शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल
अभिवादन करती हूँ।
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क्या बसंत क्या मधुमास
मौन स्फुरण,शून्य आभास,
प्रेम प्रतीक्षारत,खत्म हो
संवेदनाओं का अज्ञातवास।
मेरी समझ के अनुसार हिंदू,मुस्लिम, सिक्ख,ईसाई या अन्य कोई भी मत या विचार है जिन्हें दैनिक में अपनी सोच और व्यवहार के एक सीमित मापदंड स्थापित करने के लिए आत्मसात किया जाता हैं इन्हें संप्रदाय कहा जाता है किंतु ये संप्रदाय किसी भी तरह से धर्म की परिभाषा नहीं।
प्रत्येक इंसान का धर्म अपने कर्म से कर्तव्य, सदाचरण,अहिंसा
मानवता,दया,क्षमा सत्य, न्याय को
धारण करना है न कि अपने संप्रदायों की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए मानवीय गुणों को बिसरा देना।
धर्म का नाम और कुछ नहीं आज के समय का
सबसे ज़हरीला हथियार बन गया है शायद
पर कौन किसे समझाए कि
लोगों को लड़वाते हैं कुछ,
कैसे जाल बिछाते हैं कुछ।
ज्यादातर तो आग लगाते,
लेकिन आग बुझाते हैं कुछ।
कैसे हिट हो राजनीति जब,
कोई मुद्दा गरम नहीं।
बन्दो,यह तो धरम नहीं !
मोह-माया जग मृगतृष्णा
तनधारी जीव,राधाकृष्णा
प्रीत देह का टूटा जाल
चंचरीक मन कौंधी कटारी
लहकी लहरी
ललित लिप्सा-सी,
मन भरमन
भरमाया है।
लाल चमकता
गुदड़ी अंदर,
ऊपर से
भ्रम छाया है।
अगली रचना की लेखिका के शब्दों में आत्मानुसंधान
यक्ष प्रश्नों का काल्पनिक अथवा वास्तविक उत्तर एक-दूसरे से पाना चाहते हैं। उन उत्तरों में हम अन्य के अपेक्षा स्वयं को ही अधिक खोजते हैं। इस तरह की खोज हमें आत्म अन्वेषण से आत्म संतुष्टि तक ले जाती है। इसलिए यथोचित उत्तर चाहता हुआ हमारा मन भी कहीं भीतर गहरे में जाकर अपनी पड़ताल करने लगता है कि वह अपने इस होने से संतुष्ट/प्रसन्न है अथवा नहीं।
ये आत्मोपस्थिति तो उसकी आत्मोत्सृष्टि के समानांतर है
अमृता तन्मय वो अस्तित्व है जो सन्दर्भ को सत्य से जोड़ती है
अमृता तन्मय वो चेतना है जो हर काल को झझकोरती है
अमृता तन्मय वो सौन्दर्य है जो शिवत्व की ओर मोड़ती है
अमृता तन्मय सृष्टि की अनहद ओंकार है
कुछ स्मृतियाँ यथावत जीवंत रहती मानस पटल पर,इसलिए नहीं समय रूका हुआ है बल्कि इसलिए कि समय को रोके रखा गया है स्मृतियों ने उस फाल्गुन में
और आती होगी वही आज़ान
मस्जिद के उन्नत शिखर से
वहीं गूंजता होगा उस मंदिर से
मृदु घंटियों का आवाह्न
इन सबके बीच लेती होगी
व्यस्त ज़िंदगी अंगड़ाई
कभी कभी मिलती नहीं खोये समय की बहुमल्य घड़ी
लेखनी कोशिश करती रहती है जोड़ पाये
लेखनी की नींद गहरी
आज थककर सो रही।
गीत आहत से पड़े सब
प्रीत सपने बो रही।
भाव ने क्रंदन मचाया
खिन्न कविता रो पड़ी।
शब्द के जाले...
और चलते-चलते
कितने अजीब है न हम अपने लिए प्रेम को संसार में सबसे बेशकीमती उपहार मानते हैं और वही प्रेम जब दूसरे करे तो हमारा दृष्टिकोण कितना संकीर्ण हो जाता है
पढ़िए प्रेम के प्रति दोहरी मानसिकता का वैचारिकी विश्लेषण
प्रेम के रिश्ते को प्रायः सामाजिक मर्यादा की कसौटी पर कसा जाता है। दबाव यह रहता है कि पहले रिश्ते का अनुमोदन लिया जाए, उसके बाद ही प्रेम की अनुमति होगी! यह क्यों नहीं मान लिया जाता कि प्रेम यदि कोई पौधा है तो वह स्वच्छंद आकाश के नीचे ही फलता-फूलता है। दो प्रेमी यदि परस्पर सुख से रह रहे हैं तो इसमें सामाजिक सद्भाव बढ़ेगा ही, मर्यादाएं कैसे टूटेंगी?
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आज के लिए.बस इतना ही
कल का अति विशेष अंक लेकर आ रही हैं
प्रिय विभा दी।
धरम कहे ईमान न खोना।
जवाब देंहटाएंबंद करो तुम रोना-धोना।
जीवन है यह चार दिनों का,
क्यों फिर नफरत को ही बोना।
धर्म कहे तू शील न खोना,
यह तो तेरा हरम नहीं ।
बन्दो,यह तो धरम नहीं !
बेहतरीन अंक..
बहुत सुंदर लिंक्स संयोजन, स्वेता दी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संकलन। मेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार श्वेता जी।
जवाब देंहटाएंआज की प्रस्तुति में भूमिका के साथ ही धर्म और संप्रदाय के अंतर को स्पष्ट किया है ।।आज धर्म के नाम पर जो जहर फैलाया जा रहा उसकी ओर अक्सर समभाव रखने वाले लोग ध्यान आकर्षित करते रहते हैं और बताते रहते हैं कि ये तो धर्म नहीं है , लेकिन सुनता ही कौन है ? .
जवाब देंहटाएंकितना ही उपदेश दे लो कि राम नाम ही सत्य है ,जो एक बार राम में लीन हो गया तो सारे भ्रम दूर हो जाएंगे लेकिन सब भौतिक सुख सुविधा को ही पाने के भ्रम में जीते रहते हैं ।
राम मय होने के लिए पहले स्वयं को स्वयं से मिलना पड़ता है , ये आसान तो नहीं लेकिन नामुमकिन भी नहीं ,एक बार खुद से ही यक्षप्रश्न कर देखें क्या उत्तर मिलता है ।
खैर कहीं ज़िन्दगी में फाल्गुन के रंग बिखरे हैं तो कहीं भावों की कड़ी बिखर रही , और कभी लगता है कि ज़िन्दगी विरोधाभास को झेलने का नाम ही है । इस विरोधाभास को झेलते हुए प्रेम का सप्ताह बीतने को है । लेकिन धार्मिक उन्माद ज्यों का त्यों बना हुआ है ।
वक़्त के साथ हम भी देख रहे हैं कि क्या क्या हो रहा है ।।
सारे लिंक्स पढ़ने में आनंद आया । शुक्रिया ।
भारतीय परंपरा में धर्म की अवधारणा अंग्रेज़ी के रिलिजन से बिलकुल पृथक है। हमारे यहाँ धर्म का अभिप्राय अधिभौतिक और अधिदैविक सोपानों को पार कर आध्यात्मिक तत्व में समाहित हो जाना है। ये सारे सांप्रदायिक उन्माद राजनीति के रंगमंच से लेकर टेलीविजन के चित्रपट तक ही सीमित है। आम जीवन से इनका कोई मतलब नहीं। गंगा और यमुना अपने उसी लय में आज भी बह रही हैं। रंगमंच पर मसखरे अपने अभिनय में लगे हैं और रसिक दर्शक उसके रसास्वादन में। बाक़ी दाल रोटी की जुगाड़ में जुटी जनता को फ़ुर्सत कहाँ कि वह वह इस रंगमंचीय धर्म का मर्म समझने में अपना वक़्त जाया करे।
जवाब देंहटाएंइस सुंदर संकलन के लिए श्वेता जी को बधाई!!!
अंतरतम तक झझकोरती हुई प्रस्तुति। हार्दिक आभार एवं शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही दमदार ज्ञान ही ज्ञान मिला है
जवाब देंहटाएंThanks
Study Root !
बहुत ही अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
Ayur Mart !