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सोमवार, 6 सितंबर 2021

3143 ....... धरा पर धारा डोल रही है .....

 नमस्कार ....... कल हर जगह शिक्षक दिवस का बोलबाला रहा .......   बहुत सी रचनाएँ इससे सम्बंधित पढने  में आयीं .....यूँ तो शिक्षक वही जो कुछ भी सिखाये ... केवल किताबी ज्ञान देने वाला ही शिक्षक नहीं होता ..... वैसे एक  प्रश्न  मन में आया है कि क्या  आज कल शिक्षकों को  उतना सम्मान मिलता है जितना कि मिलना चाहिए .......... और यदि नहीं मिलता तो  क्या   कारण  हो सकते हैं ?  मैं  क्योंकि खुद भी अध्यापिका रही हूँ  इसलिए बहुत सी बातों से  वाकिफ़ हूँ  .  यदि आप में से कोई इस प्रश्न पर प्रकाश डालना चाहे तो स्वागत है .....कल  की कुछ रचनाओं पर कहीं  कुछ सीख दी गयी तो कहीं अध्यापकों पर भी तंज़ करे गए ...... और जो भी लिखा गया  बिल्कुल सत्य के करीब ही था ........ लेकिन एक पोस्ट जो मन को भा गयी ........ बहुत लोगों ने हो सकता है पढ़ भी ली होगी ...... लेकिन जो वहां पहुँचने से वंचित रह गए उनके लिए मैं आज यहाँ ले कर आई हूँ ...........

हर व्यक्ति का प्रथम गुरु माँ ही होती है और तत्पश्चात पिता ..... बाहर की दुनिया से परिचय माता पिता ही कराते हैं ..... .......या फिर दुर्भाग्यवश माता - पिता के न रहने पर कोई परिवार का सदस्य गुरु के रूप में स्थापित होता है ... विद्यालय  की शिक्षा तो बहुत बाद में मिलती है .. ... माता - पिता को समर्पित  अमृता तन्मय जी  की रचना ......

जब माँ किलक कर कहती है .......


साधारणतया जो गर्भ धारण कर बच्चे को जन्म देती है वो माँ कहलाती है । माँ अर्थात सृष्टि सर्जना जिसकी सर्वश्रेष्ठता अद्भुत और अतुलनीय होती है । इसलिए मातृत्व शक्ति प्रकृति के नियमों से भी परे होती है जो असंभव को संभव कर सकती है । एक माँ ही है जो आजीवन स्वयं को बच्चों के अस्तित्व में समाहित कर देती है । जो बिना कहे बच्चों को सुनती है, समझती है और पूर्णता भी प्रदान करती है । पर क्या बच्चें अपनी माँ के लिए ऐसा कर पाते हैं ?  क्या बच्चें कभी समझ पाते हैं कि उनकी माँ भी किसी की बच्ची है ? भले ही माँ की माँ शरीरी हो या न हो । पर क्या बच्चें कभी जान पाते हैं कि उनके तरह ही माँ को भी अपनी माँ की उतनी ही आवश्यकता होती होगी ? 


और इसके बाद आप पढ़िए कि एक अध्यापक स्वयं के बारे में क्या क्या कह रहा है ........ यूँ हर कोई कुछ भी आकलन कर ले लेकिन स्वयं के बारे में किया गया  आकलन ही सही लगता है मुझे ........ बाकी तो सब कुछ भी सोचने और कहने के लिए स्वछन्द हैं ..... प्रेम शंकर जी  की कविता ......


मेरी कोई जात नहीं
न जात देखना काम मेरा
हर वर्गों के लोगों को
शिक्षा देना ही काम मेरा
शिष्यों को कर्तव्य सीखता
ज्ञान बढ़ाता व्यापक हूँ
मैं एक अध्यापक हूँ।

एक तरफ एक अध्यापक अपने कर्तव्यों को ध्यान में रख अपनी बात कह रहा है तो दूसरी ओर एक शिक्षिका जब शिक्षिका बनना चाहती है तो उसके मन में  न जाने कितने अरमान थे  , बहुत से सपने कि सरकारी विद्यालयों कि छवि बदल देने के भाव ...... लेकिन जब शिक्षण से हट कर असल में क्या क्या करना पड़ जाता तो उसकी बानगी दिखा रही हैं श्वेता  सिन्हा  अपनी रचना में .... वैसे एक  कमी छोड़ दी है कि  चुनाव के समय कहीं भी  ड्यूटी लगा दी जाती है .... खैर आप इस कविता का भरपूर आनंद लें .... 


संगीत नहीं मैं सदा साज बनाऊँगी। 
टूटी कश्तियों से ज़हाज़ बनाऊँगी।।
ककहरे में ओज, नवचेतना भर दूँ,
बदले दुनिया वो आवाज़ बनाऊँगी।

अब हम  माता पिता को और गुरुओं को प्रणाम कर चलते हैं धरती  माँ के आँचल में ............  और आँचल में न  जाने क्या क्या छिपा है ...... कहीं जिया डोल रह तो कहीं कंगना खनक रहा .......  अनुपमा सुकृति जी कह रही हैं कि ....



बादल  बरस रहा है अंगना 

सजनी का जब खनके कंगना 

हरियाली में प्रीत सुहानी 

जीवन नव रस घोल रही है 


ये रिमझिम बूंदें कहीं  मन को खोल देती हैं ......... तो कहीं  यादों  को भिगो देती हैं ........ ये बारिश न जाने क्या क्या गुल खिलाती है ..... आईये पढ़ते हैं रोली पाठक जी  की ------

भीगी यादें 

बरखा के संगीत ने

छेड़ दिये फिर मन के तार

उमड़-घुमड़ होने लगा

कुछ वहाँ,

जिसे मन कहते हैं।

वो धुन वो उमंग

जैसे जलतरंग,

जैसे मेघ-मल्हार

और बादलों पर सवार


अब देखिये ये उमंग और जल तरंग सब बज उठा है .......  तो हम भी आपको पहाड़ी लड़की की उन्मुक्त हँसी से परिचय करा देते हैं  जो   शहर आ कर भौंचक्की सी है .....क्या  शहर में ये भी सीखना पड़ता है .....  उषा किरण जी  की एक लघुकथा ....

लाफिंग क्लब (लघुकथा )

शादी के बारह साल बाद भी मोहन के कोई बच्चा नहीं था। घरवाले सब दूसरी शादी के लिए दबाव बना रहे थे।जब वो छुट्टी में पहाड़ जा रहा था तो मैंने कहा मीना को यहाँ ले आओ इलाज करवाते हैं।तो गाँव जाने पर मेरे कहने से अपनी बीबी मीना को भी ले आया साथ। 

सालों बाद दोनों साथ-साथ रहते बहुत खुश थे।किचिन में काम करते समय धीरे- धीरे पहाड़ी गीत गाते रहते।मैं किसी काम से किचिन में जाती तो उनका  मीठा सा पहाड़ी गान सुन कर दबे पाँव मुस्कुरा कर वापिस लौट आती।


वैसे तो सच्ची बात तो ये है कि शहर ही क्या हर जगह बहुत  कुछ सीखना पड़ता है ....... अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं ....... एक नज़र इस व्यंग्य रचना पर जिसे लिखा है श्री गिरीश पंकज जी ने .....


गीत/ ढोते उसकी पालकी...


उनकी हरकत देखी सबने,
हरदम बड़े कमाल की।
जो नेता हैं बड़े काम के,
ढोते उनकी पालकी।।

बदले नेताओं के चेहरे,
बदले नहीं कहार।
समय देखकर पाला बदले,
जो बन्दे हुशियार।
घर वाले भी समझ सके ना,
हरकत अपने लाल की।
जो नेता हैं बड़े काम के,
ढोते उनकी पालकी।।


इस व्यंग्य के साथ ही हम जैसे कहार इजाज़त लेते हैं ....... मिलते हैं अगले सोमवार फिर कुछ नयी रचनाओं के साथ ...... 

नमस्कार 
संगीता स्वरुप ...







29 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात दीदी
    संगीत नहीं मैं सदा साज बनाऊँगी।
    टूटी कश्तियों से ज़हाज़ बनाऊँगी।।
    आज उठने में विलंब हुआ..
    शानदार अंक..
    आभार..

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात ! हार्दिक आभार हृदय स्पर्शी संवाद के लिए । आपके द्वारा उठाए गए उपरोक्त प्रश्न सबों को स्वाधीन चिंतन के लिए विवश कर रहा है । गहन मंथन के उपरांत विभिन्न मतों का उत्तर हो सकता है । पर हम सब सर्वप्रथम शिष्य हैं और हमें अपने प्रथम गुरुओं का सम्मान करना सबसे पहले सीखना होगा । तत्पश्चात् उत्तरोत्तर गुरुओं के हम सच्चे शिष्य बनकर ज्ञानॠण से मुक्ति का सर्वोत्तम प्रयास कर पायेंगे । शेष भ्रमण के उपरांत ....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी प्रतिक्रिया उत्साह बनाये रखने के लिए पर्याप्त है अमृता जी । आपके चिंतन , मंथन का परिणाम जानने की उत्कंठा है । मुख्य बात यही कि अपने प्रथम गुरुओं का सम्मान करना सीखना अधिक ज़रूरी ।
      सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार ।

      हटाएं
  3. बहुत ही सुन्दर सूत्रों का संकलन।

    जवाब देंहटाएं
  4. शिक्षक दिवस पर सार्थक चर्चा

    जवाब देंहटाएं
  5. आज की इस सारगर्भित चर्चा में मेरी रचना को स्थान देने के लिए ह्रदय से धन्यवाद् दी !! आपका मार्गदर्शन और स्नेह यूँ ही मिलता रहे !! बहुत आभार !!

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत ही शानदार लिंक्स एवम प्रस्तुति ...

    जवाब देंहटाएं
  7. हरदम की तरह
    स्तरीय रचनात्मक रचनाएं
    सादर नमन..

    जवाब देंहटाएं
  8. वाह अनुपम अभिव्यक्ति, बेहतरीन संकलन

    जवाब देंहटाएं
  9. आज का सुंदर सामयिक अंक पढ़कर अच्छा लगा,विविधता से भरपूर रचनाएँ अपने आप में विशेष हैं,लाफिंग क्लब कहानी विशेष आकर्षित कर गई । एक अच्छे अंक के सुंदर प्रस्तुति के लिए आपको बहुत शुभकामनाएं आदरणीय दीदी ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सराहना के लिए शुक्रिया जिज्ञासा । वक़्त निकाल कर आप हमेशा आती हैं , अच्छा लगता है ।

      हटाएं
  10. बहुत सुन्दर रंग- बिरंगा अंक !
    सर्वप्रथम आज की इस सारगर्भित चर्चा में मेरी रचना को स्थान देने के लिए ह्रदय से धन्यवाद् !
    आज के अंक में सभी गुरुओं का सम्मान है!
    शिक्षक की मनोदशा है !
    प्रकृति का सौन्दर्य है !
    नेताओं की चमचागिरी है!
    सभी कुछ मजेदार है परन्तु एक आपत्ति है आप कहार नहीं हंस हैं संगीता जी जो बेहद परिश्रम से चुन-चुन मोती लाती हैं!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत आभार उषा जी , हम तो जनता के रूप में कहार हैं 😂😂😂 । आपकी टिप्पणी नया उत्साह जगाती है ।

      हटाएं
  11. एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट लिंको से सजी लाजवाब हलचल प्रस्तुति... भीगी यादें में कमेंट नहीं हो पाया....। सही कहा आपने अब शिक्षकों को पहले सा सम्मान नहीं देते उनके शिष्य..। हाँ दिया हुआ प्यार और सम्मान कभी व्यर्थ नहीं जाता।
    मैनें क ई विद्यार्थी देखे जो स्कूलिंग से निकलने के बाद अपने टीचर्स को श्रद्धा से याद करते हैं।उनका दिल से सम्मान करते हैं। शिक्षक दिवस की आप सभी को अनंत शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सुधा जी ,
      आपकी प्रतिक्रिया का हमेशा इंतज़ार रहता है । भीगी यादों में शायद अप्रूवल लगा रखा होगा ।
      आपने सही कहा कि कुछ विद्यार्थी स्कूल से निकलने के बाद भी अपने शिक्षकों को श्रद्धा से याद करते हैं । बहुत कुछ शिक्षकों के अपने व्यवहार पर भी निर्भस्र करता है ।
      अंक पसंद करने के लिए आभार ।

      हटाएं

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