निवेदन।


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शनिवार, 30 नवंबर 2019

1597... कापुरुष


सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
"ये क्या करते हैं आप? हर बार बिना रीढ़ के हड्डी के
मानव को नेतृत्व थमा देते हैं और कामयाबी के
सपने देखने लगते हैं शेखचिल्ली जैसा।"
"भैंगा बना व चेहरे का रंग तवा का पेंदी देकर
शक्ल बनाने में कंजूसी कर गये ब्रह्मा...
लेकिन धूर्त तो बनाया! तुम्हें क्या लगता है?
सुदृढ़ व्यक्तित्व को बागडोर देकर अपना पत्ता साफ करवा लूँ?
क्या मैं तुम्हें नजर आता हूँ"

कापुरुष

अक्सर सुना है, पुरुषों का समाज है।
तुम्हारे ही हिसाब से चलता है और,
तुम्हारी ही बात करता है।
पर सच शायद थोड़ा अलग है॥

गिरना

यह ठीक उसी तरह है जैसे 'महाभारत' में 'उत्तिष्ठ हे कापुरुष मा शेष्वैवं पराजितः'
(हे कापुरुष, उठो, इस प्रकार परास्त होकर मत सो जाओ) कहकर मनुष्य को झकझोरा गया है।
यह गिरते-गिरते भी अपनी कद-काठी सँभाल लेने और तनकर खड़े हो जाने के लिए प्रेरित करने वाली
कविता है। यह केदारनाथ अग्रवाल की 'जहाँ गिरा मैं/ कविताओं ने
मुझे उठाया' जैसी गिर रहे लोगों को उठाकर खड़ा कर देने वाली कविता है।

घृणा तुम्हें मार सकती है

यदि, तुम्हें पहुँचना है
इस महक तक अपने कापुरुष से कहो
भय छोड़कर बाहर आये
जैसे छत पर आती है धूप।

लौटना

एक आह अपने
शयनवास के स्वर्ण चौकोर पर
टांग देता होगा. का-पुरुष
व्यस्त रहा होगा निश्चय ही
अन्य विकल्पों में नीवी के
अंदर के सब शरीर उसे भरमाते होंगे


हिन्दी के प्रगतिशील कवियों की नब्बे प्रतिशत स्त्री और प्रेम विषयक कविताओं में
स्त्रियाँ प्रगतिशील मर्दों की दया-करुणा-कृपा-सहायता की पात्र बनकर आती हैं ,
या फिर उनके प्रेम-प्राकट्य-अनुष्ठान का निमित्त , साधन या 'पैस्सिव रिसीवर' बनकर आती हैं ।
प्रेमिका बनकर आती हैं तो दिग-दिगंत में देह ही देह , मांस ही मांस भर जाता है ,
 और माँ बनकर आती हैं तो आसमान में वात्सल्य का आँचल
परचम की तरह लहराने लगता है और छलकता हुआ
दूध धरती पर गिरकर बहने लगता है ।
><
पुन: मिलेंगे
><
और इस बार के हमक़दम
का विषय भी इसी ब्लॉग

शहर

हर शहर का  अपना  सँगीत होता  हैं 
 कोई सरगम  सा बजता हैं  कानो में 
 कोई गाडियों के हॉर्न सा चीखता हैं 

रचना भेजने की
आज
अंतिम तिथिः 30 नवम्बर 2019
प्रकाशन तिथिः 2 दिसम्बर 2019
प्रविष्ठिया मेल द्वारा सांय 3 बजे तक

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

1595...गीत-लोरी कहकहे दालान के गुम हो गये

सादर अभिवादन
------

आप सभी ने अपने बचपन में चंपक,नंदन,सौरभ-सुमन या अन्य शिक्षाप्रद,प्रेरक और ज्ञानवर्द्धक पुस्तकें पढ़ी होंगी ना।
पढ़ाई की किताबों से अलग इन कहानी की किताबों  की कितनी कहानियाँ आज भी प्रेरणा का स्त्रोत होंगी ना।
दया,प्रेम,सहानुभूति भाईचारा,अपनत्व बड़ों का आदर और सम्मान जाने कितनी ही बातें सिखाती  ऐसी पुस्तकें अब बच्चों के हाथों में दिखती कहाँ हैं...।
आज के बच्चे पढ़ाई की किताबों की सीमित जानकारी के अलावा और किसी पुस्तक को पढ़ने में शायद ही रुचि रखते हैं। बच्चों के बदले हिंसात्मक,असहिष्णु व्यवहार का सभी विश्लेषण करते हैं किंतु ज़मीनी तौर पर समझने की कोशिश बहुत कम माता-पिता ही करते है।
बदलते दौर में कक्षा में ज्ञान अर्जित करने जा रहे दुधमुंहों को नंबरों और रैंक की रेस में लगाकर माता-पिता अपनी अधूरी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की मशीन बनाने में उन्हें व्यवहारिक शिक्षा देनी है,सहनशीलता,संवेदनशीलता और अन्य विरल होते मानवीय गुणों हे उनके व्यक्तित्व का श्रृंगार करना है यह भी भूल जाते हैं।

★★☆★★

आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-


,
ये वनैले
फूल-तितली,
भ्रमर कैसे खो गये,
यन्त्रवत
होना किसी
संवेदना का हल नहीं है ।



उसने कहा
तुम्हारी आदतें बदल गई कुछ
इस बात मुझे खुश होना चाहिए
मगर मुझे अच्छा नही लग रहा है

कुछ आदतें कभी नही बदलनी चाहिए
इस बात का अहसास अब हुआ है मुझे

मैंने कहा
बदलाव जीवन का सच है






फटे-पुराने रीति-रिवाजों को

न ओढ़ लेना

गली मुहल्ले का कचरा

घर में न जोड़ लेना



देवी बनकर मत रहना
तुम नारी बन रहना





जिन्दगी की ज़ंग में ज़ख्मों का ज़खीरा साथ चलता रहा
पतझर में मधुमास की उम्मीदों  का कारवां बचा पास है!

हजारों तूफ़ान आए हार मानी नहीं जिन्दगी ने......, 
विश्वासों उम्मीदों की अटल डोर का सहारा बचा पास है!




जो तेरे झोंके से

थरथराने लगूँ

लहरें उमंग में होती है

बावला व्याकुल होता है
तेरे सामने पवन
वो ज्योत्स्ना है
शीतल, पर...
सृजन बाला है



अमर का चेहरा मायूस हो गया।उसकी आँखों में सपना और बच्चों का उसके इंतज़ार करते उदास चेहरे घूम गए।पर फर्ज पुकार रहा था।

गाँव में आतंकवादी घुस आए थे।अमर सब भूलकर अपनी ड्यूटी पर लग गया।आतंकी मुठभेड़ में अमर की टीम ने आतंकवादियों को मार गिराया।पर दो जवान सहित कैप्टन अमर शहीद हो जाते हैं।

अमर के स्वागत में जुटी सपना को उसकी दुनिया लुटने की खबर भी नहीं थी। सुबह-सुबह अचानक अपने सास-ससुर और देवर को देखकर सपना खुशी से चहक उठी। अरे आप लोग! अच्छा हुआ आप सभी आ गए, यह आज आने वाले हैं, आपको देखकर बहुत खुश होंगे।




हम-क़दम का नया विषय
यहाँ देखिए

आज का अंक आपको कैसा लगा?
आप सभी की प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ाती है।

कल का अंक पढ़ना न भूलें
कल आ रही है विभा दी
एक विशेष विषय के साथ।

#श्वेता


गुरुवार, 28 नवंबर 2019

1594...क्या तेरे पुराने साथियों ने तेरा साथ छोड़ दिया...

सादर अभिवादन। 

सृजन में 
स्वच्छंदतावाद
की हुई भरमार, 
वाद-पंथ पर होती  
बार-बार तकरार।
-रवीन्द्र 
  
आइये अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-


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बालक
क्या तेरे पुराने साथियों ने तेरा साथ छोड़ दिया 
जो तू अब अपनी प्यारी सी दुल्हनिया के साथ 
निहत्थे राहगीरों को लूटने लगा है?’


दुनिया के रस्मो-रिवाजों से अनजान हूँ 
मैं नाकाम हूँ तो इसलिए कि नादान हूँ। 
मैंने ख़ुद खरीदा है अपना चिड़चिड़ापन 
बेवफ़ाओं के बीच वफ़ा का क़द्रदान हूँ। 
बिकते ही
 मालिक के प्रति
वफ़ादारी का पट्टा पहने
मालिक की आज्ञा ही
ओढ़ना-बिछौना जिनका
अपने जीवन को ढोते  ग़ुलाम।


सुर मेरे ! उपहार बन जा
जिसे पा सका जीवन में
सुन , मेरा वो प्यार बन जा
फिर पुकारे हमें कोई
तू ही वह दुलार बन जा
खो गये हैं स्वप्न हमारे
दर्द की पहचान बन जा

फ़क़ीर हूँ - FAKIR HUNH - Prakash sah - UNPREDICTABLE ANGRY BOY -  www.prkshsah2011.blogspot.in
मेरे लिए
  आरंभ क्या! अंत क्या!
 अंत ही आरंभ है,
   आरंभ का ही अंत है।
  मैं ही आरंभ करूँमैं ही अंत करूँ।
  एकल सत्य है – मैं एक फ़क़ीर’ हूँ।

 मेरा ये शहर
   कभी गुलजा़र हुआ करता था 
  हर तरफ हुआ करती थी 
   ताजा हवा ...

 
कितना बेसब्र है , भागा भागा जाता है। 
रखा है पूरा , मगर ले कर आधा जाता है 
बच्चे ! लूट अजनबी गलियों में 
तेरे छत ही से पतंगों का धागा जाता है


दिलों पर हुकूमत तलाशता है
ख़्वाहिशों का पहला निवाला
भूल जिगर पर राज वफ़ा का होता है
बरगद की छाँव बन पालने होते हैं,   
 अनगिनत सपनों  से  सजे संसार
तभी दुआ में प्रेम मुकम्मल होता है |
*****

हम-क़दम का नया विषय



आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले गुरूवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

बुधवार, 27 नवंबर 2019

1593.. गिरे थे हम भी जैसे लोग सब गिरते हैं राहों में..

।। भोर वंदन ।।
"ओस-बूंद कहती है; लिख दूं 
नव-गुलाब पर मन की बात। 
कवि कहता है : मैं भी लिख दूं 
प्रिय शब्दों में मन की बात॥ 

ओस-बूंद लिख सकी नहीं कुछ 

नव-गुलाब हो गया मलीन। 

पर कवि ने लिख दिया ओस से 

नव-गुलाब पर काव्य नवीन॥"

केदारनाथ अग्रवाल 



जी, हाँ.. उपर्युक्त पंक्तियों में कलम,कवि और दावातों में निहित शब्दों के रंगरूप जिसे संजोने की कोशिश 
आज की लिंकों में...रचनाकारों के नाम क्रमानुसार पढ़ें..
आ० दिगंबर नासवा जी

आ० विश्वमोहन जी

आ० एकलव्य जी

आ० अनुराधा चौहान जी

आ० कमल उपाध्याय जी
आ० अश्क जगदलपुरी जी..✍

💢💢







लिखे थे दो तभी तो चार दाने हाथ ना आए

बहुत डूबे समुन्दर में खज़ाने हाथ ना आए



गिरे थे हम भी जैसे लोग सब गिरते हैं राहों में

यही है फ़र्क बस हमको उठाने हाथ ना आए



रकीबों ने तो सारा मैल दिल से साफ़ कर डाला..

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जंगल में भी प्रजातांत्रिक मूल्य अब आकृति ग्रहण करने लगे थे। जानवरों में चेतना आ गयी थी। सूचनाओं के तीव्र प्रचार-प्रसार के युग में उन्होंने भी अपने संपर्क सूत्र सुदृढ कर लिए थे। अन्य प्रजातियों की बस्ती में भी उन्होंने अपने जासूस पालतू रूप में छोड़ रखे थे जो भोजन-पत्तर, रहन-सहन से लेकर बात-विचार तक  की प्रणालियों से जंगल की जनता को जागरूक रखते। जनता बड़ी तेजी से आधुनिक हो रही ..

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हृदय हो गया बेचारा।

दर-बदर की ठोकर खाता,

फिरता है मारा-मारा।

निशब्द है भंवरों की गुँजन,

दर्द तड़पें मन के अंदर।

मुरझाए पौधे पे फूल,

चुभते हैं हृदय में शूल।

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मेरा शहर मुंबई 

खड़ा समंदर किनारे 

तनकर मौज लेता है।   

मेरा शहर मुंबई 

जो भी इसे आजमाता  

वो मन माँगी मुराद पाता
💢💢



लूट गये है बाज़ार हम आलोचना करेंगे 

ठप पड़े है व्यापार हम आलोचना करेंगे



आज जो इधर है कल वो उधर होंगे 

गिरगिटों की है सरकार हम आलोचना करेंगे



5 साल लूटा हमने अब आपकी बारी है 

आप करना भ्रष्टाचार हम आलोचना करेंगे..



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हम-क़दम का नया विषय

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।।इति शम।।

धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'
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