निवेदन।


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सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

3318 / छिड़ता युद्ध ........ बिखरता त्रासद

 नमस्कार !  कितनी जल्दी आ जाता है न ये १५ दिन बाद सोमवार  , हैं न ?  अभी तो प्रेम दिवस की खुमारी उतरी भी न थी कि मुझे लगाने पड़ रहे हैं आपको लिंकों का आनन्द देने के लिए लिंक . वैसे आज कल आनन्द है ही कहाँ ? हर जगह युद्ध  का  धुआँ है ....बारूद की गंध है तो परमाणु बम का शोर है ..... जहाँ गिराए जा रहे हैं वहाँ  तो है ही लेकिन सोशल मिडिया पर भी इन सबका प्रयोग हो ही रहा है .....  यूक्रेन पर रूस ने आक्रमण  कर दिया वहाँ युद्ध छिड़ा है और हम भारतीय इसमे भी मोदी जी का हाथ बताने से बाज़ नहीं  आते  .... भूल जाते हैं कि इस तरह की बातों से मोदी जी का कुछ बिगड़े या न बिगड़े उनके  संस्कार  ज़रूर पता चल जाते हैं .....इस समय हम भारतीय युद्ध के एक्सपर्ट बने हुए हैं ....  .  खैर .... युद्ध से कभी किसी का भला नहीं हुआ और आज  यूक्रेन और रूस के बीच छिड़ी जंग भी  हथियारों  से नहीं आपस  की बात चीत से ही सुलझ सकती है ..... 

बात ही करनी होगी  

यूक्रेन को एक बार फिर चने के झाड़ पर चढ़ाने के लिये पश्चिमी देश आगे आने लगे हैंकोई यूक्रेन को तेल दे रहा हैकोई पैसे दे रहा है तो कोई हथियार । युद्ध और बढ़ेविनाश और हो... इसके लिये लोग लामबंद होने लगे हैं । कोई नहीं चाहता कि युद्ध यथाशीघ्र समाप्त हो ..

बातों के ज़रिये कुछ हो सके तो बेहतर ..... वरना राजनयिक को तो कोई फर्क पड़ता नहीं  , फर्क जिनको पड़ता है उनके लिए कोई सोचता नहीं ..... जाने माने लेखक अशोक  जमनानी  जी  की रचना ले कर आई हूँ ..... ब्लॉग पर नहीं फेसबुक से लिंक लिया है ..... उन्होंने शीर्षक नहीं दिया है लेकिन मैंने प्रयास किया है .....

बटुए में .... 

वे लोग 

जो युद्ध के मैदान में हैं 

उनके बटुए में 

नहीं है किसी नेता  की तस्वीर ....

सच है जो लड़ रहें हैं युद्ध वो तो केवल अपने देश के राजनयिकों का आदेश पालन कर रहे हैं और कब मौत को गले लगा लेंगे ये मालूम नहीं .... बस  लड़ते लड़ते भी घर परिवार का प्रेम ही आँखों में बसा रहता है .... एक हमारी मीडिया  है जो चिल्ला चिल्ला कर युद्ध के   दृश्य  ऐसे दिखाती है कि युद्ध नहीं हुआ तो उनकी रोज़ी रोटी पर बन आएगी ..... और यही सब देखते हुए एक व्यथित  हृदय  से निकली  पंक्तियाँ  मन  को झकझोर देती हैं ..... 

युद्ध .....

युद्ध की बेचैन करती
तस्वीरों को साझा करते
न्यूज चैनल,
समाचारों को पढ़ते हुए
उत्तेजना से भरे हुए
 सूत्रधार
 शांति-अशांति की 
 भविष्यवाणी,

इन युद्धों से सच ही सभ्यता कब मर जाती है पता ही नहीं चलता ....... अपने वर्चस्व को बनाये रखने की होड़ ही युद्ध को जन्म देती है और हर युद्ध कभी न कभी समाप्त भी होता है .... कहने को ज़रूर सब कहते हैं कि युद्ध नहीं होने चाहियें  ..... लेकिन कभी इस पर विचार किया है क्या ? 

                      युद्ध क्या है ? 

युद्ध क्या है 
मानवता की छाती पर 
एक कुष्ठ है 
युद्ध वही करता है
जो अपने आप से ही रुष्ट है
युद्ध और कुछ नहीं
अपने गुरूर को दिखाने का
एक घटिया तरीका है 
युद्ध इनसान ने 
किसी शैतान से सीखा है।

जी बिलकुल सही कहा  आपने .....कि युद्ध एक अराजक अय्याशी है .....और ये अय्याशी करने वाले विश्व के लिए नहीं केवल स्वयं के लिए सोचते हैं .... परमाणु बम का इस्तेमाल ऐसे कर  रहे हैं जैसे बच्चे दिवाली में पटाखे चलाते हैं ..... तभी न सतीश जी ने लिखा है ....

बंदरों के हाथ में , परमाणु बम है

 -सतीश सक्सेना

इन दिनों रूस ने उक्रैन पर सैनिक आक्रमण कर दिया है और शायद किसी भी समय उक्रैन आत्मसमर्पण करने को मजबूर होगा वह अपने से सैकड़ों गुना शक्तिशाली रूस के आगे कुछ दिन भी टिक पायेगा इसमें शक है !

मगर इसी परिप्रेक्ष्य में रूस और नाटो की तरफ से जो वक्तव्य दिए जा रहे हैं वे विश्व के समझदार हिस्से के लिए चिंतित करने के लिए काफी है !

युद्ध  की विभीषिका को सब महसूस कर रहे हैं .... क्यों कि इसकी आँच केवल यूक्रेन तक रहने वाली नहीं है ..... जल्द से जल्द युद्ध को ख़त्म होना  चाहिए ....  ऐसा ही कुछ  जगदीश व्योम जी अपनी नयी विधा हाइकु के साथ नवगीत में  लिख रहे हैं .....

 छिड़ता  युद्ध   बिखरता  त्रासद 

छिड़ता युद्ध 

बिखरता त्रासद 

 इंसां रोता है .

आप सटीक  आह्वान कर रहे हैं कि इस पागल आंधी को रोकना होगा और विचार करना होगा कि युद्ध कभी सुपरिणाम नहीं देते .......

एक सामयिक गीत-क्या यही सुदिन

धरा-गगन

चाँद-सूर्य

सब हुए मलिन ।

नायक से

नरभक्षी 

हो गए पुतिन ।

इस युद्ध से  विचलित मन कुछ ऐसा भी सोचता है कि ऐसे युद्ध के समय   पढ़नी  चाहियें प्रेम कवितायेँ ......

बारूद और प्रेम


जब हवाओं में
हो बारूद की गमक
उस समय सबसे जरूरी होती हैं
कि लिखी या पढ़ी जाएं
प्रेम कविताएँ।

अब जब पढ़ने  की बात है तो सबसे पूजनीय होते हैं हमारे पाठक ...........  बिना पाठक के तो लेखक का ही अस्तित्त्व नहीं ....... और आज कल लोग पाठक कम लेखक ज्यादा बने रहना चाहते हैं ..... जाते जाते इसी पर एक करारा सा व्यंग्य पढ़ लीजिये .... मैं तो एक शब्द पर  गच्चा  खा चुकी हूँ लेकिन हाँ आप लोग  बच जायेंगे .... वैसे ये बात तो आप सब ही मानेंगे न  कि मैं पाठक बहुत ही बढ़िया हूँ ..... इसे कहते हैं अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना ..... खैर आप तो पढ़िए .....

का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर !...........


मजबूरन कुकुरमुत्ते-से उग आए लेखक ही एक-दूसरे को मन-ही-मन कोसते हुए त्वरणीय पाठक का स्वांग रच रहे हैं(अपने लेखन पर कुछ ज्यादा ही गुरूर करते हुए)। पर मजाल है कि बतौर पाठक वें किसी की आलोचना कर दें। वैसे भी आलोचना तो अब लेखन-पाठन के उसूलों के खिलाफ ही हो गया है। अब वे पूरे होशो-हवास में दोधारी तलवार पर चलते हुए, बस तारीफों के गाइडलाइंस का पालन भर कर रहें हैं।

अब दीजिये मुझे इजाज़त  ......... मिलेंगे फिर कुछ ब्रेक  के बाद .... शायद तब तक लोग प्रेम कवितायेँ पढने लगें और  युद्ध  ख़त्म हो जाए ...... कुछ आनंदित विषय ले कर आपके सम्मुख आ  सकूँ इसी आशा में .............
..........

संगीता स्वरुप 






रविवार, 27 फ़रवरी 2022

3317...बिना किसी झंझट के मोटी तनख्वाह जेब में डालो और चलो भइया घरै!

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय सतीश सक्सेना जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

रविवारीय अंक की पाँच ताज़ा-तरीन रचनाओं के लिकों के साथ हाज़िर हूँ, आइए रू--रू होते हैं-

कैसे उसे समझाऊँ

सही राह दिखाने के लिए

कुछ तो दृष्टांत हों

जिनका अर्थ निकलता हो

मन नियंत्रित होता हो।

" आँखों की करामात पर ग़ज़ल "

धड़कनों की सरहद पार थे जब गये

निग़ाहों के समंदर उतर नहा थे जब गये

तो कह जाते दिल का भी जज़्बात सारा

बेज़ार करता है नि:शब्द सौगात तुम्हारा ,

बंदरों के हाथ में , परमाणु बम है -सतीश सक्सेना

यूनाइटेड नेशंस एक ऐसा बौना दफ्तर है जिसे पता है कि हमारे हाथ में कुछ नहीं है , जिसके बाबुओं ने हमारे देश से सीख लिया है कि आठ घंटे की ड्यूटी करनी है जिसमें लंच ऑवर एक घंटे पहले और एक घंटे बाद तक होना है ! दफ्तर आते समय और जाते समय की चाय और पकौड़ी आवश्यक पहले से ही हैं ! बिना किसी झंझट के मोटी तनख्वाह जेब में डालो और चलो भइया घरै !

वीटो पावर के आगे सुरक्षा परिषद मात्र अपील कर पाने की क्षमता रखती है यह सिर्फ उस देश को बचा पाती है जब समस्त वीटो पावर देश एकमत हों अन्यथा उसका कोई अर्थ नहीं !

हाथों में जुगनू उगते है

कोई तो सूरत होगी इस भीड़ में कहीं,

जिन आंखों से आप आंखें मिलाते हैं।

मैं भटकता हूँ नहीं, तिश्नगी में कहीं,

होगा कोई, जो प्यासे के पास जाते हैं।

महामारी का रोना!

पटगए हैं

इन रिश्तों से!

कहीं मन के रिश्ते,

कहीं निरा तन के!

कहीं धन के,

तो कहीं

सिर्फ़ आवरण के!

*****

आज बस यहीं तक 

फिर मिलेंगे आगामी गुरुवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

 

शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

3316 : मृणाल पाण्डे

      हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...

मृणाल पाण्डे भारत की एक पत्रकार, लेखक एवं भारतीय टेलीविजन की जानी-मानी हस्ती हैं। अगस्त २००९ तक वे हिन्दी दैनिक "हिन्दुस्तान" की सम्पादिका थीं। वे हिन्दुस्तान टाइम्स के हिन्दी प्रकाशन समूह की सदस्या भी हैं। 

मृणाल पाण्डे का जन्म 26 फरवरी 1946 को मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ में हुआ। उनके पिता का नाम एस.डी. पन्त तथा उनकी माता नाम शिवानी था जोकि जानी-मानी उपन्यासकार एवं लेखिका थीं

चिमगादडें

बातचीत का रुख मनचाही दिशा में मुड़ता देख, मारिया ने अपनी भरकम देह दरवाज़े से टिका दी और फ़ुर्सत से खड़ी हो गई - "ममा, बात तो ये है कि जब तक तू अपनी जुबान को कन्ट्रोल नहीं करेगी, कोई डाक्टर-हकीम तेरे मर्ज़ की दवा नहीं कर सकता। अब डिनर में ज़बरदस्ती चावल खा ले, ऊपर से चॉकलेट भी चबा ले तो डायबिटीज बिगड़ेगी नहीं क्या?"

लड़कियाँ

कोई हमें कुछ नहीं बताता। यहाँ, खासकर रात को जब हम सब सो जाते हैं तब बड़ों की दुनिया खुलती है, जैसे बन्द पिटारा। मैं जागकर सुनना चाहती हूँ पर हर बार बीच में मुझे जाने क्यों नींद आ जाती है। ये आवाज़ किसकी है? खाँसी दबाते कौन रो रहा है? छोटी मौसी? “कुत्ते जित्ती इज़्ज़त मेरी नहीं उस घर में।” वह माँ के बगल में कहीं कह रही है। कहाँ? मैं पूछना चाहती हूँ। माँ कह रही है कि जी तो उन सबका कलपता है पर उसे निभाना तो है ही। मेरी आँखें बन्द होती हैं।

पार्टीशन

खुदाई की गंध पाकर सबसे पहले पुश्तों से बसे भंडार के चूहे बाहर माटी के बिलों में सरक गये । काकरोच नालियों में समा गये। दोनो भीतर भीतर अपने पुरखों की तरह नई पाली का इंतजार करने लगे। कहते हैं जब जापान पर बम गिरा था और इलाके की सारी इंसानी नसल मिट गई तब भी कई साल बीतने के बाद जैसे ही नई बसासत शुरू हुई, भीतर छुपे चूहे और कॉकरोच सही सलामत बाहिर निकल आये । बम भी उनका कुछ नहीं बिगाड सका था ।

बिब्बो

पत्नी मुनहने से जिस्म की सुंदर लड़की थी। लड़की कहना ही पड़ेगा, बावजूद उसके कसे जूड़े, नुची भवों और सुनहरी कमानी के गोल चश्मे के। उसका जबड़ा कुछ-कुछ चौकोर था, और एक खानदानी जिद से भरा हुआ भी, जो पीढ़ियों से अपना हुक्म बाअदब बजवाती रही हो। वैसे उसकी आवाज बेहद नरम और हलीम थी, और उसका उच्चारण गुनगुनी अंग्रेजी ध्वनियों से पगा था। आ की मात्रा को वह हलक में घुमाकर बोलती थी, और र को एक बेहद प्यारे पन से ड़ और र के बीच का हरुफ बनाकर कहती।

कुत्ते की मौत

ले-देकर पूरे घर में यही तो एक अलार्म घड़ी थी। मां हर बार यह बात दुहराती थी, जब भी बच्चे उसके करीब से दहलानेवाली तेजी से खेल में मगन गुजरते या पिता उसे चाभी देना भूल जाता। इस बार भी उसने वही बात दुहरायी। तब एक छोटे अंगोछे में लपेटकर घड़ी पिल्ले की बगल में रख दी गयी । कुछ पल वह चुप रहा। शायद घड़ी की टिक-टिक से नहीं, बल्कि उनके सजग सान्निध्य से, पर फिर यकायक रो पड़ा। कींsss उसके हिलने से अलार्म की कोई कल भी हिल पड़ी शायद और क्षण-भर को उसकी 'कीं कीं' के ऊपर घनघनाता कर्कश अलार्म भी बज उठा।

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पुनः भेंट होगी...
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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

3315...ऐ आदमी....

शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल 
अभिवादन करती हूँ।
------
उजड़ी आबादी 
बारूद,बम,टैंकरों, हेलीकॉप्टरों की
गगन भेदी गड़गड़ाहटों वाले
वीडियो,रक्तरंजित देह,बौखलायी 
बेबस भीड़,रोते-बिलखते बच्चे 
किसी चित्रपट की रोमांचक
तस्वीरें नहीं
महज एक अशांति का
समाचार नहीं
तानाशाह की निरंकुशता, 
विनाश के समक्ष दर्शक बने
बाहुबलियों की नपुंसकता,
यह विश्व के 
नन्हे से हिस्से में उठती
चूल्हे की चिंगारी नही 
आधिपत्य स्थापित 
करने की ज़िद में
धरती की कोख को
बारूद से भरकर
पीढ़ियों को बंजर करने की
विस्फोटक भूमिका है।
---------
आदमी,आदमी में फर्क होता है। 
आदमी, आदमी में तर्क होता है।
आदमी जब आदमी को नहीं समझे
आदमी, आदमियत के लिए नर्क होता है।

मन को झकझोरने वाली,अनेक प्रश्नों को
उघारती, निःशब्द करती अभिव्यक्ति जिसकी 
धार ज़ेहन पर निशान छोड़ रही।



आदमी होने के लिए
पूछो, चिल्ला कर पूछो !
उन सबसे पूछो
क्यों तुमको ढाँचे में ढाल
उनके पैमाने से तुम्हें
आदमी बनाया गया है?
आदमी, एक ऐसा आदमी !
जो देख नहीं सकता !
जो बोल नहीं सकता !
जो सुन नहीं सकता !
अपनी ही नग्नता को
अपने सामने भी 
खोल नहीं सकता !

------

मन दर्पण को दे पत्थर की भेंट,
तुम खुश हो तो अच्छा है।
मुस्कानों का करके गर आखेट,
तुम खुश हो तो अच्छा है।
मन की पीड़ा जब भारी हो जाती है तो
भावनाओं का ज्वार तटबंध तोड़कर
बहने लगता है,कुछ पहचाने अनकहे अहसासों
को अभिव्यक्त करती हृदयस्पर्शी सृजन।


खुशियों की चाहत में 
कितने दर्पण  टूटे 
सोचों के ,
अनचाहे ही 
मन धरती पर 
किरचें भी 
चुभ जाती हैं ।

जिनपर अटूट विश्वास होता है शिकायतें भी उनसे ही की जाती है।  परिस्थितियों से अवश आकुल हृदय की मार्मिक अभिव्यक्ति जो मन बींध रही।
हे महादेव!तुम पी क्यों नहीं जाते पीड़ा
गरल की भाँति
जलती हुई अग्नि पर मँडरा रही बेचैन हूँ
 शलभ की भाँति


दावानल-सी  धधक रही,
विचलित उर में वेदना!
निर्बाध हो कर रही भीतर
खण्डित धीरज और चेतना!
सर्वज्ञ हो कर  अनभिज्ञ   रहे,
मेरे भीतर के हाहाकार से तुम!

आशा के लिए जूझते समय
समय को कोसने की जगह
करना होगा पलों से संवाद 
कदाचित्...
आशाओं की खुशबू जीवन की ओर खींचती है
परे धकेल निराशाओं को विश्वास से बाहों में भींचती हैं

चाह में तारों को छूने की,जले हर बार हाथ
जिद अभी भी, एक तारा तोड़ना है फिर !!!

चाँद - तारों का तो नाता, रात से हरदम रहा
रात का ख्वाबों से रिश्ता जोड़ना है फिर !!!

और चलते-चलते
अंधपरंपराओं,समाजिक विद्रुपताओं,
मानसिकता क्षुद्रताओं को चुनौती देना आसान नहीं।
सामाजिक मान्यताओं को तर्क के आधार पर तोलते,आडम्बरों कृत्रिमताओं और ढ़ोग की.परतों.को खोलने का प्रयास करते
एक ऐसे ही लेखक की सार्थक संदेशयुक्त कहानी।
समाज का कोई भी वर्ग हो दूसरे की परिस्थितियों को.समझे बिना अपनी बेबाक राय बनाने वाले लोगों की 
 मानसिकता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है

मौका मिला नहीं कि अपने घर के गोतिया-नाता से लेकर मोहल्ले भर की कुंडली खँगालने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इनके अलावा देश-विदेश के गुण-दोष, राजनीति के दाँव-पेच, देश की सीमा-सुरक्षा में कमी वग़ैरह कई मुद्दों पर अपना दिमाग और अपनी जुबान बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ा ही देते हैं। 

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आज के लिए बस इतना ही
कल का अति विशेष अंक लेकर आ रही हैं
प्रिय विभा दी


गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

3314...उड़ जा पंछी उस देश, जहां न राग न द्वेष...

शीर्षक पंक्ति:आदरणीय अशर्फी लाल मिश्र जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के साथ हाज़िर हूँ।

आज की पसंदीदा रचनाएँ हैं-

अध्यात्म पर दोहे

उड़ जा  पंछी  उस देश, जहां राग द्वेष।

जँह पर कोई नहि भेदऐसा   है  वह   देश।।1।।

आदत ...

हर बार

नई सी नज़र आती हो

पर सुनो ...

तुम मत डालना ये आदत

सूख जाएं कहीं कुछ पल

सूख जाएं

ताकि

समझ सकें

सूखी देह से

बूंद का निर्मल नेह

और

चातक की बिसराई जा रही

प्रेम कथा।

वसंत-बहार

कोई कह दो वसंत से जाकर,

अभी उसको यहांँ से जाना।

कुछ दिन और धरा पर ठहरे,

अभी ढूंढे ना कोई ठिकाना।

प्रिय वसंत से भौरे-तितलियां,

रुक जाने को करते मनुहार देखो।

छायी चारों दिशा में निखार देखो।

 दिल्ली दूर है

बातें मुलाकातें होती रहीं और सुना है की बड़ी लड़की की जन्मपत्री भी मिल गई. ये अंदाजा यूँ लगाया क्यूंकि नरूला जी को गोयल सा का फोन आया था की दिल्ली तभी जाने दूंगा जब बिटिया की शादी संपन्न हो जाएगी! नरूला जी ठंडी साँस भर कर बोले- बेटा नरूला दिल्ली अभी दूर है!

*****

आज बस यहीं तक 

फिर मिलेंगे आगामी गुरुवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव  


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