शीर्षक पंक्ति:आदरणीया डॉ.(सुश्री) शरद सिंह जी।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक्स साथ हाज़िर हूँ।
आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
दो कदम भी ना बढे मेरे मैं जहां थी वहीं रही
जहां से अन्दर प्रवेश किया था वहीं खुद को खडा पाया
कुछ समय बाद अपने को वहीं पाया आगे
कोई राह ना मिली
जितना आगे बढ़ती वहां का मार्ग बंद हो जाता |
कभी सूखा मरुथलों-सा
ज्यों शब्द भी गुम हो गये,
हाथ में अपने कहाँ कुछ
थाम ली जब डोर उसने!
सोचा ये लापरवाही हमसे हो गई कैसे,
पता नहीं पत्नी दबाकर बैठी होगी कितने ऐसे।
आखिर पे टी एम के ज़माने में
कैश कौन हैंडल करता है।
शायरी | तुम शहरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
तुम शहरी, महानगर जैसे हो
हम ही हैं
छोटी तहसील से।
कोई बीमारी में कोई लाचारी में कोई
चलते चलते ही चलता बना
*****
फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
बेहतरीन अंक
जवाब देंहटाएंआभार..
सादर...
बेहतरीन प्रस्तुति दी
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अंक
जवाब देंहटाएंसुप्रभात ! एक से बढ़कर एकि रचनाओं के सूत्र देता सुंदर अंक, आभार !
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