निवेदन।


फ़ॉलोअर

मंगलवार, 31 अक्तूबर 2023

3930....सोचो जीते-जी...

 मंगलवारीय अंक में आप
 सभी का स्नेहिल अभिवादन।
----------
वे अपने हृदय की आवाज़ सुन नहीं सकते शायद...
अपनी धमनियों में गूँजते रक्त के नगाड़ों की गरज सुनाई नहीं देती उन्हें
बेबस,लाचार असमर्थ भीड़ की सिसकियाँ,दर्द में डूबी
चीखें बेअसर हैं...
दिमाग़ में भरा बारूद, बारूद के धमाके से उड़े धुँयें में 
 ख़ून का रंग भी बदल जाता है क्या?
भले ही कानों और आँखों पर मज़हबी पहरे हों 
ज़बान को खून पानी समझ रही हों
बदल गई हों सीमाएँ रातों-रात 
सोचती हूँ
क्या वे मनुष्य ही हैं
जो लाशों के ढेर पर ही
सुकून की नींद सो पाते हैं?
-श्वेता

--------


करते हैं क्यों हर बात में अमित्र करने की बात कई इंसान,
जो कहते हैं स्वयं को हर बार अहिंसा-पुजारी के कद्रदान ?
सोचो-सोचो जीते जी, करो भलाई किसी अमित्र की भी,
मरने पर ना जा के क़ब्रिस्तान, ना श्मशान, करके देहदान।

झील -ताल
पर्वत, 
ये घाटी, ये देवदार,
केसर, चन्दन
औषधि
नदियों की धवल धार,
तुतलाते
बच्चों सा
इनको कुछ कहने दो.

हवा चले मनभावनी, मुदित हुआ मन आज।
कार्तिक महीना आ गया, सुखद लगे सब काज।।

दीपमालिका आ रही, सजे हाट बाजार।
कार्तिक तेरी शान में, दीप जले दिशि चार।।



मेरा हँसना भी रोना है,तुम्हारी याद में अब
मैं खाता भी हूँ अब आधा निवाला छोड़कर

अधूरी रह गईं कितनी लड़ाई बीच में
तुम्हें जाना नहीं था मुझको तन्हा छोड़कर



अपने गांव छोटे शहरो और आसपास के उन बहुत  सारे लोगों को याद किजिए जो आपसे बहुत पीछे छुट गयें और आप अपनी मेहनत के बल पर उनसे कितना आगे बढ़ गयें । वो लोग जिनसे आप कहतें रहें कि भाई कुछ मेहनत कर लो , पढ़ लो , दिमाग  लगा लो , ढंग का काम कर ले और वो आपकी बात अनसुना कर कहते रहें उनके लिए उतना ही बहुत है । 



-----

आज के लिए इतना ही
फिर मिलते है 
अगले अंक में।






सोमवार, 30 अक्तूबर 2023

3929 ज़िंदगी ...कब कहाँ ,पटरी से उतर जाए किसे पता

 सादर अभिवादन

विदा अक्टूबर

ज़िंदगी ...कब कहाँ
रेल सी
पटरी से उतर जाए
किसे पता

सपने ... कब कहाँ
रेत से
हाथों से फिसल जाएँ
किसे पता
-मंजू मिश्रा

रचनाएं देखिए

जब दुनिया में हम आए,
रोना बहुत आया था
पर अन्य सब हुए प्रसन्न
ढोलक पर सोहर गाई गई
नेग बाट मिठाई बाटी गई


शहतूत के घने पेड़ पर
जो था रैन बसेरा
अनेक जीवों का
दूर करता था जो सूनापन
बस्ती थी जहाँ अनेक ज़िंदगियाँ
है आज वीरान  सुनसान




तुम्हारी जाने के पश्चात
मैंने गढ़ ली है
प्रेम की एक अलग सी दुनिया
जिसमें रात की टोकरी में
समय अपनी पैनी हथेलियों से
लिखता है चांद की पीठ पर मेरा विरह


कि ज़िन्दगी गुजरी हो
चाहे ऐसे -वैसे ही
दिखाने मौत पर अमीरी हमारी
आ जाना जाने
लगूं तो आ जाना  
हँसाया हो, रुलाया हो
खरी - खरी सुना दी हो
कोई सलाह दे दी हो
कभी किसी काम आयें हो
कि असर रहा हो हमारा भी
तुम पे थोड़ा सा
एहसास कराने आ जाना
जाने लगूँ तो आ जाना

आज बस
कल मिलिएगा श्वेता जी से
सादर

रविवार, 29 अक्तूबर 2023

3928 ..खुश्बू लिखे से नहीं आती है अलग बात है

सादर अभिवादन

माता रानी विदा हो गई
आंगन सूना सा लग रहा है

अम्मा
अम्मा पहेली
हँस-हँस के पीती
पीड़ा अकेली।
...
ज़मीं न ज़र
बंजारन ज़िन्दगी
आँसू से तर

हिंदी- हाइकु का फलक अब इतना विस्तृत हो चुका है कि अब ये किसी परिचय का मोहताज नहीं है।
इसका वैश्विक प्रसार भी इसके बेहतर भविष्य की ओर संकेत करता है। सत्रह वर्ण में लिखी जाने वाली
यह लघु रचना अपने आप में पूर्ण कविता होती है, तीन पंक्तियों में यह किसी दृश्य को
पाठकों के समक्ष पूर्णतया खोलती है।...विस्तार से आदरणीय विभा दी ही बता पाएंगी

अब रचनाएं देखें....



हमने नहीं किया
संगीत का कार्यक्रम,
अखंड रामायण-पाठ,
नहीं बजाया ढोल,
नहीं बजाई झींझ,
नहीं रखी कोई
सत्यनारायण-कथा.






बाबा के इतना कहते ही, अचानक झबरू की झोपड़ी की ड्योढ़ी पर
बाबा की जय-जयकार होने लगी। व्यवस्थापक हरकत में आ गए।

“जय हो देवी माँ की! देवी माँ की जय हो!
देवी को जन्म देने वाली ननमुनिया की जय!!”

कल तक अछूत, ननमुनिया और उसकी नवजात बेटी की जय जयकार हो रही है,
जिसके दाएँ कान से बाएँ कान तक पाँच नेत्र ऊपर नीचे उगे हुए हैं,
ननमुनिया कराहती हुई, लत्ते में लिपटी मरणासन्न बेटी महात्मा के चरणों में लिटा देती है।







खुश्बू लिखे से नहीं आती है
अलग बात है
खुश्बू सोच लेने में
कौन सा किसी की जेब से
कुछ कहीं खर्च हो जाता है

समय समय की बात होती है
कभी खुल के बरसने वाले से
निचोड़ कर भी
कुछ नहीं निकल पाता है





वैसे आजकल यह खेल भी पैसा कमाने के अहम जरिए का रूप लेता जा रहा है!दर्शकों को आकर्षित और रोमांचित करने की तरकीबें खोजी जाने लगी हैं! भद्र पुरुषों का खेल कहलवाने वाले क्रिकेट का मूल स्वभाव बदलवाया जा रहा है! इस खेल का बैटिंग वाला पक्ष वो हिस्सा है जो इस खेल को रफ्तार देता है, यही चीज दर्शकों और क्रिकेट प्रेमियों को ज्यादा पसंद भी है! इसी कारण इस खेल में बैटर का दबदबा बढ़ता चला जा रहा है और बॉलर धीरे-धीरे गौण होते जा रहे हैं! आज बैटर को ध्यान में रख नियम-कानून बनते हैं! बैटिंग के लिहाज से पिचें तैयार करवाई जाने लगी हैं ! नियम बनाने वालों का सारा ध्यान खेल के तीनों रूपों में ज्यादा से ज्यादा रन बनवाने और चौके-छक्के लगवाने में ही रहता है ! चलो, बैटर को अपनी गलती सुधारने का मौका भी तो नहीं मिलता है, ऐसी रियायत ही सही ! इससे रोमांच तो बढ़ा ही है ! ठठ्ठ के ठठ्ठ लोग तमाशा देखने उमड़े भी पड़ रहे हैं !



"सुनों ना! कुछ कहना है•••"
"कहो ना! हम सुनने ही जुटे हैं। अब सोना ही तो है••"
"गज़ल बेबह्र है काफ़िया भी भगवान भरोसे है"
"चलता है!"
"दोहा में चार चरण कहना है लेकिन चार भाव नहीं है"
"चलता है!"
"मशीनगण से निकला हाइकु है। ना अनुभूति है ना दो बिम्ब है"
"चलता है!"






अमृत वर्षा कर रही, शरदपूर्णिमा रात।
आज अनोखी दे रहा, शरदचन्द्र सौगात।६।

खिला हुआ है गगन में, उज्जवल-धवल मयंक।
नवल-युगल मिलते गले, होकर आज निशंक



आज बस
कल मिलिएगा श्वेता जी से
सादर

शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

3927...भय से पीला हो गया, दिनकर देखे प्रात...

शीर्षक पंक्ति:आदरणीय अशर्फ़ी लाल मिश्र जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

शनिवारीय अंक में आज की पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

दोहे शरद पूर्णिमा पर

निशि  रुपहली  साड़ी   में, थिरके सारी रात।

निशिपति भी सम्मुख  रहे, होय न कोई बात।।2।।

चाँद केलि करता रहे, रजनी  सारी  रात।

भय से पीला हो गया, दिनकर देखे प्रात।।3।।

 उसने की भूल

आज तक अपनी भूल पर कायम रही

उसी कार्य  पर अडिग रही

सब का समझाना व्यर्थ गया

जब उनका कहा नहीं माना

आगे से अब भूल नहीं होगी।

कविता स्पष्ट है बरदोश नहीं है..

कोई तारीफ लिखे कोई नाकामियाँ

कोई व्याकुलता कोई संतोष लिखे

कोई अमन शांति का पैगाम दे

कोई उबलते जज्बातों का आक्रोश लिखे

बैंगलुरु

बैंगलुरू की स्थापना 1537 में केम्पे गौड़ा द्वारा की गई थी. केम्पे गौड़ा यहाँ के शासक थे जो विजयनगर साम्राज्य के अधीन थे. अभिहाल की खोज के अनुसार बेगुर क़िले में एक अभिलेख मिला है जिसके अनुसार यह ज़िला 1004 ई. में गंग राजवंश का एक भाग था. इसका प्राचीन नाम बेंगा-वलोरु था. अब इसे बंगलौर, या बैंगलोर या बंगलुरु भी कहा जाता है. बड़ा महानगर है ये जिसकी आबादी लगभग एक करोड़ या उससे ज़्यादा ही होगी. इसकी ऊँचाई 920 मीटर है जिसके कारण मौसम अच्छा बना रहता है.

आसमानी बातें थीं उसकी...

पीठ पर उभरे उस स्याही के गोले का रंग लड़के की हथेलियों पर नीली लकीर बनकर उभरा जब प्रार्थना के वक़्त ड्रेस मॉनिटर ने उसे लाइन से बाहर निकाला और मास्टर जी ने हथेलियाँ आगे करने को कहा। लड़के के हाथ पर उभरी नीली लकीरें लड़की की आँख का नीला दरिया बनकर छलक पड़ी थीं। उसने कब सोचा था कि उसकी जरा सी शरारत का ये असर होगा।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव  


शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2023

3926....कहाँ तक वे नज़रें चुरायेंगे...

 शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
-------
कभी जब मन उदास हो तो  कुछ भी नहीं अच्छा नही लगता और कभी नभ में उड़ता अकेला पक्षी भी मन को आशा से भर देता है। इसी तरह किसी की लिखी अच्छी, रौशन बातें पढ़कर भी मन उत्साह से भर सकता है। 
नकारात्मकता की भीड़ को परे धकेलकर
आइये क्यों न कुछ सकारात्मकता आत्मसात करें-
अपने जीवन में अच्छे बुरे बदलाव का कारण सिर्फ़ और सिर्फ़ हम स्वयं होते हैं। दुनिया हमारे अनुसार चलेगी ऐसा सोचने से बड़ी बेवकूफी कुछ नहीं है।
कहीं पढ़ा था-
"जब आप उड़ने के लिए पैदा हुए हो, तो जीवन में रेंगना क्यों चाहते हो?"
“तुम सागर की एक बूंद नहीं हो। तुम एक बूंद में सारा सागर हो।”
"अपने शब्दों को ऊँचा करो आवाज को नहीं! बादलों की बारिश ही फूलों को बढ़ने देती है, उनकी गर्जना नहीं।"
दुनिया की परवाह करके दुखी होने से बेहतर है स्वयं से प्रेम करो, आनंद में रहो।
------
आइये आज की रचनाओं का आनंद लें-


यहां सभी के टाइमलाइन 
क्रोएशियाई प्रोफाइल
पोस्ट-वोस्ट सब ब्युटीफुल हैं
फेसबुक-जेस्कर-स्माइल


कुछ बनावटी हैं अनकहे जज्बातों को, 
कुछ अपने अनकहे जज्बातों को, 
कुछ अपने अनकहे जज्बातों को, कुछ धरती के मनोरम सौंदर्य का वर्णन करते हैं, 
कुछ कटु वर्णों से तेजाब लिखते हैं 

कुछ प्रेम का सुंदर आबास रचित हैं 
कुछ दबे कुचले लोगों की आवाज़ लिखी हैं 
कुछ प्रेम का सुंदर आबास रचित हैं 
कुछ दबे कुचले लोगों की आवाज़ लिखी हैं कुछ प्रेम का सुंदर आबास ने लिखा है 

जिसे गुनगुनाना चाहता है हरदम मैं
हमदम तू बिल्कुल वह ग़ज़ल सा है। 

निहारता हूं अकेले में बार-बार चांद को
देखता हूं वो तेरी किसी झलक सा है।




छुपे लें वो चेहरा जहां से भले ही
कहां तक ​​वो नजरें चुराएंगे लेकिन।

जला कर बहुत खुशियाँ हैं वो वैभवशाली महल
कैसे अपने बचाएंगे लेकिन।




सबा की आवाज की खनकअजीब सी एक बेचैनीएक कसक और कसमसाहट के साथ ही उसकी लेखनी मुझे खींच कर ले गई उस अपनी जिन्दगी की खुशनुमा वादी में..जहाँ शायद भाव यूँ ही गुनगुनाये थे मगर शब्द कहाँ थे तब मेरे पास. न ही सबा की लेखनी की वो बेसाखियाँ हासिल थी उस वक्त....जिसकी मल्लिका सबा निकली. वो यादें तो मेरी थीं और हैं भी. उन पर सबा का कोई अधिकार नहीं तो उनमें डूबा मैं तैरता रहा मैं हर पल तुम्हें याद करता...।


-------

आज के लिए इतने ही
मिलते हैं अगले अंक में
------

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

3925 ..इस तरफ़ लिखते रहे हम खामोशियां

 सादर अभिवादन

माता रानी को सादर नमन
आज  भाई रवीन्द्र जी को आना था
वे अचानक इटावा चले गए
बस फिर क्या था..
सादर
अब रचनाएं देखें




बुझते बुझते जल उठी मशाल जब,
आँधियों में एक बस्ती जल गई.

देर से मगर इसे समझ गया,
आग तेज़ हो तो दाल गल गई.




"मिथक कथानुसार सीता स्वयं रावण का नाश कर सकती थी।लेकिन उदहारण देना था, मुश्किलों में जीवन साथी का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। हालात का निडरता के साथ सामना करना चाहिए। एकदम से किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए••!"





बगल वाली सीट का
ये पहला कमाल था...
न चाहते हुए भी
रूह में उठा इक धमाल था।
और प्रेम रसायनों के उत्सर्जन से
समझ, सोच या विवेक जैसे
शब्दों का शुरु हो चुका था
जीवन से पलायन।





दरअसल ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन घाट पर प्रतिदिन होने वाली गंगा आरती के 
दौरान कल विजयादशमी के अवसर पर आरती के साथ ही 
विशेष आयोजन भी किए गए थे।
....एक रिपोर्ट




ना समझा इश्क ने कभी हमें
ना हम समझ सके कभी इश्क को।
इस तरफ़ लिखते रहे हम खामोशियां
उस तरफ वो चुप्पियां सुनते रहे।।


आज बस
कल मिलिएगा श्वेता जी से
सादर

बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

3924.पहली बारिश में ज़िंदगी ढूँढे

 ।।‌प्रातः वंदन।।

 देखे हैं कितने तारा-दल

सलिल-पलक के चञ्चल-चञ्चल,

निविड़ निशा में वन-कुन्तल-तल

फूलों की गन्ध से बसे !


उषाकाल सागर के कूल से

उगता रवि देखा है भूल से;

संध्या को गिरि के पदमूल से

देखा भी क्या दबके-दबके..!!


~ सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' 

प्रस्तुतिकरण को आगे बढ़ाते हुए आज बात कुछ इस तरह के स्याही के बूंटो से ✍️

आओ मौसम की पहली बारिश में ज़िंदगी ढूँढे


 पिछली बारिश के जमा पलों की गुल्लक खोलें 
उसमें थे बंद कुछ पल रजनीगंधा से ...

🌟

  शिकायत ख़ुद से भी अनजान हुई 



खुद से खुद की जब पहचान हुई

ज़िंदगी फ़ज़्र की ज्यों अजान हुई 


जिन्हें गुरेज था चंद मुलाक़ातों से 

गहरी हरेक से जान-पहचान हुई 

🌟

रावण

हममें रावण

तुममे रावण

हम सब में 

रावण रावण


ऊपर रावण

नीचे रावण

क्षितिज क्षितिज

🌟

सुनो स्त्री

#सुनो_स्त्री

#दुर्गा पूजा पंडालों में

बजते घंटे, घड़ियाल

आरती की गूंज

धूप, दीप, नौवेद्य

अछत, अलता

🌟

।। इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...