निवेदन।


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गुरुवार, 30 नवंबर 2023

3960...तुम शहरी, महानगर जैसे हो हम ही हैं छोटी तहसील से...

शीर्षक पंक्ति:आदरणीया डॉ.(सुश्री) शरद सिंह जी। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक्स साथ हाज़िर हूँ।

आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

भूलभुलैया

दो कदम भी ना बढे मेरे मैं जहां थी वहीं रही

जहां से अन्दर प्रवेश किया था वहीं  खुद को खडा पाया

कुछ समय  बाद अपने को वहीं पाया आगे कोई राह ना मिली

जितना आगे बढ़ती वहां का  मार्ग बंद हो जाता   |

पथ दिखाता चाँद नभ में

कभी सूखा मरुथलों-सा

ज्यों शब्द भी गुम हो गये,

हाथ में अपने कहाँ कुछ

थाम ली  जब डोर  उसने!

दो हज़ार का नोट....

सोचा ये लापरवाही हमसे हो गई कैसे,

पता नहीं पत्नी दबाकर बैठी होगी कितने ऐसे।

आखिर पे टी एम के ज़माने में

कैश कौन हैंडल करता है।

शायरी | तुम शहरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

तुम शहरी, महानगर जैसे हो

हम ही  हैं  छोटी तहसील से।

चार कविताएं (अनूप सेठी)

कोई छोटी उम्र में

कोई भरपूर जी करके

कोई बीमारी में कोई लाचारी में कोई चलते चलते ही चलता बना

हे कोमल करूणाकर स्वामी

अपूर्ण लालसा कसक मिटाना

अधीर कुटीर सुखद कर देना

हास्य विकल मुख पर सजाना

आनंद अति अवलंबन देना.

*****

फिर मिलेंगे।

रवीन्द्र सिंह यादव 


बुधवार, 29 नवंबर 2023

3959..फितरतें कैसी-कैसी...


"उषा का उजला अँधेरा

तारकों का रूप लेकर

दूध की हर बूँद पर

कुर्बान था, तारुण्य देकर !

दूर पर ठहरे बिना वह

विन्ध्य झरना झर रहा था,

मथनियों के बिन्दु-शिशु-मुख

बोल अपने भर रहा था !"

 माखनलाल चतुर्वेदी

सुहानी भोर की चंद पंक्तियों संग प्रस्तुति क्रम को आगे बढ़ाते हुए,✍️

इज़हारे ख़्याल 

सब ख़ता इसमें आदमी की है,

साँस उखड़ी जो ये नदी की है।

वो जो सच की दुहाई देता था,

झूठ की उसने पैरवी की है।

धूप का क्यों न ख़ैर मक़्दम हो..

❄️

पूर्व-स्मृतियाँ 

 उन दिनों प्रेम को केवल

 कैवल्य की पुकार सुनाई देती थी 

परंतु उसके पास

एकनिष्ठता के परकोटे में अकेलापन..

❄️

साथ साथ

अलसाई सुबह की अंगड़ाई लेती चुस्की l

नचा रही मन पानी दर्पण अंतराल साथ l

भींगी ओस नमी ख्यालों की ताबीर खास l

मूंद रही नयनों को जगा रही फूलों साथ ll

❄️

26 /11 की स्मृति में

26 नवम्बर मेरे लिये विशेष है . आज ही मेरे बड़े पुत्र प्रशान्त का जन्म हुआ . लेकिन आज का दिन मेरे साथ पूरे देश के लिये भी विशेष है..

❄️

फितरतें कैसी-कैसी


पढाई के उन कातिल दिनो में जब एग्ज़ाम से पहले खाना खाने में भी लगता कि टाइम वेस्ट हो रहा है मेरा दिमाग कुछ ज्यादा जाग्रत हो उठता और क्रिएटिविटी..

।। इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'✍️


मंगलवार, 28 नवंबर 2023

3958...किताब के पन्नों के भीतर...

 मंगलवारीय अंक में आप

सभी का स्नेहिल अभिवादन।
---------
समय निरंतर बदलता है और उसके साथ जीवन और परिवेश भी। कुछ दशकों पहले राजनीति को सामान्य जीवन से इतर संस्था माना जाता था परन्तु आज जीवन के हर पहलू में राजनीति का आवश्यक हस्तक्षेप है। ऐसा नहीं है कि पहले हस्तक्षेप नहीं था, परन्तु उसका स्वरूप स्पष्ट नहीं था बल्कि एक तरीके से वह अंधकार में था। राजनीति अपनी जगह थी, जीवन अपनी जगह था। जैसे पहले आम नागरिक को यह लगता था कि बैंक ही ऋण देता है और बैंक ही वसूली, कुर्की आदि करता है, परन्तु वर्तमान में बच्चा-बच्चा यह जानने लगा है कि सरकार की नीतियों के तहत बैंक कर्ज देता है जो पिछले चुनाव में घोषणा की गयी थी और उसी पार्टी की सरकार बनेगी तो वह माफ भी हो जायेगा… आदि। 
आज विचित्र दौर है। सरकारें शब्द तक को प्रभावित करती हैं। आज विचार राजनीति के बंधक हैं, 
आज राजनीति हम पर इतनी हावी है कि व्यक्ति अपनी पार्टी की पसंद के विचार को प्रबलता देने के लिए हत्या जैसे जघन्य अपराध को सही ठहराता है। जीवन-यापन को प्रभावित करने
 वाली महंगाई जैसी बला को भी लोग सही ठहरा सकते हैं, वहीं जनसरोकार के मुद्दों को लोग गलत ठहरा सकते हैं। आखिर जो चीज़ गलत ही है वह सही कैसे हो सकती है? 
हमारा साहित्य क्या कुछ लिख रहा है, कितने ईमानदारी से लिख रहा है, यह समझना और जानना जरूरी है। हालांकि साहित्य तो विचारधाराओं की गोलबंदी में पहले से ही बेचैन रहा है। आज समाज और जीवन- राजनीतिक खेमों में गोलबंद हो गया है। क्या ऐसे समय में हमारा साहित्य समाज राजनीति के आगे मशाल लेकर चल रहा है… या उसके तमस की खोह में रास्ता भटक गया है?
आम आदमी आपसी माथा-फुटव्वल में व्यस्त है राजनीतिक प्रतिनिधि अपना मतलब साधकर मस्त हैं और क़लमधारी 
बौखलाए, कन्फ्यूजियाये हुए अस्त-व्यस्त हैं।
-----
आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-



देख मत लेना भरी आँखों से तुम आकाश को,
वर्ना ये बादल लगा देते हैं बूँदों की झड़ी.

रश है कितना मैंने बोला देख लेंगे बाद में,
पर वो पहले दिन के, पहले शो पे है, अब तक अड़ी.



भग्नावशेषों और चट्टानों 

की देह पर अक्सर 

उगा दीखता है प्रेम

सोचती हूँ…,

अमरता की चाह में

 अपने ही हाथों प्रेम को

लहूलुहान..,

 कर देता है आदमी


किताब के पन्नों के भीतर
अबकी
बारिश की जगह बादल आए
और
आ गई अंजाने ही आंधी।
बच्चे ने नाव
सहेजकर रख दी



लिपटी धरा सफेद केसरिया 
फूलों की चादर से
बिखरे हैं धरा पर ज्यों 
अश्रु  तुम्हारे प्यार  के
पलता आंसुओ में प्रेम तेरा
बहते रहे रात भर.जो
--


सर्दियों में जब अरु में भारी बर्फबारी होती है, तो स्कीइंग और हेली स्कीइंग का अभ्यास किया जाता है। हमने काफ़ी समय वहाँ घूमते हुए और प्रकृति के नज़ारों को निहारते, फ़ोटोग्राफ़ी करते हुए बिताया।कुछ  व्यापारी यहाँ भी अपने समान बीच रहे थे।घोड़े और खच्चर वाले भी दूरस्थ बर्फ से ढके स्थानों तक ले जाने का आग्रह कर रहे थे, किंतु हमने अपने पैरों पर भरोसा करना ही बेहतर समझा। एक घंटा वहाँ बिताकर हम बेताब वैली के लिए निकल पड़े।  

---
आज के लिए इतना ही
फिर मिलते है 
अगले अंक में।

सोमवार, 27 नवंबर 2023

3957 ..आज कार्तिक पूर्णिमा है श्री गुरुनानक देव जी की जयन्ती है

 सादर अभिवादन

आज कार्तिक पूर्णिमा है
श्री गुरुनानक देव जी की जयन्ती है
आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं


एक स्मितहास्य ...
लक्ष्मन रेखा नाम का एक गमला अचानक स्टेज से नीचे टपक कर फूट गया!स्त्री की मर्यादा नाम की हेलोजन लाईट भक्क से फ्यूज़ हो गयी !थोड़ी देर बाद एक एम्बुलेंस तेज़ी से सड़कों पर भागती जा रही थी!जिसमे दो स्ट्रेचर थे !एक स्ट्रेचर पर भारतीय संस्कृति कोमा में पड़ी थी ...शायद उसे अटैक पड़ गया था!दूसरे स्ट्रेचर पर पुरुषवाद घायल अवस्था में पड़ा था ...उसे किसी ने सर पर गहरी चोट मारी थी!आसमान में अचानक एक तेज़ आवाज़ गूंजी ....भारत की सारी स्त्रियाँ एक साथ ठहाका मार कर हंस पड़ी थीं !....

अब रचनाए पढ़िए..



छोड़ गया राधा को कान्हा,
सबने लांछन मुझपर डाला।
प्रेम का पाठ पढ़ाने हेतु,
विरह की मैंने पी ली हाला।।
दूर कदम मैं जितना तुझसे,
पाँव में पड़ते उतने छाले।
विरह की वेदना कैसी होती,
क्या समझेंगें दुनियावाले।
पाने को सब प्रेम कहे पर,
राधाकृष्ण तो है अर्पण।
सबने खोजा तन के बाहर ,  
देख न पाया अंतर्मन।




मैं भी पतिव्रता स्त्री हूँ। ऐसा कैसे हो सकता है? आप मेरी ओर तो देखो।" "अपनी पत्नी की बात सुनकर उसने जैसे ही नज़र उठाकर अपनी पत्नी की ओर देखा वैसे ही उसकी आँखों की रोशनी चली गई। और वह गाय के श्रापवश पत्नी को देख ही नहीं  सका। उस व्यक्ति की पत्नी पतिव्रता थी। इसी कारण उसकी मृत्यु नहीं हुयी। यह देखकर पत्नी अपने पति को साथ लेकर राजा जनक के दरबार में गई। 
वहाँ जाकर उसने पूरी घटना बताई।




हम अपनी टेबिल पर बैठकर लाइब्रेरी से लाई किताबें पलटने लगे, लेकिन दिमाग में अम्मा की कही बातें धमाचौकड़ी मचा रही थीं। उन दिनों में जोरशोर से हमारे ब्याहने को लड़के ढूँढे जा रहे थे। सब खिसका कर पैड और पैन उठा लिखने बैठ गए…कहानी बह निकली-





समय मुफ्त में मिलता है, परंतु यह अनमोल है। आप इसे अपना नहीं सकते, लेकिन आप इसका उपयोग कर सकते हैं। आप इसे रख नहीं सकते, पर आप इसे खर्च कर सकते हैं। एक बार आपने इसे खो दिया, तो वापस कभी इसे पा नहीं पाएंगे - हार्वे मैके
वह व्यक्ति जो अपनी ज़िन्दगी का एक घण्टा भी व्यर्थ करने की हिम्मत रखता है, उसने अभी तक ज़िन्दगी की कीमत नहीं समझी - चार्ल्स डार्विन





नया घर कहता है,
‘सोचो मत,आ जाओ’,
मैं तुम्हें रहने का सुख दूँगा,
यादों का क्या है,
मैं भी दूँगा बहुत सारी।




महत्वपूर्ण बीज मंत्र
मूल बीज मंत्र "ओम" है। यह वह मंत्र है, जिससे अन्य सभी मंत्रों का जन्म हुआ है। प्रत्येक बीज मंत्र से एक विशिष्ट देवी-देवता जुड़े हुए हैं। बीज मंत्र के प्रकार हैं- योग बीज मंत्र, तेजो बीज मंत्र, शांति बीज मंत्र और रक्षा बीज मंत्र।




आज बस
कल  कल मिलेगी सखी 
सादर

रविवार, 26 नवंबर 2023

3956 एक आधुनिक शोधग्रंथ ...

 सादर अभिवादन

भविष्य का शोधग्रंथ इसी पन्ने में है
शोध करिए मिल जाएगा

अब रचनाएं देखें....




चाँद को
बहुत देखा
भूख प्यास लिखना,
प्यास भरी
बस्ती में
गंगा सा दिखना,
धूप से
मुख़ातिब हों
तरु की छायायें.




तक़सीम का दायरा था हद ए नज़र के पार,
बिखरना लिखा था तक़दीर में हर एक बार,

कुछ भी न रहा नज़दीक इक सांस के सिवा,
चिराग़ बुझ चले हैं न रहा किसी का इंतज़ार,




सुख की चाह की ख़ातिर
दुख देता है औरों को
पर बोता है बीज दुख के
ख़ुद के लिए
शिशु के रुदन के प्रति भी
नहीं पिघलता जो दिल
घिरा नहीं क्या घोर तमस से
आत्मा का स्पर्श हुए बिना
सत्य दिखाई नहीं देता


सवैया में एक ही गण की कई आवृत्ति रहती है तथा अंत में कुछ वर्ण या अन्य गुच्छक रहता है। सात की संख्या के लिए 'ड' वर्ण तथा आठ की संख्या के लिए 'ठ' वर्ण प्रयुक्त होता है जिसका परिचय संकेतक के पाठ में कराया गया था। ये वर्ण अ, आ, की मात्रा के साथ प्रयुक्त होते हैं। सवैयों की छंदाएँ ण व स्वरूप संकेतक के बिना ही दी जा रही हैं। अब यह रचनाकार पर निर्भर है कि वह विशुद्ध वर्णिक स्वरूप में रचना कर रहा है या मान्य मात्रा पतन के आधार पर।




रेशमा .. एक किन्नर .. सात किन्नरों की टोली की 'हेड' होते हुए भी पूरे मुहल्ले के लोगों से सम्मान पाती है। उसे सम्मान मिले भी भला क्यों नहीं ? .. वह है ही ऐसे स्वभाव और सोच की .. यूँ तो प्रायः कोई बुज़ुर्गवार ही अपनी टोली की 'हेड' होती है। परन्तु रेशमा के साथ ये बात लागू नहीं होती। वह तो अभी महज़ छ्ब्बीस वर्ष की ही है। पर अपनी क़ाबिलियत के दम पर अपनी मंजू माँ, जो इसके पहले इस टोली की 'हेड' थी और रेशमा की पालनहार थी ..
विशेषः-कहीं सुना था आदमी के रास्ते काटने के बारे में भी | 
तरक्की पसंद लोग बिल्ली की जगह आदमी का प्रयोग कर रहे होंगे वहां | 
सुन्दर |


आज बस
कल  फिर मिलेंगे
सादर

शनिवार, 25 नवंबर 2023

3955 ..चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की, तालाब ठाकुर का ...

 सादर अभिवादन

सदा दीदी काफी दिनों से नहीं दिख रही थी
कल उनसे मेल पर बात हुई
वे आज-कल रीवा में है, संभवतः एक-दो रोज में फेसबुक पर दिखाई देंगी, 
उनकी एक रचना मैं क्वांर के महीने में पांच लिंकों का आनंद पर लगाई थी 
और लिंक मेल कर दी थी... वो रचना यहां है..

अब रचनाएं देखें....




चलो न चलें
कहीं तो चलें

इधर नहीं तो
उधर ही चलें

नीचे नहीं तो
ऊपर ही चलें





हे माँ मैं हूँ भक्त तुम्हारी
मुझ पर तुम ये दया दिखा दो
रोज़ नए उलझन में पड़कर
मन उलझा रहता है
द्वार तुम्हारे आने को माँ
व्याकुल मन रहता है।




अलसाई सुबह की अंगड़ाई लेती चुस्की l
नचा रही मन पानी दर्पण अंतराल साथ ll

भींगी ओस नमी ख्यालों की ताबीर खास l
मूंद रही नयनों को जगा रही फूलों साथ ll




बोनसाई का सीधा सा अर्थ यदि हम समझें तो वह होता है बौना पौधा। यह प्रजातियां वर्तमान दौर में खासी पसंद की जा रही हैं, टैरेस गार्डनिंग के शौकीनों का बोनसाई को लेकर जो लगाव है वह एक अलग और गहरी अनुभूति ही है, हालांकि जो इसे सहेज रहे हैं, जिनके टैरेस पर बोनसाई मौजूद है वह यह बात भी स्वीकार करते हैं कि इसकी देखरेख आसान नहीं है लेकिन जिन्होंने इन्हें लगाया या इनके आसपास समय बिताया वह इनके बिना रह भी नहीं पाते हैं। यह भी कहा जाता है कि बोनसाई एक महंगा शौक है, आंगन की बागवानी भी आसान नहीं है लेकिन बावजूद इसके डिमांड बढ रही है, यह ऑनलाइन भी खूब खरीदे जा रहे हैं। बोनसाई पर बात करते हैं, कुछ समझते हैं उनके बारे में। छोटे कद के पौधों को चाहने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। यहां यह कहना बेहद आवश्यक है कि बागवानी चाहे सामान्य पौधों, फूलों के पौधों, सजावटी पौधों या फलीय पौधों से की जाए या फिर बोनसाई लगाए जाएं लेकिन सच मानिए कि यह आपको अनेक बार अवसाद से बाहर भी निकाल लाने का कार्य करती है। ऐसे उदाहरण आपको मिल जाएंगे।





चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का ।



आज बस
कल  फिर मिलेंगे
सादर

शुक्रवार, 24 नवंबर 2023

3954...."उज्यालू आलो अँधेरो भागलू"...

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
-------

सुबह का चलकर शाम में ढलना/जीवन का हर दिन जिस्म बदलना।

हसरतों की रेत पे दर्या उम्मीद की/ख़ुशी की चाह में मिराज़-सा छलना।

चुभते हो काँटें ही काँटे तो फिर भी/ज़ा
री है ग़ुल पे तितली का मचलना।

वक़्त के हाथों से ज़िंदगी फिसलती है/नामुमकिन इकपल भी उम्र का टलना।

अंधेरे नहीं होते हमसफ़र ज़िंदगी में/सफ़र के लिये तय सूरज का निकलना।

आइये अब आज की रचनाएँ पढ़ते है-



रिश्तों में जंजीर नहीं है
काँटा तो है पीर नहीं है
लहरें तोड़ किनारे बहतीं
हृदय नदी के धीर नहीं है
बिगड़ गईं तानें मौसम की  
कुपित बादलों का अनुराग .
 


ऐसी भी क्या आज 
जरूरत धूल उड़ाने की
फर्श पुराने को उखाड़कर 
नया लगाने की 
चिन्ता कुछ भी नहीं
पुराना कर्ज पटाने की 
लिया जहाँ से जो कुछ वह 
वापस लौटाने की 
वक्त हुआ सतनाम 
ओढ़नी 
आज ओढ़ने का !!


दोस्त भी कब छूट गए पता ही नहीं चला और अब ना जाने कौन सा युग शुरू हुआ जिसे समझना मेरे लिए तो बहुत मुश्किल हो रहा है।आज त्योहार सिर्फ सोशल मीडिया पर दिखावा भर बन कर रह गया है। सजना-संवरना सब कुछ हो रहा है है मगर, उत्साह- उमंग, श्रद्धा-भक्ति, प्यार और अपनापन ना जाने कहा खो गया। त्योहारों पर भी सिर्फ अपने परिवार के दो चार सदस्य वो भी त्योहारों से जुड़े रस्मों को बस दिखावे के तौर पर निभाकर गुम हो जाते हैं इस मोबाइल रूपी मृग मरीचिका में।



थोड़ा सा पागल हो जाना 
स्वीकार मुझे 
तुम बिन जीना कितना दुश्वार मुझे।।
 
बिना पैर के चलती हूं
बिना हंसी के हंसती हूं
तुम बिन कहां कोई व्यवहार मुझे ।।


इस दौरान सामुदायिक रूप से लोक वाद्य-यंत्रों .. ढोल-दमाऊँ की थाप पर पारम्परिक लोकनृत्य "चाँछड़ी और झुमेलों" के साथ-साथ गीत-संगीत और आमोद-प्रमोद का माहौल व्याप्त रहता है। इस अवसर पर प्रसिद्ध गढ़वाली लोकगीतों- "भैला ओ भैला, चल खेली औला, नाचा कूदा मारा फाल, फिर बौड़ी एगी बग्वाल" या "भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अँधेरो भगलू" आदि को गाए जाते हैं। इस अवसर पर कहीं-कहीं पर "गैड़" यानी रस्साकस्सी का भी खेल खेला जाता है।
-------

आज के लिए इतने ही
मिलते हैं अगले अंक में
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गुरुवार, 23 नवंबर 2023

3953...कांच के टुकड़ों पर नाचती है ज़िन्दगी लहूलुहान क़दमों से...

शीर्षक पंक्ति:आदरणीय शांतनु सान्याल जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक्स के साथ हाज़िर हूँ। 

  आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

नीति के दोहे मुक्तक

मित्रता होय सज्जन की, मनु  गन्ना  मुँह  आन।

तोड़     चबाओ   चूसिये, हर विधि मीठा जान।।

गीत गाओ



यही है मन में मुझे न भुलाना 

नहीं चाहती अपने

अधिकार को किसी से बांटना

 तुम मुझे न भूल जाना

वजूद है मेरा यही

 इस को किसी की नजर न लग जाए

मुझे याद करना मेरे मन में बसे रहना। 

जीने की चाह--


कांच के टुकड़ों पर नाचती

है ज़िन्दगी लहूलुहान क़दमों

से, फिर भी दिल की

झोली से शबनमी

राहत कम नहीं

होती,

जब बैरागीजी को थाने में कविता सुनानी पड़ी


मेरे कार्यकाल मे, मनासा में गुलाबसिंहजी थानेदार थे। उनका तबादला हो गया। थाने के पुलिस कर्मचारियों ने उनका विदाई समारोह आयोजित किया। चाय-पानी, स्वल्पाहार की व्यवस्था थी। मैं भी इस आयोजन में निमन्त्रित था। मैं पहुँचा। थोड़ी देर में बैरागीजी भी आ पहुँचे। वे भी वहाँ निमन्त्रित थे। आप विचार कीजिए, थानेदार के तबादले की पार्टी में चाय-पानी के अलावा और क्या हो सकता है? कविता कैसे हो सकती है? लेकिन गुलाबसिंहजी ने अचानक ही दादा बैरागीजी से कविता सुनाने की फरमाइश कर दी। लेकिन दादा ने इस फरमाईश को सहज भाव से पूरा कर दिया। उन्होंने क्षण भर भी नहीं सोचा कि मैं अखिल भारतीय स्तर का कवि हूँ। इन पुलिसवालों को कविता क्यों सुनाऊँ? उन्होंने बहुत सुन्दर कविता सुनाई। कविता की शुरुआती पंक्तियाँ मुझे अब भी याद हैं - ‘जब तक मेरे हाथों में है नीलकण्ठिनी लेखनी, दर्द तुम्हारा पीने से इनकार करूँ तो कहना।’

बाल्की की चुप पर चुप्पी क्यों रही

फिल्म की कहानी फिल्म रिव्यू करने वालों के बारे में है। कैसे किसी फिल्म को रिव्यू बनाते हैं, बिगाड़ते हैं। एक दृश्य में हीरो कहता है 'तुमने फिल्म को 1 स्टार दिया तो कोई बात नहीं लेकिन इसकी वजह तो ठीक बताती न कि यह फिल्म कहाँ की कॉपी है, उसकी असल कमजोरी क्या है। यही दिक्कत है, जानते नहीं हो तुम लोग और कुछ भी बोल देते हो, लिख देते हो...'कागज के फूल' गुरुदत्त, फिल्मों से प्यार, फिल्मों की समझ, नासमझ इन सबके बीच ट्यूलिप के फूल, चाँदनी रात, बरसात और रोमांस को गूँथते हुए एक सीरियल किलर ड्रामा को आर बाल्की बहुत अच्छे से लेकर आए हैं।*****फिर मिलेंगे। रवीन्द्र सिंह यादव 

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