निवेदन।


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बुधवार, 31 जुलाई 2024

4203..चांदनी से रिश्ता..

 ।। भोर वंदन ।।



"निर्धन जनता का शोषण है

कह कर आप हँसे

लोकतंत्र का अंतिम क्षण है

कह कर आप हँसे 

सबके सब हैं भ्रष्टाचारी 

कह कर आप हँसे 

चारों ओर बड़ी लाचारी 

कह कर आप हँसे 

कितने आप सुरक्षित होंगे 

मैं सोचने लगा 

सहसा मुझे अकेला पा कर 

फिर से आप हँसे "

-रघुवीर सहाय


सामाजिक जीवन की निरन्तर सांस्कृतिक मूल्यों,विचारो की दशा को

इंगित करतीं पंक्तियों के साथ चलिये अब नज़र डालें चुनिंदा लिंकों पर..✍️


बरतन (लघुकथा )

टोकरी में पड़े सारे बरतन जोर -जोर से चिल्ला रहे थे ..

"ये इंसान भी ना ,क्या समझता है अपनें आप को ...जो भी गुस्सा हो ,जिससे भी

गुस्सा हो बिना सोचे समझे हम पर उतार देता है "


💫

कौन हैं सच्चे प्रेमी?


1.

उसने सवाल किया

कौन हैं सच्चे प्रेमी ?

तो! मैंने गिना दिए!

पति-पत्नी

माँ-बेटी

पिता-पुत्र इत्यादि इत्यादि।

सपने बचा लेते हैं

सपने बचा लेते हैं

जब मारता है ज़माना थप्पड़ इन गालों पर...

और मानता है मन कि शायद हम नहीं हैं उन किस्मत वालों में

तब ,

💫

एक पहचान

बारिश की बूंदों से हो रही है बातें


कहा है उसने आगे ही एक नदी है


जहां मैं खुद को एक पहचान दे रही हूँ,


मिट्टी, किनारे,नाव, मल्लाह, मछली... चांदनी से रिश्ता बना रही हूँ ।


💫

बूढ़ा होता अखबारवाला और घटती छोटी बचत



दो दशक से अधिक से


वह फेंक रहा है अखबार 


मेरे तीसरे मंजिल मकान के आंगन में 


सर्दी, गर्मी, बरसात में 


गाहे बगाहे नागा होते हुए। 

💫

।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️


मंगलवार, 30 जुलाई 2024

4202....मेरी रीतिहीन पूजा...

 मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
-------
मनुष्य के ज्ञान का सबसे मुख्य और महत्त्वपूर्ण स्रोत है किताब।
अपनी बुद्धि विवेक के क्षमतानुसार अर्जित ज्ञान 
का लिपिबद्ध संकलन,जिसे समयानुसार हम उपयोग कर सकते है।
सृष्टि के सृजन का रहस्य से लेकर जीवन की सूक्ष्म बारीकियों का लिखित प्रमाण,जिसे आवश्यकतानुसार हम आत्मसात कर 
जीवन की जटिलताओं से जूझने के लिए मार्गदर्शन पा सकते हैं।
किताबों का संसार अत्यंत विस्तृत और रोचक होता है जिसमें कल्पना के साथ यथार्थ का अद्भुत तालमेल होता है। 
परंतु डिजिटल क्रांति के इस दौर में जब सार ज्ञान
इलेक्ट्रॉनिक डेटा में बदल गया है तो
 किताबों का
अस्तित्व कितना अक्षुण्ण रहेगा यह
 प्रश्न चिन्ह उठना स्वाभाविक है न..!
मुझे किताबें पढ़ना बहुत पसंद है आपने किताबों से दोस्ती की है क्या?
आपकी पसंदीदा किताब कौन सी है ?

आज की रचनाएँ-



मेरी आंखें शंखनाद बनीं
रक्त वाहिकाओं में दौड़ता 
ॐ का अनवरत उच्चार
अहर्निश जलता दीप बना 
और बेलपत्र,अक्षत,
भांग, धतूरा,नैवेद्य में काया ढल गई...
अंतर्मन अभिषेक का गंगाजल हुआ
और निर्विघ्न संपन्न होती रही 
मेरी रीतिहीन पूजा !


आजकल दर्पण उपेक्षित से पड़े हैं


विष  भरे  कितने  ही  सोने के घड़े हैं
कितने  के  गहनों में हीरे तक जड़े हैं
किंतु जब भी आचरण की बात आयी
दृष्टि   में   वे  हर  दिशा  से ही सड़े हैं
 




हमको घर जाना है



अकेलापन काटने को आये 
तब एक आवाज़ अंदर से ख़ुद को कहती है 
हमको घर जाना है 
आज भी वही हुआ 
ज्ञान और विज्ञान के तर्क से 
ज़िंदगी की मौजूदगी को मरते देख 
वही बात कौंध उठी 
घर जाना है! 


गांव से निकला 
बह गया धारा में 
धारा से नदी 
नदी से समद्र में 
समा गया मैं 
अफ़सोस 
अब महानगर में हूँ 
यहाँ होकर भी 
नहीं हूँ मैं 






प्रातः भ्रमण के लिए बहुत देर हो चुकी थी। कहाँ भोर में 5 बजे साइकिल लेकर घर से निकल पड़ता, कहाँ उठने में ही 6 बज चुके थे। देर हुआ तो क्या हुआ, कौन ऑफिस जाना है, सोच कर तैयार हुआ तो मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। ध्यान गया, कल रात 12 बजे के बाद पुस्तक समाप्त हुई थी, उठने में देर तो होना ही था। बाहर जोरदार वर्षात हो रही, हम फिर पुस्तक की याद में खो गए। 

-----

आज के लिए बस इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
-------


सोमवार, 29 जुलाई 2024

4201 ...साजिशों का बाजार है, सौदा करूं किसका

 नमस्कार

एक छोटी सी लम्बी कहानी
ऐसा है मेरा भारत...


जब हिटलर ने पोलैंड पर आक्रमण करके द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत की थी तो 
उस समय पोलैंड के सैनिकों ने अपने 500 महिलाओं और करीब 200 बच्चों को एक शिप में बैठाकर 
समुद्र में छोड़ दिया और कैप्टन से कहा की इन्हें किसी भी देश में ले जाओ, जहाँ इन्हें शरण मिल सके 
अगर जिन्दगी रही हम बचे रहे या ये बचे रहे तो दुबारा मिलेंगे।

500 शरणार्थी पोलिस महिलाओं और दो सौ बच्चों से भरा वो जहाज ईरान के सिराफ़ बंदरगाह पहुंचा, 
वहाँ किसी को शरण क्या उतरने की अनुमति तक नहीं मिली, फिर सेशेल्स में भी नहीं मिली, फिर 
अदन में भी अनुमति नहीं मिली। अंत में समुद्र में भटकता भटकता वो जहाज गुजरात के 
जामनगर के तट पर आया।

जामनगर के तत्कालीन महाराजा "जाम साहब दिग्विजय सिंह" ने न सिर्फ 500 महिलाओं बच्चों के लिए 
अपना एक राजमहल जिसे हवामहल कहते है वो रहने के लिए दिया बल्कि अपनी रियासत में 
बाला चढ़ी में सैनिक स्कूल में उन बच्चों की पढ़ाई लिखाई की व्यवस्था की। ये शरणार्थी जामनगर में 
कुल नौ साल रहे। उन्हीं शरणार्थी बच्चों में से एक बच्चा बाद में पोलैंड का प्रधानमंत्री भी बना 
आज भी हर साल उन शरणार्थियों के वंशज जामनगर आते है और अपने पूर्वजों को याद करते है।

पोलैंड की राजधानी वारसा में कई सड़कों का नाम महाराजा जाम साहब के नाम पर है, 
उनके नाम पर पोलैंड में कई योजनाएं चलती है। हर साल पोलैंड के अखबारों में 
महाराजा जाम साहब दिग्विजय सिंह के बारे में आर्टिकल छपता है। प्राचीन काल से भारत, 
वसुधैव कुटुम्बकम, सहिष्णुता का पाठ दुनिया को पढ़ाते आया है और 
आज कल के नौसिखिए नेता, भांड पत्रकार, मलेच्छ आदि लोग 
भारत की सहिष्णुता पर प्रश्न चिन्ह लगाते फिरते हैं।

जय जननी, जय भारतभूमि !!
अधिक जानकारी गूगल जी महाराज से लीजिए

अब आनंद लीजिए मिली-जुली रचनाओं का




जब नहीं होंगे उजाले,
आँखों पे जो ऐनक होगी,
झुर्रियों से भरा चेहरा..
न पहले सी रौनक होगी
हाँ सुनो....





मासूम भेड़ की ऊन
आधुनिक मशीनों से
उतारी जा रही है
भेड़ की असहमति
ठुकराई जा रही है
ज़बरन छीना जा रहा है  
सौम्य कोमल क़ुदरती कवच





बदल रहे हैं आजकल निसाब मौसमों के
सांस भी उलझ रहा, हिसाब मौसमों के,
ताल्लुक ग़र हमारा टूटे तो ये याद रखना-
गर्द-गर्द शहर की नुमाई हम ही,
जवाब मौसमों के।




साजिशों का बाजार है
सौदा करूं किसका
विधाता क्या
यही संसार है।।

कांटो पर चलना
आसान है दोस्तों यहां
फूलों से दर्द की
खुशबू आती



कल मस्त थे जिसके दल में
करने में गुणगान रे
पलभर में छोड़ चले सब
बेच दिया  ईमान रे
आओ - आओ, देर न करना
दल ,बदल के काम में



आज बस
कल श्वेता जी
सादर

रविवार, 28 जुलाई 2024

4200 ...दो वे पल, दो उस पल की बातें,

 नमस्कार

आज किसी के बारे में
कुछ बताना चाहता हूं ...

वे कौन से सेना अधिकारी थे जिसने नेहरू को सबके सामने “थप्पड़” मारा था ?



आपको यह बताना चाहूंगा कि थप्पड़ इस संदर्भ में नही की उनके मुह पे या 
गाल पे मारा था थप्पड़ मारा था नेहरू की उस गंदी सोच को जिसमे उन्होंने ये कहा था कि 
हमारे पास कोई अनुभवी जनरल नही जो देश की सेना की कमान संभाल सके उस समय 
उस मीटिंग में कई बड़े नेता और अधिकारी मौजूद थे उन सबको इस बात से बहुत बुरा लगा 
क्योंकि नेहरू किसी अंग्रेज को नियुक्त करना चाहते थे।इस बात को सुन के 
जनरल नाथूराम सिंह राठौड़ ने कहा था कि इस हिसाब से तो 
हमे प्रधानमंत्री भी ब्रिटिश रखना चाहिए।इसी बात को कहते है कि नेहरू के गाल पे थप्पड़ मारा था।
उनकी इस बात के बाद में हमें अपने देश का पहला आर्मी जनरल मिला था 
फील्ड मार्शल कोडंडेरा मडप्पा करिअप्पा के रूप में

अब आनंद लीजिए मिली-जुली रचनाओं का



मैं कहता हूँ, और तुम उत्तर मत दो,
मत पूछो कि यह मुझे क्यों प्रसन्न करता है।
तारे पूरी रात भोर तक जलते रहते है।
मै भी उनके तरह जल रहा हूँ।





उसे डर था कि बिना पैसों के कोई फ्री में नहीं पढ़ायेगा। तथापि उसने हिम्मत जुटाई और भोपाल के कोचिंग हब एमपी नगर पहुँच गया। जहाँ सबसे पहले बोर्ड ऑफिस के सामने वाली एक बहुमंजिला नामी-गिरामी कोचिंग संस्था में पहुंचा। जहां कोचिंग में उसके टीचर ने कुछ साइंस के प्रश्न पूछे, जिनके उत्तर वह नहीं दे पाया




फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन के लिए
नारे लगते हैं
आंदोलन चलते हैं
और जिन्हें हम अपने बच्चे मानते हैं
परिवार का सदस्य कहते हैं
गले लगाते हैं
मल उठाने को तत्पर रहते हैं
उन्हें ही भौंकने से रोक देते हैं





दो वे पल, दो उस पल की बातें,
वो, किनको बतलाते,
मन के तहखाने, मन की, सारी बातें,
अनसुने ही रह जाते,
कुछ पल, बस छलने को चल आते!





जीवन के सफर में
कई साथी मिले चल रहे हैं साथ कुछ
यादें अपनी देकर कुछ छोड़ चले गए
और
बंधनों से घिरा
मैं चलता ही गया





वास्तव में कभी-कभी हमारे जीवन में संघर्ष ही वो चीज होती है, जिसकी हमें सचमुच आवश्यकता होती है। यदि हम बिना किसी प्रयत्न के सब कुछ पाने लगे, तो हम भी एक अपंग के समान हो जायेंगे। बिना परिश्रम और संघर्ष के हम कभी उतने मजबूत नहीं बन सकते, जितना हमारी क्षमता है। इसलिए जीवन में आने वाले कठिन पलों को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखिये, वो कठिन पल कुछ ऐसा सीखा जायेंगें, जिससे हम अपनी ज़िन्दगी की उड़ान को सफल बना पायेंगे..!!

आज बस
सादर

शनिवार, 27 जुलाई 2024

4199 बिन्दी वापस लौट नहीं पाई चुटकी, झुमके, पायल ले गई

 नमस्कार

जुलाई की विदाई में
आप सब मेरा साथ अवश्य देंगे
चलिए चलें
मिली-जुली रचनाओं की ओर

मैं केशव का पाञ्चजन्य भी
गहन मौन में खोया हूँ
उन बेटों की आज कहानी
लिखते-लिखते रोया हूँ
जिस माथे की कुमकुम
बिन्दी वापस लौट नहीं पाई
चुटकी, झुमके, पायल ले गई
कुर्बानी की अमराई
कुछ बहनों की राखियां
जल गई हैं बर्फीली घाटी में
वेदी के गठबन्धन खोये हैं
कारगिल की माटी में
पिछले अंक में प्रकाशित
हरिओम पंवार की रचना का अंश

अब आगे


मैं तो इस पल का राही हूँ
इस पल के बाद कहीं और !
एक मेरा वक़्त है आता जब
जकड लेता हूँ उस पल को !
कौन केहता है ये पल मेरा नहीं
मुझे इस पल को जानना है !





बौद्धिक विचारों के लिबास से लिपटे लोग
अक्सर कहते हैं -
खुद के लिए जियो,
खुद के लिए पहले सोचो"
... खुद के लिए ही सोचना था





अच्छे काम वो करती है
सबकी हेल्प वो करती है।।

दौड़ गई वो स्ट्रॉ लाने ।
उस कौवे की प्यास बुझाने।।  

कौवा बड़ा सयाना था ।
पानी पीना ठाना था।।

चोंच में फिर स्ट्रॉ दबाई
पानी पीकर प्यास बुझाई।।





नंद-यशोदा हर्षित होते,कैसा
अद्भुत लाल।
माखन चोर फोड़ता मटकी,गोपीं
हो बेहाल।

पांचाली के आर्तनाद पर,तुरत
बढ़ाया चीर।
कायरता का चरम हुआ अब,
शंख फूंक दो वीर।






एक रोज लड़के ने
लड़की के माथे पर टाँक दिया चुंबन
दुनिया सुनहरी ख्वाबों की आश्वस्ति से
भर उठी

एक रोज दुनिया भर की किताबें
प्रेम पत्रों में बदल गईं
और सारे मौसम बन गये डाकिये






पारसाल ईंटा गिरगा
सीमिंट अबहिं नाहीं आई
लागत है अबकी चुनाव म
नेंय कय साइत होय जाई
दिहिन दिलासा तब परधान
जब पंच घेरि कय बैठि गए
फिर सबर किहिन जोंधई क दुलहिन
लरिकव किताब दुइ पढ़ि पाई


आज बस
सादर

शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

4198...तेरी.मिट्टी में मिल जावा...

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
-----
कारगिल दिवस

 भारतीय सैनिकों की शौर्यगाथा से जुड़ा 
एक अविस्मरणीय दिन है।
60 दिन तक चले भारत-पाक युद्ध का अंत
26 जुलाई 1999 को हुआ।
कारगिल में शहीद हुये
सैनिकों के सम्मान और विजयोपहार
को याद करने के लिए यह दिन 
कारगिल दिवस के रुप में 
घोषित किया गया।
वैसे तो हम देशवासियों का 
हर दिन हर पल 
इन वीर जवानों का कर्ज़दार है।
सैनिकों के त्याग और बलिदान 
के बल पर हम अपनी सीमाओं में सुरक्षित
जाति-धर्म पर गर्व करते हुये
सौ मुद्दों पर आपस में माथा फुटौव्वल करते रहते हैं।
अपने देश में अपनी सुविधा में उपलब्ध चारदीवारी में  
चैन की नींद सो पाते हैं
तो बस हमारे सीमा प्रहरियों की वजह से।
 सिर्फ़ दिन विशेष ही नहीं
अपितु हर दिन एक बार 
हमारे वीर जवानों का उनके कर्तव्य के नाम पर किये गये बहुमूल्य बलिदानों के लिए हृदय से हमें धन्यवाद 
अवश्य करना चाहिये।

 सैनिक  जाति-धर्म के बंधनों
से मुक्त कर्तव्य के पथ पर
चलते रहते हैं। देश के लिए समर्पित, देश की जनता की प्राणों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर सैनिकों का कर्ज़
है हमपर, यह सदैव स्मरण रखना और सच्चे मन से उन्हें सम्मान देना यह प्रमाणित करती है कि स्वयं की खोल में सिमटते स्पंदनहीन दौर में भी दिलों में देश के सपूतों के लिए अगाध श्रद्धा और 
मानवता के बीज जीवित है।

सुनो सैनिक!
तुमने पोछें है आँसू, दिया सदैव संबल
तुमने रोके हैं शत्रु, बने  रक्षक उदुंबल,
मृत्यु पर तुम्हारे कमजोर पडूँ कैसे?
अश्रुपूरित नयनों से विदा करूँ कैसे?

 वीर शहीदों को हृदय से नमन है-

मैं केशव का पाञ्चजन्य भी गहन मौन में खोया हूँ
उन बेटों की आज कहानी लिखते-लिखते रोया हूँ
जिस माथे की कुमकुम बिन्दी वापस लौट नहीं पाई
चुटकी, झुमके, पायल ले गई कुर्बानी की अमराई
कुछ बहनों की राखियां जल गई हैं बर्फीली घाटी में
वेदी के गठबन्धन खोये हैं कारगिल की माटी में

पर्वत पर कितने सिन्दूरी सपने दफन हुए होंगे
बीस बसंतों के मधुमासी जीवन हवन हुए होंगे
टूटी चूड़ी, धुला महावर, रूठा कंगन हाथों का
कोई मोल नहीं दे सकता वासन्ती जज्बातों का
जो पहले-पहले चुम्बन के बाद लाम पर चला गया
नई दुल्हन की सेज छोड़कर युद्ध-काम पर चला गया

उनको भी मीठी नीदों की करवट याद रही होगी
खुशबू में डूबी यादों की सलवट याद रही होगी
उन आँखों की दो बूंदों से सातों सागर हारे हैं
जब मेंहदी वाले हाथों ने मंगलसूत्र उतारे हैं
गीली मेंहदी रोई होगी छुपकर घर के कोने में
ताजा काजल छूटा होगा चुपके-चुपके रोने में

जब बेटे की अर्थी आई होगी सूने आँगन में
शायद दूध उतर आया हो बूढ़ी माँ के दामन में
वो विधवा पूरी दुनिया का बोझा सिर ले सकती है
जो अपने पति की अर्थी को भी कंधा दे सकती है
मैं ऐसी हर देवी के चरणों में शीश झुकाता हूँ
इसीलिए मैं कविता को हथियार बनाकर गाता हूँ

जिन बेटों ने पर्वत काटे हैं अपने नाखूनों से
उनकी कोई मांग नहीं है दिल्ली के कानूनों से
जो सैनिक सीमा रेखा पर ध्रुव तारा बन जाता है
उस कुर्बानी के दीपक से सूरज भी शरमाता है
गर्म दहानों पर तोपों के जो सीने अड़ जाते हैं
उनकी गाथा लिखने को अम्बर छोटे पड़ जाते हैं
उनके लिए हिमालय कंधा देने को झुक जाता है
कुछ पल सागर की लहरों का गर्जन रुक जाता है

उस सैनिक के शव का दर्शन तीरथ-जैसा होता है
चित्र शहीदों का मन्दिर की मूरत जैसा होता है।

-हरिओम पंवार


आज की नियमित रचनाएँ-
------

माँ
मैं बहुत जल्दी आऊंगा
तब खिलाना
दूध भात
पहना देना गेंदे की माला
पर रोना नहीं
क्योंकि
तुम रोती बहुत हो
सुख में भी
दुःख में भी----



रक्षा अपने देश की, करते वीर जवान।
सेना पर अपनी हमें, होता है अभिमान।।
--
बैरी की हर चाल को, करते जो नाकाम।
सैनिक सीमा पर सहें, बारिश-सरदी-घाम।।
--
सैन्य ठिकाने जब हुए, दुश्मन के बरबाद।
करगिल की निन्यानबे, हमें दिलाता याद।




तुम याद आती हो,

जैसे आते हैं

लू के मौसम में बादल, 

जैसे आती हैं 

सावन के मौसम में फुहारें,

जैसे वसंत में आती है 

बाग़ों में ख़ुश्बू,

जैसे किसी ठूँठ पर 

बैठती है चिड़िया,

जैसे आता है 

सूखी नदी में पानी. 





“समय के पहले से उपस्थित साहित्यकार, राजनीति के नेताओं की असफल प्रतीक्षा करें तो क्रोध कम, क्षोभ ज़्यादा होता है…। जो अर्थ मिला है वह हक़ से मिला है। बैंक हो, सरकारी कार्यालय हो या कोई भी विभाग हो वहाँ साहित्य के लिए ‘धन का पूल’ (फंड) होता ही होता है। उचित पात्र तक ना पहुँचे यह अलग मसला है। उचित पात्र को मिल जाए तो ऋण नहीं हो जाता है! ऋण है तो फिर चुकाना पड़ेगा…! चुकाने का कोई सोचता है क्या?”

और चलते-चलते मेरा प्रिय गीत सुन लीजिए-

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आप सभी का आभार
आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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