अभी थोड़ी देर पहले पटना उतरा।उतरते कुछ दूर पैदल चलते एक टैम्पू को हाथ दे रोका।
फिर 300 सौ से बात शुरु हो,एतना नही,तब छोड़ीये,भक्क नही,जाईए,नहीं होगा,नय सकेंगे की जिरह करते करते 130 रुपया में पटना रेलवे स्टेशन के लिये बैठा।
फिर मैनें फ़ोन जेब से निकाला और मित्र भाई Kumar Rajat जी को लगाते हुए कहा "रजत भाई,घर पर हैं नहीं,यात्रा पे हैं,खरना का प्रसाद खिलवा दीजिये कहीं से।छठ है,बिना खरना के प्रसाद खाए मन नहीं मानेगा।गाँव कल ही पहुँच पायेंगे।"
भाई ने तुरंत पता बताने को कहा "अरे रुकिये हम आते हैं।"
इतने में टैम्पू कुछ दूर चल चुकी थी।थोड़ी देर में मुझे लगने लगा कि ये रास्ता पटना स्टेशन तो नहीं जा रहा।
मैनें थोड़ा परेशान मुद्रा में पूछा "ई किधर जा रहे हो भाई?"
तब तक गाड़ी एक संकरी गली में घूस चुकी थी।दोनों तरफ झोपड़ीनुमा एक कमरे वाली तंग घरों की कतार ।
ड्राईवर ने शायद मुझे परेशान होता समझ लिया था।एक जोरदार ब्रेक से टैम्पू रोका।
"ऐ सर,डरिये नहीं ।भरोसा करिये ।कुच लोग बदनाम किया है बिहार के।सब बिहारी एक्के जैसा नहीं होता है।
कोय रिस्क नहीं है।ट्रस्ट कीजिये सर।"
मैनें कुछ समझे बिना पूछा "तो इधर कहाँ ले आये हो?"
ड्राईवर का जवाब सुनिए।उसने एक निश्छल सी मुस्कुराहट लिये कहा "सर,आपको सुने फ़ोन प कि आप खरना का प्रसाद नहीं खा पाये हैं।घर से बाहर हैं।त हम आपको अपने घर ले जा रहे।मेरा माँ किया है छठ।आपको परसादी खिला के फेर पहुंचा देंगे स्टेशन।ई रजेन्दर नगर का इलाका है।रजेन्दर नगर स्टेशन के पीछे का इलाका है।अगर भरोसा नहीं हो,तो चलिये छोड़ देते हैं।"
मैं अवाक था।
सच बता रहा हूं,हाँ मुझे संदेह था।मन अब भी हिचक तो रहा था इतनी संकरी गली देख कर।लेकिन उसकी मुस्कुराहट और अपने प्रदेश और छठ को लेकर जो भाव चेहरे पे उभर रहे थे,उस पर भरोसा कर लेना ही मुझे ठीक लगा।
मैनें एकदम से कहा "चलिये तब"
और फिर भाई ने घर से तुरंत ला खरना का प्रसाद खिलाया।
मुझे नहीं पता वो किस जाति और किस हैसियत का आदमी था,मैं बस जानता था कि छठ है,ये बिहार है और वो आदमी है।
छठ किसी को भी आदमी बनाए रखता है।
छठ यही है।छठ असल में बिहार का समाज शास्त्र है।
मैं आपको नहीं बता सकता कि हाथ में प्रसाद लिये मैं कितना धन्य था और वो ड्राईवर बिहार की मेजबानी और छठ के सामूहिकता,सामाजिक सरोकारिता,मानवता का सच्चा प्रतिबिंब रूप में खड़ा एक उदाहरण।
ये हैं छठ और ये है छठ होने की जरूरत ।
जिन बुद्धिजीवियों ने छठ में बस नाक भर सिंदूर ही देखा,असल में उन्होनें छठ कभी नहीं देखा।
उन्हें छठ देखना चाहिये,अपने किताब और ग्रंथ भरे ड्राईंग रूम से बाहर निकल इस टैम्पु में भी बैठ देखना चाहिये छठ।ये है छठ।
जैसे पटना स्टेशन पहुंचा,भाई रजत जी भी खरना का प्रसाद लिये पहुँच चुके थे।आज से ज्यादा कभी नहीं खाया इतना प्रसाद और न इतना तृप्त।
जय हो छठ मैया।जय हो। ©Nilotpal Mrinal
वह शहर जो पीछे छूट गया है
वह गाँव जो उदास है
वे घर जिनमें बंद पड़े हैं ताले
जहाँ कुंडली मारे बैठा है अँधेरा
वहाँ ठहर जाना
अपने घोड़ों को कहना
वे वहाँ रुके रहें थोड़ी देर
सात, ग्यारह, इक्कीस व इक्यावन प्रकार के फल-सब्जियों और
अन्य पकवानों को बांस की डलिया में लेकर व्रती महिला के
पति या फिर पुत्र घाट तक जाते हैं।
कखनो रवि बन के कखनो आदित
दलिइवा कबूल करअ गगन बिहारी
भूऊल माफ करियअ हे छठी मैया
कहवाँ तोहार नहिरा गे धोबिन कहवाँ
कहवाँ-कहवाँ के सुरजधाम छै नामी
वह पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी कल्याणकारी भावना के तहत आगे बढ़ाता है।
यह अनायास ही नहीं है कि छठ के दौरान बनने वाले प्रसाद हेतु मशीनों का प्रयोग वर्जित है और
प्रसाद बनाने हेतु आम की सूखी लकडि़यों को
जलावन रूप में प्रयोग किया जाता है, न कि कोयला या गैस का चूल्हा।
पराबैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्त्व को संश्लेषित कर
उसे उसके एलोट्रोप ओजोन में बदल देता है। इस क्रिया द्वारा सूर्य की पराबैगनी किरणों का
अधिकांश भाग पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है। पृथ्वी की सतह पर केवल उसका
नगण्य भाग ही पहुँच पाता है। सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाली
पराबैगनी किरण की मात्रा मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है।
छठपर्व की धूम बिहार से बाहर भी है। अतः मुझे भी मुजफ्फरपुर की याद हो आयी। जो कुछ बन सका और सहयोगियों से जानकारी मिली ,वह अपने ब्लॉग पर कल रात लिख भी हूँ।
जवाब देंहटाएंअच्छी और ज्ञानवर्धक जानकारी आप सदैव देती रही हैं।
आपसभी को पर्व की शुभकामनाएँ।
हाँ , गंगाघाटों को पर्व समापन के पश्चात गंदा न छोड़ जाए, उसे स्वच्छ करके घर वापस लौटा जाए। प्रकृति की देवी का पूजन और प्रकृति का ही तिरस्कार, यह हम मनुष्यों का कैसा कर्म है ?
और सेल्फी वाला कार्टून भी समसामयिक है। खैर, अब तो शवयात्रा के साथ चलने वाले भी सेल्फी से कहाँ पीछे हैं ?
सभी व्रती महिलाओं को सादर नमन..
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति...
सादर नमन..
सुप्रभात दी:)
जवाब देंहटाएंआपका ऐसे अनूठे तरीके से लिंकों का संयोजन मुझे बेहद पसंद आता है यही तो है रचनात्मकता दी आपका श्रम और मनोयोग अनुकरणीय है।
हमेशा की तरह बहुत अच्छी रचनाएँ पढ़वाई आपने दी।
सादर।
वाह! हमारे ज्ञानपीठ नीलोत्पल की मृणालमयी मनोहारी रचना से आगाज करती यह प्रस्तुति अत्यंत विलक्षण है। प्रशंसा से परे प्रस्तुति। बहुत आभार। दीनानाथ का आशीष सबको मिले।
जवाब देंहटाएंक्षमा करिएगा...
जवाब देंहटाएंब्लॉग जगत के साहित्यकार साहित्यकार ना होकर पिछले 20 - 25 दिनों से हिन्दू धर्म के प्रचारक बने बैठे हैं।
क्रिसमस 7 दिनों का है सातों दिनों चर्चा या रचना करिएगा ?
रमजान पूरे महीने की होती है तो महीने भर चर्चा करिएगा ??
मकर सक्रांति व लोहड़ी 5 दिन तक चलती है पांचों दिन चर्चा करिएगा ?
ये पूजा पाठ, दान पुण्य, रौशनी, दया, शुद्धिकरण प्रत्येक धर्म के त्योहारों की कॉमन बातें है फिर क्या रोज रोज चर्चा होनी है।
ये काम धार्मिक प्रचारकों का है हमारा यानी कवि/कवियित्री या लेखकों/लेखिकाओं काम नहीं है।
सौभाग्य से हमारे देश मे धार्मिक उपदेशकों और प्रचारकों की कमी नहीं है और आप उनकी रोजी रोटी पर लात ना मारें।
कड़वी बात का बुरा मानना आदमी की फिदरत है...
फिर भी माफी चाहता हूं। 🙏
कर दिए न गुड़गोबर/कबाड़ा
हटाएंजब आपको खुद लगा कि कड़वी गलत बात कह गए तो मांग लिए माफी तो चलिए करते हैं क्षमा
वैसे मैं भी कड़वी सत्य बात कहने के लिए जानी जाती हूँ और कहकर माफी नहीं मांगती हूँ
मैं शनिवार को लिंक लगाती हूँ और शनिवार को पड़ने वाला कोई विशेष दिवस हो वह नहीं देखती कि हिन्दू का है मुस्लिम है सिख है या ईसाइयों का है
–अगर आप हर शनिवार का लिंक पढ़ते रहे होते तो इतना उबाल नहीं खाते..
दन्तमुक्ता जी,
हटाएंमैं आपका आदर करता हूँ। आपके द्वारा दी गयी प्रस्तुति मैंने बहुत बार पढ़ी हैं।
आप इसे व्यक्तिगत टिप्पणी न समझें
मैंने यहां पर कोई व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं दी है। मुझे मालूम है कि ब्लॉगर एक social साइट है और यह ब्लॉग उस पर social प्लेटफॉर्म है.. यहां पर चर्चा हो तो बेहतर है अगर ना हो तो नीरस है ही।
पढ़ने की बात है तो मैं इस ब्लॉग को तब से पढ़ रहा हूँ जब इस मंच पर "हलचल" का टैग लगता था।
आपको नहीं लगता कि इन दिनों धर्म विशेष पर लाखों बार लिखा जा चुका है... अगर लगता है तो वही मैंने लिख दिया है।
चलिए बन्धु इसे व्यक्तिगत नहीं लेती...
हटाएंसमाज हित साहित्य की बात करते हैं
अगर करोड़ों की आबादी वाले देश में लाखों में ही लेखन हुआ तो स्तब्धता ऊब उलझन क्यों..
प्रजातंत्र है देश में जिसकी जो मर्जी लेखन करें.. अशुद्ध ना लिखें अपशब्द ना लिखें अधर्म की बातें लेखन ना हो अनैतिक ना लेखन करें
छठ/होली ऐसा पर्व है जिसमें जाति धर्म की बातें नहीं बहुत मुस्लिम सहायक भी दिखेंगे और व्रत रखते भी मिल जाएंगे। दृष्टि अपनी-अपनी
मेरी टिप्पणीयाँ लड़ाई के मक़सद नहीं है मैम।
हटाएंपहली बात तो ये कि
मैं हिन्दू धर्म का विपक्षी नहीं और मुस्लिम धर्म का पक्ष नहीं ले रहा। आप मुझे इन दोनों ही धर्मो से जोड़ कर टिप्पणी ना लिखें। बल्कि मैं कोई धर्म की बात कर ही नहीं रहा।
इस लोकयंत्रिक देश में सभी धर्म समान रूप से स्वतंत्र है... सभी धर्मों को मिलाया जाए तो एक भी दिन ऐसा नहीं है कि कोई त्योहार ना हो... तो हर रोज कभी इस धर्म का तो कभी उस धर्म का छापते रहो।
चलो मुस्लिम का जिक्र कर रहे हो तो फिर इसी "लोकयंत्रिक" ब्लॉग पर क्या रमजान के महीने में पूरे महीने भर इसी रमजान पर रचनाएं छपेगी ? या इसे पावन पर्व नहीं मानते?
या फिर मघा पूजा या बुद्ध जयंती पर रचनाएं छपनी चाहिए... कि नहीं।
महावीर जयंती या पर्युषण पर्व पर रचनाएं क्यों नहीं छपती?
दूसरी बात ये कि आप
धार्मिक प्रचारक और साहित्यकार के बीच अंतर कर देवें।
आभार।
भाई रोहिताश्व जी
हटाएंसिर्फ हिन्दुस्तान ही नहीं
विदेशी लोग लोग भी छठ का उपवास करते हैं
जाइए पटना के घाट पर..
विदेशियों के साथ मुस्लिम महिलाएँ भी दिख जाएँगी
भगवान सूर्य को अर्ध्य देते हुए
सादर
प्रणाम यशोदा जी,
हटाएंआपका आशीर्वाद मेरे माथे बना रहे।
लेकिन
मेरा मुद्दा इतना हल्का हो ही नहीं सकता कि किसी एक धर्म के लोग किसी अन्य धर्म मे से क्या क्या कर रहे हैं?
सहयोगात्मक व एकात्मक रवैया तो हर किसी के लिए अच्छा है ये मुद्दा कैसे हो सकता है।
हर दृष्टिकोण का वैज्ञानिक पहलू भी होता है लेकिन उसके लिये सोच बनानी पड़ती है। छठ पर पेश एक लाजवाब प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर लिंक्स चयन एवम प्रस्तुति के लिये सादर वंदन 🙏🏻🙏🏻 अभिनन्दन के साथ छठ पर्व की अनंत शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंआदरणीय रोहिताश जी,
जवाब देंहटाएंमैं आपके वक्तव्य की भावनाओं के सार का विनम्र करबद्ध समादर और अभव्यक्ति के अक्खड़पन की तीव्र भर्त्सना करता हूँ। सबसे पहले तो पर्व-त्योहार हमारी समरस भारतीय संस्कृति के ध्वजावाहक है। आज कल छद्म बुद्धिविलासियों की एक नई जमात आ गयी है जो हर चीज में हिन्दू मुसलमान देखने लगी है। हमने छठ के जितने भी आलेख देखे हैं सबमें प्रकृति और सूर्य की उपासना तथा आपसी आत्मीयता की मिठास की चर्चा है। अब आप बताएं सूरज का धर्म क्या है? प्रकृति हिन्दू है क्या! मानवीय संबंधों की मिठास मुसलमान है क्या? स्वच्छता ईसाई है क्या? फिर यह धर्म का प्रचार कैसे हो गया? काश! सही में, धर्म इन्ही बातों को कहा जाता और चार दिनों के बजाय प्रति दिन इन्ही मूल्यों का प्रचार होता! यही 'स-हित' अर्थात साहित्य के मूल स्वरूप की अभिव्यक्ति होती। ऐसे आपकी 'सम्प्रदाय-संवेदना-निष्णात' बुद्धि को यह बता दें कि हमारे गांव के सभी मुस्लिम परिवार सदियों से छठ करते आ रहे है और हिन्दू परिवार अपनी मनौतियों के पूरा होने पर रोजे रखते आ रहे हैं। भगवान आदित्य की प्रखर रश्मियाँ हमारे अक्खड़पन को झुलसाकर ऊर्जा की सकारात्मक संजीवनी का प्रवाह करे। 'पांच लिंक' को इस अद्भुत प्रस्तुति की बधाई और शुभकामनाएं!!!
आदरणीय विश्वमोहन जी,
हटाएंये सब बातें समझाने के लिए मैं आपका आभार प्रकट करता हूँ। आप बहोत अच्छे इंसान हैं।
लोगों ने तो सती प्रथा पर रोक लगाने वाले राजा राममोहन राय और विलियम बेंटिक की भी भर्त्सना करी थी। क्योंकि उन्होंने समाज के खँगुरे रूपी अभिमान को डायरेक्ट चोट पहुंचाई थी।
लेकिन ये शब्द जो मैंने लिखे हैं ये इस बात को निश्चित नहीं करते कि मैं साम्प्रदायिक हूँ कि नहीं हूं।
ना ही मुझे इस बात में कोई दिलचस्पी है कि देश में कौन कौन से धर्म मिल जुल कर रह रहे हैं और लोगों में कितना प्यार है एक दूजे के लिए।
मेरी बात ये है कि हर रोज किसी न किसी धर्म से कोई ना कोई त्योहार होता है तो क्या हर रोज उस विशेष त्योहार पर रचनाएं पढ़ने को मिलेगी???
मैनें कुछ समझे बिना पूछा "तो इधर कहाँ ले आये हो?"
जवाब देंहटाएंड्राईवर का जवाब सुनिए।उसने एक निश्छल सी मुस्कुराहट लिये कहा "सर,आपको सुने फ़ोन प कि आप खरना का प्रसाद नहीं खा पाये हैं।घर से बाहर हैं।त हम आपको अपने घर ले जा रहे।मेरा माँ किया है छठ।आपको परसादी खिला के फेर पहुंचा देंगे स्टेशन।ई रजेन्दर नगर का इलाका है।रजेन्दर नगर स्टेशन के पीछे का इलाका है।अगर भरोसा नहीं हो,तो चलिये छोड़ देते हैं।"
मैं अवाक था।
सच बता रहा हूं,हाँ मुझे संदेह था।मन अब भी हिचक तो रहा था इतनी संकरी गली देख कर।लेकिन उसकी मुस्कुराहट और अपने प्रदेश और छठ को लेकर जो भाव चेहरे पे उभर रहे थे,उस पर भरोसा कर लेना ही मुझे ठीक लगा।
मैनें एकदम से कहा "चलिये तब"
और फिर भाई ने घर से तुरंत ला खरना का प्रसाद खिलाया।
छपते-छपते ये कथा भयंकर रूप से महत्वपूर्ण है
बिहारी है...छठ का महत्व समझता है..
दोनें ही पुण्य के भागी हुए...व्रती भी और प्रसाद खिलाने वाला भी
सादर नमन
पांच लिंको का आनंद ब्लॉग के सभी चर्चाकार व समस्त बुद्धिजीवी सदस्यों को मेरा प्रणाम ...
जवाब देंहटाएंआज के लिंक में दी गयी सभी रचनाओं को छोड़कर मेंने नीचे हुई बहस को ध्यान से पढ़ा क्युकी रचनाओं में तो मालूम ही है क्या दिया होगा..
मेरा मानना है कि किसी मुद्दे को संयम से सोचना और फिर उस पर उचित बहस करना बात को किसी अंत पर ले जा सकता है .
रोहतास जी का मुद्दा किसी धर्म और संस्कृति पर आधारित नहीं था उनका मुद्दा ब्लॉग की चर्चा से था ..... हाँ अलग अलग लोगों के एक जेसे विचार हो सकते हैं लेकिन एक नदी से निकली कई नहरें किसी संगम पर मिले तो इसे संगम नहीं कहा जाएगा ब्लकि अलग अलग नदियाँ एक जगह मिले उसे संगम कहते हैं अर्थात लिंक में एक ही टॉपिक की चर्चा करना सही है क्या..
क्या कवि का काम किसी विषय विशेष पर ज़बर्दस्ती लिखना है?
क्या किसी त्योहार विशेष पर कोई अन्य विषयों को स्थान नहीं मिल सकता है ?
पांच लिंको का आनंद नाम के हिसाब से तो अलग अलग विषय पर रचित रचनाएं लिंक होनी चाहिय जिन्हें पढ़कर वाक़ई आनंद की अनुभूति हो
मेरी रचना
मशीन ने लिखा इसी मुद्दे पर लिखी गई थी
धन्यवाद
पांच लिंको का आनंद नाम के हिसाब से तो अलग अलग विषय पर रचित रचनाएं लिंक होनी चाहिय जिन्हें पढ़कर वाक़ई आनंद की अनुभूति हो ...
हटाएंआपका यह प्रश्न उचित है, चर्चाकारों को इस पर चिंतन करना चाहिए ।
आपलोग अपना समय और सुझाव गलत चर्चाकार के पोस्ट पर कर रहे हैं... लिंक चयन में मैं अपने पसंद का ख्याल ज्यादा रखने वाली हूँ..
हटाएंजी , ब्लॉग आपका है, पसंद भी आपकी है और आनंद भी आपका ही..
हटाएंमैंने ऐसा कुछ नहीं कहा, एक पत्रकार हूँ ओर इस दृष्टि से एक पाठक की चंद लाइनें मुझे उचित लगी..
सादर।
पहली बार इतना विस्तृत रूप से छठ पर्व को जाना है। मेले सा माहौल, कठिन तपस्या जैसा उपवास, पवित्रता.... यही सब पता था इसके बारे में। धन्यवाद इस सुंदर अंक के लिए विभा दी। भूमिका में दी गई कहानी / संस्मरण और सारी रचनाएँ अविस्मरणीय हैं।
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों पर धार्मिक भेदभाव को कोई स्थान नहीं है, ये मैं विश्वास से कह सकती हूँ।
हार्दिक आभार आपका आपके विश्वास पर हम खरा रहें यह कोशिश होगी
हटाएंबाकी मनोरोगियों का ब्लॉग पर कोई इलाज नहीं
हमारे और आपके विचार हो सकते हैं कि ना मिलते हों लेकिन इसका मतलब ये नहीं होता कि हममें से कोई एक मनोरोगी है।
हटाएंअगर आप कवियत्री हैं तो जानती होंगी कि मनोरोगी और कवि सहनशीलता के मामले में एक जैसे होते हैं।
खैर
आप हमसें बहुत बड़े हो ज्ञान और उम्र दोनों हिसाब से आप कुछ भी कहें बुरा नहीं लगता।
बात रही ब्लॉग के ऊपर मनोरोगी के इलाज की तो मैम आप सो टका सही है, वाकई में कोई इलाज नहीं है, हम आप से सहमत हैं।
🙏
लिंक बढिया थे सो कल से था कि पढूंगी , पर आज यहाँ विचारों का घमासान देखकर बहुत खेद हुआ। रोहिताश जी कीे एक बेबाक टिप्पणी जो थोडी अक्खड़ता से लिखी गई , उसे क्या से क्या बना दिया गया। बहुत अफ़सोस हुआ कि विषय को गलत मोडं दे दिया गया। हम धार्मिक हैं, हमें लिंक बहुत पसन्द आये लेकिन जिस किसी को पसंद ना आये और वो कह दे , तो क्या मनोरोगी हो गया। लिखने के अदाज कीे आलोचना बनती है , विचारों कीे नही। क्या मात्र प्रशस्ति के लिए जगह है मंच पर, आलोचना के लिए नहीं। विषय चर्चा का विषय बदलने का था , सांप्रदायिक नहीं। बहुत खेद हुआ मुझे इस संवाद पर। आश्चर्य है अन्य बहुत विषयों पर और कहीं हस्तक्षेप दरकार था पर सब मौन रहे और मंच कीे शोभा विनम्रता किसी में दिखाई नहीं पड़ी।
जवाब देंहटाएंरेणु जी,
हटाएंप्रणाम,
कुछ बातें सीधी सीधी बोल देनी चाहिए। ऐसी बातों को अलंकृत करके पेश करने का मतलब है हंसी का पात्र बनना। और फिर हंसी का पात्र बनने से अच्छा है मनोरोगी बनना।
मुद्दे बदले इसलिए जाते हैं कि बदलने वाले को चल रहे मुद्दे का भान नहीं होता।
कितने ही ज्वलंत मुद्दे है इस देश के जो साम्प्रदायिक या किसी धर्म से जोड़ दिए जाते हैं और फिर असार्थक बहस की आग में स्वाह हो जाते हैं।
कवि हृदय की वजह से नींद लेना मुश्किल है इस जमाने में...
कितने मासूम झुलस गए और हमें पर्व मनाना है
कितने दमे के मरीज मुश्किल से सांस ले पा रहे हैं और हमे पर्व मनाना है
कितनी लड़कियां बलात का शिकार हुई है और हमें उत्सव करना है।
कितने नन्हे बच्चे/बच्ची शोर से डर डर के रात को सो नहीं पाए इस युद्ध जैसा माहौल में और हमें जश्न मनाना है।
किसी बूढ़े मां बाप की आंखे पत्थरा गयी इंतज़ार करते करते लेकिन हमें चिराग जलाना है।
प्रकृति बचाने का संदेश देते पर्व के दिन ही हम कितने फूलों का दम घोंट देते हैं, नदियों में कचरा बहा देते है, वायु और ध्वनि प्रदूषण करते हैं वो अलग...
साहित्यकार इसे रोकने की बजाय इसके साथ है ये देखकर दुख हुआ।
मुझ से नहीं रहा गया... मुझे भी बुरा लगा कहते हुए।
लेकिन
इतना बुरा हो रहा है समाज मे और कवि/कवियित्री रोज 1 महीने से अलग अलग पर्व के नाम पर खुशियां मना रहा हो ये मुझे इससे भी बुरी लगती है।
कवि घट रही घटनाओं को नजरअंदाज कर पर्व मनाने लगे तो साहित्य समाज का दर्पण नहीं, भावना रहित मनोरंजन की वस्तु हो जाती है।
कवि जब ख़ुश रहने लगे तो वो हास्य कवि हो जाता है जिसकी रचना गुदगुदाती है।
आभार।
रोहिताश जी , जहाँ फूल से कम चलता हो तलवार क्यों चलानी ? पांच लिंकों ने हमारी पहचान में अतुलनीय योगदान दिया है |बदले में हम रचनाकारों की भी सर्वस्व निष्ठा मंच को मिली है | बात धार्मिक भेदभाव की भी नहीं है |पर शालीनता विद्वानों का गहना हैं | वे विनम्रता से ही सुशोभित होते हैं | पर यदि अभिव्यक्ति के नाम पर किसी के सम्मान को ठेस लगते देख सब मौन रहें तो ये एक परम्परा बन जायेगी | सबका सम्मान बना रहे यही दुआ है | आभार |
हटाएंआदरणीय रोहित जी,
जवाब देंहटाएंनमस्ते।
आपका दृष्टिकोण सही है..
देश-दुनिया, सामाजिक विसंगतियों पर हमें लिखना चाहिए सोचना चाहिये पाठकों को प्रेरित करना चाहिए....
हमारे मंच ने लिंकों पर सदैव निष्पक्ष और हर मुद्दों पर रचनाएँ लगायी हैं जो भी समसामयिक लिखे जाने वाले ब्लॉग पर उपलब्ध होते हैं आपने ध्यान दिया होगा कि त्योहारों के समय त्योहारों पर ही आधारित रचनाएँ पोस्ट की जाती हैं पर ऐसे में भी देश और दुनिया के लिए लिखी जाने वाली अन्य लेखों एवं रचनाओं को हम नज़र अंदाज़ तो नहीं करते न वो रचनाएँ भी लगाते हैं न..शीर्षक भले त्योहार का हो पर उनम़े निहित रचनाएँ सदैव विविधापूर्ण होती हैं...
हम लिंकों में समसामयिक प्रस्तुतियाँ लगाते हैं।
ऐसे में जब होली,दीवाली,दशहरा या छठ पर लिखी वाले रचनाओं को अनदेखा कैसे कर सकते?
विभा दी हमारे मंच की वरिष्ठ चर्चाकार हैं बेहद अनुभवी हैं
एक मनुष्य के रुप समाजिक दायित्वों को जितना वो निभाती हैं वो सराहना से परे हैं नमन योग्य है।
साहित्यिक क्षेत्र में उनका योगदान अमूल्य हैं।
विभा दी की प्रस्तुतियां हमारे मंच की सबसे अनूठी प्रस्तुति होती हैं।
उन्होंने आज तक कभी अवकाश नहीं लिया है हम सामान्य चर्चा कारों की तरह उनके पास छुट्टी लेने का कोई बहाना नहीं होता है..।
विभा दी ने जो रचनाएँ लिंक की है अगर आप एक बार ध्यान से पढ़ते तो शायद आपको इतनी सारी शिकायतें नहीं होती..।
हम सभी चर्चा कार हर संभव यही प्रयास करते है ईमानदारी से अपना काम करें नये पुराने सभी रचनाकारों को एक मंच से अनेक पाठक उपलब्ध करवा सके।
आप पाठक और रचनाकार ही तो मंच की शोभा है ना ...कृपया किसी भी बात को व्यक्तिगत न लें आक्रोश या आवेश से वैमनस्यता ही उपजती है।
आप सभी के बहुमूल्य विचार हमें परिमार्जित करते हैं सबने अपने विचार रख दिये हम हरसंभव प्रयास करेंगे कि आपकी उम्मीद पर खरा उतर सके।
इस ब्लॉग की ईमानदारी पर मुझे रतिभर भी शक नहीं है।
हटाएंना ही मेरे मन में कोई सवाल है उनकी वरिष्ठता को लेकर... और ना ही पहले कभी उनसे संवाद हुआ है।
मुझ से बस इतनी गलती हुई है कि मैंने इसे अपनी विचारधारा और गहन चर्चा के लिए उचित मंच समझा।
और मैं अब इसे विराम देना चाहता हूं...
छठ का पर्व पवित्रता आस्था और विश्वास का होता है
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति है अब तो उत्तरप्रदेश में भी उसी श्रध्दा से किया जारहा है!
'पाँच लिंकों का आनंद' अपने प्रिय पाठक / रचनाकार रोहितास घोड़ेला जी के विचारों का स्वागत करता है। बंधुवर आपने बस एक दिन और सब्र किया होता तो शायद आपको ऐसी सख़्त टिप्पणी लिखने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मैं पिछले शनिवार से निजी व्यस्ताओं के चलते ब्लॉग पर नहीं आ सका। यात्रा पर था तो टुकड़ों में इस घमासान को पढ़ पा रहा था।
जवाब देंहटाएंविमर्श में शाब्दिक मर्यादा और आलोचना सहन करने की क्षमता का विकास ही उसे श्रेष्ठता की ओर ले जा सकता है। बौद्धिक अहंकार साहित्य की गरिमा को ज़ख़्मी करता है और विनम्रता जैसा मूल्य ही साहित्य को समाजोपयोगी बना सकेगा।
'मुंडे-मुंडे मतिर भिन्नः' जैसा विचार भारतीय मनीषा की आधारभूमि रही है इसीलिए पाखंड और आडंबर पर निर्गुण भक्ति के सशक्त हस्ताक्षर और खरी-खरी कहनेवाले संत कबीर साहब के विचारों का जहां स्वागत हुआ है वहीं सगुण भक्ति के पुरोधा संत तुलसीदास जी के विचारों को समाज ने सहर्ष स्वीकारा है क्योंकि हम वैचारिक भिन्नता का सम्मान करते हुए उसमें निहित उत्कर्ष भाव का व्यापक महत्त्व जानते हैं। सिक्के के दो पहलू होते हैं तो फिर विचारों में भी अनेक आयाम होते हैं। एक विचार की श्रेष्ठता सिद्ध करने का विचार तानाशाही और चालाकीभरा हो सकता है।
भारतीय संस्कृति त्योहारों को अपनाने पर बाध्य नहीं हुई है बल्कि इन पर्वों और आयोजनों में मूल्याधारित तत्त्व मौजूद हैं तभी लोग सहर्ष इनका अनुगमन करते हैं। जिस दिन लोगों को यह समझ आयेगा कि इनके पीछे सिर्फ़ ढकोसला और दुर्नीति है तो सामाजिक व्यवहार अपना नया रास्ता चुन लेगा। आज हम विश्व के कोने-कोने की संस्कृतियों का अध्ययन कर सकने में सक्षम हैं। शोध और मंथन के ज़रिये सामाजिक उपयोगिता और प्रभावों के निष्कर्ष हासिल कर सकते हैं। अब किसी एकलव्य का बुरी नियत से कोई द्रोणाचार्य दक्षिणा में अँगूठा हासिल नहीं कर सकता और न ही किसी अभिमन्यु को सात महारथी घेरकर बर्बर मौत दे सकते हैं। शताब्दियों पुराने संस्कारों से इतर समाज वक़्त की सच्चाई को परखने लगा है।
कोई व्यक्ति धार्मिक रूप से कट्टर है तो इसका अर्थ है कि वह अपने घर में 24 घंटे पूजा-पाठ करे जिस विधि-विधान से करना चाहे इसमें दूसरों को कोई आपत्ति क्यों हो भला। यह तो उसका निजी मामला है, उसका अधिकार है। समस्या तब पैदा होती है जब लोग अपने जैसी दिनचर्या दूसरों को भी अनुशरण करने के लिये बाध्य करते हैं, बुरी नियत से प्रेरित करते हैं और स्वार्थ के वशीभूत होकर अनेकानेक प्रकार के प्रपंच रखते हैं। समाज को परिष्कृत ज्ञान के स्थान पर अतार्किक और पाखंडी ढकोसलों में धकेल दिया जाता है और अनेक प्रकार के धार्मिकता से जुड़े सोद्देश्य भय पैदा किये जाते हैं। चूँकि समाज का बड़ा हिस्सा लचर और भेदभावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था के चलते विषयों का सूक्ष्म विश्लेषण करने की क्षमता विकसित नहीं कर पाता है तो समाज का चालाक तबका सत्ता और संपत्ति पर कब्ज़े की जुगत बनाता हुआ अंधश्रद्धा और धर्मांधता को हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है।
बहस अब लंबी न हो अतः मैं सभी सहभागियों का आभार मानता हूँ और आदरणीया विभा दीदी से सादर विनती करता हूँ कि 'मनोरोगी' जैसे शब्द को ऐसी बहसों से दूर रखा जाय ताकि वैचारिक विमर्श का दायरा सिकुड़े नहीं बल्कि परिष्कृत होता हुआ विस्तृत होता जाय।
आजकल राष्ट्रीय संवाद में भारत सरकार या वर्तमान प्रधानमंत्री की आलोचना करनेवाले को भी सेकंडों में देशद्रोही कह दिया जाता है कुछ स्वघोषित देशभक्तों द्वारा। ब्लॉग दुनिया को बहरहाल ऐसी शाब्दिक हिंसा से परहेज की सख़्त ज़रूरत है नहीं तो नकारात्मकता का मार्ग अंतहीन है जो किसी लक्ष्य पर नहीं पहुँचता है। हिंदी भाषा में चुभनभरे शब्दों का खुला प्रयोग इसकी समृद्धि में रोड़े डाल रहा है अतः हमें सचेत रहने की बहुत ज़रूरत है।
व्यस्ताओं = व्यस्तताओं
हटाएंमनोरोगी लिखना ना तो जल्दबाजी था और ना अफसोस
हटाएंपाँच लिंकों के पोस्ट पर कभी भी विवाद करने लायक पोस्ट नहीं बनाती हूँ
रेणु जी की टिप्पणी पर जबाब था कि हम खरा उतरने की कोशिश करेंगे
करते भी हैं
फिर भी कोई जबरदस्ती आकर विवाद करता है तो उसे मनोरोगी ही कहा जायेगा
सादर नमन आदरणीया दीदी। आपका अपने वक्तव्य पर यथावत रहना हमें आपके प्रति और अधिक श्रद्धा से भरता है। मेरी टिप्पणी की मंशा सिर्फ़ बहस को तल्खी से परे ले जाना है।
हटाएंआपके सानिद्ध्य में सीखते ही रहना है।
पक्ष रखने के लिए आभार रविन्द्र जी,
हटाएंहम भी अटल हैं अपनी जगह
हम आज भी कह रहे हैं कि विवाद या झगड़ा करना-मकसद ना ही था और ना ही है।
विभा रानी जी,
मैं विचार रखने के लिए ये नहीं देखता कि आज की हलचल किसने डाली है, ये सौभाग्य कहो या दुर्भाग्य कहो कि आप की पोस्ट सीध में आ गयी।
मैंने एक दो बार पहले भी "5 लिंक" पर मुद्दे उठाएं हैं।
तब मुझे आपके शुद्ध मानस और प्यारे व्यवहार का पता नहीं था।
जानबूझकर मनोरोगी कहना आपको और आपके व्यवहार को शोभा देता है।
दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-वफ़ा नहीं किया
ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया
ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार
शहर में इस गिरोह ने किस को ख़फ़ा नहीं किया
जो भी हो तुम पे मो'तरिज़ उस को यही जवाब दो
आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं किया ।
वाह जॉन साब वाह.... कतई स्वाद बिठा दिया 😂😂😁😁😁
पाँच लिकों के आनंद के सभी रचनाकारों की टिप्पणियों विचारों सुझावों और याचनाओं से यही समझ आया कि छोटे-से सुझाव ने तिल का ताड़ कर दिया राई को पर्वत बना डाला ।हमारे रोहित भाई ने अपना सुझाव सिर्फ और सिर्फ विषय परिवर्तित करनेे के लिए दिया था ।हमें ही समझने में थोड़ी भूल हो गई।पर कितना अच्छा लगा कि सभी ने सबके मनोभावों को समझा और सबने सबके विचारों, सुझावों का सम्मान किया ।आपसी मुद्दों का निपटारा आपस में ही होना अच्छा है।. अंततः बसुधैव कुटुम्बकम और सर्वे भवन्तु सुखिनः के भाव जागृत हुए।अतएव मंच के सभी सदस्यों को सादर धन्यबाद एवं आभार एवं नमस्कार ।
जवाब देंहटाएंछठ-पर्व पर इतनी विस्तृत और इतनी रोचक जानकारी एक स्थान पर पहले कभी नहीं देखी. मिट्टी से जुड़े हुए इस त्यौहार को पूर्वांचल में जिस उत्साह से मनाया जाता है, वह अद्भुत है. हम पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में अपने त्योहारों को या तो भूलते जा रहे हैं या फिर उनको मनाते समय अधिक से अधिक तकनीक का प्रयोग करने लगे हैं. छठ-पर्व के आयोजन में सब कुछ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ही निर्वाहन हो रहा है. सभी मित्रों को छठ-पर्व की पुनः बधाई !
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जवाब देंहटाएंTech To Facts
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