।
तुम्हारे ही हिसाब से चलता है और,
तुम्हारी ही बात करता है।
पर सच शायद थोड़ा अलग है॥
गिरना
यह ठीक उसी तरह है जैसे 'महाभारत' में 'उत्तिष्ठ हे कापुरुष मा शेष्वैवं पराजितः'
(हे कापुरुष, उठो, इस प्रकार परास्त होकर मत सो जाओ) कहकर मनुष्य को झकझोरा गया है।
यह गिरते-गिरते भी अपनी कद-काठी सँभाल लेने और तनकर खड़े हो जाने के लिए प्रेरित करने वाली
कविता है। यह केदारनाथ अग्रवाल की 'जहाँ गिरा मैं/ कविताओं ने
मुझे उठाया' जैसी गिर रहे लोगों को उठाकर खड़ा कर देने वाली कविता है।
घृणा तुम्हें मार सकती है
यदि, तुम्हें पहुँचना है
इस महक तक अपने कापुरुष से कहो
भय छोड़कर बाहर आये
जैसे छत पर आती है धूप।
लौटना
एक आह अपने
शयनवास के स्वर्ण चौकोर पर
टांग देता होगा. का-पुरुष
व्यस्त रहा होगा निश्चय ही
अन्य विकल्पों में नीवी के
अंदर के सब शरीर उसे भरमाते होंगे
शक्ल बनाने में कंजूसी कर गये ब्रह्मा...
लेकिन धूर्त तो बनाया! तुम्हें क्या लगता है?
सुदृढ़ व्यक्तित्व को बागडोर देकर अपना पत्ता साफ करवा लूँ?
क्या मैं तुम्हें नजर आता हूँ"
कापुरुष
अक्सर सुना है, पुरुषों का समाज है।
तुम्हारे ही हिसाब से चलता है और,
तुम्हारी ही बात करता है।
पर सच शायद थोड़ा अलग है॥
गिरना
यह ठीक उसी तरह है जैसे 'महाभारत' में 'उत्तिष्ठ हे कापुरुष मा शेष्वैवं पराजितः'
(हे कापुरुष, उठो, इस प्रकार परास्त होकर मत सो जाओ) कहकर मनुष्य को झकझोरा गया है।
यह गिरते-गिरते भी अपनी कद-काठी सँभाल लेने और तनकर खड़े हो जाने के लिए प्रेरित करने वाली
कविता है। यह केदारनाथ अग्रवाल की 'जहाँ गिरा मैं/ कविताओं ने
मुझे उठाया' जैसी गिर रहे लोगों को उठाकर खड़ा कर देने वाली कविता है।
घृणा तुम्हें मार सकती है
यदि, तुम्हें पहुँचना है
इस महक तक अपने कापुरुष से कहो
भय छोड़कर बाहर आये
जैसे छत पर आती है धूप।
लौटना
एक आह अपने
शयनवास के स्वर्ण चौकोर पर
टांग देता होगा. का-पुरुष
व्यस्त रहा होगा निश्चय ही
अन्य विकल्पों में नीवी के
अंदर के सब शरीर उसे भरमाते होंगे
हिन्दी के प्रगतिशील कवियों की नब्बे प्रतिशत स्त्री और प्रेम विषयक कविताओं में
स्त्रियाँ प्रगतिशील मर्दों की दया-करुणा-कृपा-सहायता की पात्र बनकर आती हैं ,
या फिर उनके प्रेम-प्राकट्य-अनुष्ठान का निमित्त , साधन या 'पैस्सिव रिसीवर' बनकर आती हैं ।
प्रेमिका बनकर आती हैं तो दिग-दिगंत में देह ही देह , मांस ही मांस भर जाता है ,
और माँ बनकर आती हैं तो आसमान में वात्सल्य का आँचल
परचम की तरह लहराने लगता है और छलकता हुआ
दूध धरती पर गिरकर बहने लगता है ।
><
पुन: मिलेंगे
><
हर शहर का अपना सँगीत होता हैं
कोई सरगम सा बजता हैं कानो में
कोई गाडियों के हॉर्न सा चीखता हैं
रचना भेजने की
आज
अंतिम तिथिः 30 नवम्बर 2019
प्रकाशन तिथिः 2 दिसम्बर 2019
प्रकाशन तिथिः 2 दिसम्बर 2019
प्रविष्ठिया मेल द्वारा सांय 3 बजे तक