शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल
अभिवादन करती हूँ।
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उजड़ी आबादी
बारूद,बम,टैंकरों, हेलीकॉप्टरों की
गगन भेदी गड़गड़ाहटों वाले
वीडियो,रक्तरंजित देह,बौखलायी
बेबस भीड़,रोते-बिलखते बच्चे
किसी चित्रपट की रोमांचक
तस्वीरें नहीं
महज एक अशांति का
समाचार नहीं
तानाशाह की निरंकुशता,
विनाश के समक्ष दर्शक बने
बाहुबलियों की नपुंसकता,
यह विश्व के
नन्हे से हिस्से में उठती
चूल्हे की चिंगारी नही
आधिपत्य स्थापित
करने की ज़िद में
धरती की कोख को
बारूद से भरकर
पीढ़ियों को बंजर करने की
विस्फोटक भूमिका है।
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आदमी,आदमी में फर्क होता है।
आदमी, आदमी में तर्क होता है।
आदमी जब आदमी को नहीं समझे
आदमी, आदमियत के लिए नर्क होता है।
मन को झकझोरने वाली,अनेक प्रश्नों को
उघारती, निःशब्द करती अभिव्यक्ति जिसकी
धार ज़ेहन पर निशान छोड़ रही।
आदमी होने के लिए
पूछो, चिल्ला कर पूछो !
उन सबसे पूछो
क्यों तुमको ढाँचे में ढाल
उनके पैमाने से तुम्हें
आदमी बनाया गया है?
आदमी, एक ऐसा आदमी !
जो देख नहीं सकता !
जो बोल नहीं सकता !
जो सुन नहीं सकता !
अपनी ही नग्नता को
अपने सामने भी
खोल नहीं सकता !
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मन दर्पण को दे पत्थर की भेंट,
तुम खुश हो तो अच्छा है।
मुस्कानों का करके गर आखेट,
तुम खुश हो तो अच्छा है।
मन की पीड़ा जब भारी हो जाती है तो
भावनाओं का ज्वार तटबंध तोड़कर
बहने लगता है,कुछ पहचाने अनकहे अहसासों
को अभिव्यक्त करती हृदयस्पर्शी सृजन।
खुशियों की चाहत में
कितने दर्पण टूटे
सोचों के ,
अनचाहे ही
मन धरती पर
किरचें भी
चुभ जाती हैं ।
जिनपर अटूट विश्वास होता है शिकायतें भी उनसे ही की जाती है। परिस्थितियों से अवश आकुल हृदय की मार्मिक अभिव्यक्ति जो मन बींध रही।
हे महादेव!तुम पी क्यों नहीं जाते पीड़ा
गरल की भाँति
जलती हुई अग्नि पर मँडरा रही बेचैन हूँ
शलभ की भाँति
दावानल-सी धधक रही,
विचलित उर में वेदना!
निर्बाध हो कर रही भीतर
खण्डित धीरज और चेतना!
सर्वज्ञ हो कर अनभिज्ञ रहे,
मेरे भीतर के हाहाकार से तुम!
आशा के लिए जूझते समय
समय को कोसने की जगह
करना होगा पलों से संवाद
कदाचित्...
आशाओं की खुशबू जीवन की ओर खींचती है
परे धकेल निराशाओं को विश्वास से बाहों में भींचती हैं
चाह में तारों को छूने की,जले हर बार हाथ
जिद अभी भी, एक तारा तोड़ना है फिर !!!
चाँद - तारों का तो नाता, रात से हरदम रहा
रात का ख्वाबों से रिश्ता जोड़ना है फिर !!!
और चलते-चलते
अंधपरंपराओं,समाजिक विद्रुपताओं,
मानसिकता क्षुद्रताओं को चुनौती देना आसान नहीं।
सामाजिक मान्यताओं को तर्क के आधार पर तोलते,आडम्बरों कृत्रिमताओं और ढ़ोग की.परतों.को खोलने का प्रयास करते
एक ऐसे ही लेखक की सार्थक संदेशयुक्त कहानी।
समाज का कोई भी वर्ग हो दूसरे की परिस्थितियों को.समझे बिना अपनी बेबाक राय बनाने वाले लोगों की
मानसिकता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है
मौका मिला नहीं कि अपने घर के गोतिया-नाता से लेकर मोहल्ले भर की कुंडली खँगालने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इनके अलावा देश-विदेश के गुण-दोष, राजनीति के दाँव-पेच, देश की सीमा-सुरक्षा में कमी वग़ैरह कई मुद्दों पर अपना दिमाग और अपनी जुबान बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ा ही देते हैं।
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आज के लिए बस इतना ही
कल का अति विशेष अंक लेकर आ रही हैं
प्रिय विभा दी
एक भूल की न मिली क्षमा,
जवाब देंहटाएंकर-कर हारी हरेक जतन!
कैसे इस ग्लानि से उबरूं ?
सुंदर अंक..
आभार..
सादर..
जी ! नमन संग आभार आपका .. मेरी बतकही को अपने मंच की आज की अपनी प्रस्तुति में स्थान देकर कई लोगों तक पहुँचाने के लिए ..
जवाब देंहटाएंहर बार की तरह आज भी अतुलनीय भूमिका के साथ विश्वस्तरीय वर्तमान चिन्ताजनक हालात को चोट करती आपकी मार्मिक पंक्तियाँ बरबस उदास और उचाट मनोभाव से भरने के लिए पर्याप्त है .. शायद ...
"आधिपत्य स्थापित
करने की ज़िद में
धरती की कोख को
बारूद से भरकर
पीढ़ियों को बंजर करने की
विस्फोटक भूमिका है।"
हर रचनाओं के पूर्व भी उन्हीं रचनाओं की नायाब पंक्तियों गूँथी आपकी भूमिका सह टिप्पणियाँ भी नायाब होती हैं। शायद मेरी बतकही की उपस्थिति के कारण ही सही, 😊😊 पर .. आपकी यह प्रस्तुति मुझे अपने 'फेसबुक' पर साझा करने के लिए बाध्य करती लग रही है .. बस यूँ ही ...
बढ़िया संकलन
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंविविध रचनाओं से परिपूर्ण उत्कृष्ट अंक ।बहुत शुभकामनाएं श्वेता जी ।
जवाब देंहटाएंवैचारिक दावानल-सी प्रस्तुति अत्यंत प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी है। मन की पीड़ा जनित प्रश्नों का समाधान ढूँढ़ती हुई। हार्दिक आभार इस सशक्त प्रस्तुति के लिए।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संकलन। गहन चिंतन को बाध्य करनेवाली, मन को झकझोरनेवाली रचनाओं के नाम रहा यह अंक।
जवाब देंहटाएंभूमिका में युद्ध से होने वाले भीषण नुकसान को परिलक्षित करते हुए युद्ध जनित सैनिकों और उनके परिवारों पर होने वाले असर को दर्शाया है । साथ ही कुछ रचनाएँ सोचने पर मजबूर कर रही हैं । आदमी अपनी आदमियत भूल चुका है ।तो कहीं लोग अपनी मानसिकता ही ऐसी बनाये रखते हैं कि उनको किसी की कोई मजबूरी समझ नहीं आती ,ज़ीरो बटा सन्नाटा कुछ ऐसा ही कहने का प्रयास कर रहा है ।
जवाब देंहटाएंरेणु और मीना जी की रचनाएं भावपूर्ण हैं ।
बेहतरीन प्रस्तुति ।।
हार्दिक आभार और प्रणाम प्रिय दीदी 🙏🙏
हटाएंसुधि पाठकों के लिए युद्घ पर एक नायाब गीत प्रियांशु गजेंद्र द्वारा। विशेष आग्रह जरूरसुनें🙏🙏
जवाब देंहटाएंशरशैय्या पर लगे पूंछने भीष्म पितामह
कहो युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ कैसा लगता है।
कहो युधिष्ठिर।
पतझर सा सूना सूना लगता है उपवन,
या फिर गीत सुनाती हैं अलमस्त हवाएं,
छमछम नूपुर बजते रहते राजभवन में
या फिर करती हैं विलाप व्याकुल विधवाएं।
कहो युधिष्ठिर कौरव कुल के लाल रक्त से,
धुला हुआ यह राजवस्त्र कैसा लगता है?
कहो युधिष्ठिर।
https://youtu.be/byrjyBPZBqo
प्रिय श्वेता, युद्व की मर्मान्तक खबरों को सौंपता सनसनी का भूखे मीडिया में युद्व की विभीषिका के बीच खबरों में रोते-बिलखते लोगों भयावह चीखें मन को दहला रही। कितनी बप्रियड़ी विडम्बना है वही लोग युद्ध का शिकार होते हैं जिनका सत्ता से कोई सरोकार नहीं होता। बहुत मार्मिक भूमिका के साथ आज की प्रस्तुति में सम्मिलित सभी रचनाएँ सार्थक और चिन्तनपरक हैं। सभी रचनाकारों को नमन और शुभकामनाएं। तुम्हें मेरी शुभकामनाए। सभी से आग्रह है कि तुम्हारी रचना युद्ध ज़रूर पढ़ें जिसका लिंक है -
जवाब देंहटाएंhttps://swetamannkepaankhi.blogspot.com/2022/02/blog-post_24.html