शीर्षक पंक्ति: आदरणीया सुधा देवराणी जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक लेकर हाज़िर हूँ।
हम जितना
आधुनिक समाज कहलाने में
फ़ख्र करते हैं
उतना ही
अतीत को याद करते हुए
कहते हैं-
'आज का ज़माना बहुत बुरा है।'
ऐसा हमारे बुज़ुर्ग
सौ साल पहले कहते थे,
आज हम कहते हैं
और कल भावी पीढ़ी भी यही कहेगी।
सार बस इतना है
कि समय परिवर्तनशील है
किंतु हमारे ज़ेहन में बैठे स्थायी तत्त्व
समय की चुनौती से हार जाते हैं
और धारणा बनती है
कि ज़माना बहुत ख़राब हो गया है।
-रवीन्द्र
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आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-
सैकत भरे इस तीर का, उफान अब जाने को है।
बुढिया रही बरसात अब, फूले हैं काँस केश से
दादुर दुबक रहे कहीं, 'खंजन' भी अब आने को है।
बुद्धि और तर्क से रिक्त
समानता के अधिकारों से विरक्त
अंधविश्वास और अंधपरंपराओं के
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तटस्थ
पति और बच्चों में
एकाकार होकर
खुशियाँ मनाती हैं
मगर, इसी तंद्रा से उगते, काव्य अलौकिक शील मनन में
चरण संलयन पूरा होता, स्पंदन का संचार सृजन में।
है इसी भाव को रख देता, कवि, द्रवित रूप में स्याही सा
उच्छलित काव्य की सरिता में, बहता जाता है राही सा।।
माना कि तुम में और मुझ में
अब भी मीलों की दूरी है
पर रात की सुबह तो निश्चित है
हर दुःख का अंत जरूरी है
और चलते-चलते पढ़िए एक चुटीला व्यंग्य-
धर्मवीर भारती का उपन्यास – ‘गुनाहों का देवता’ एक फ़िल्म निर्देशक को बहुत पसंद आया था. फ़िल्म-निर्देशक महोदय धर्मवीर भारती के पास पहुँच गए. जब इस प्रसिद्द उपन्यास पर फ़िल्म बनाने की बात चली तो भारती जी फ़िल्म-निर्देशक से उनकी पहले निर्देशित की गयी फ़िल्मों के नाम पूछ डाले. इस सवाल के जवाब में जब आधा दर्जन घटिया फ़िल्मों के नाम सुनाए गए तो भारती जी ने अपने उपन्यास की हत्या करवाने से इनकार कर दिया. फ़िल्म-निर्देशक ने धर्मवीर भारती को टाटा करते हुए जम्पिंग जैक जीतेंद्र और राजश्री को ले कर ‘गुनाहों का देवता’ टाइटल से ही एक निहायत घटिया फ़िल्म बनाई और हमारे जैसे धर्मवीर भारती के हजारों-लाखों प्रशंसकों के पैसों और वक़्त को बर्बाद करवाया.