।।प्रातः वंदन।।
देखे हैं कितने तारा-दल
सलिल-पलक के चञ्चल-चञ्चल,
निविड़ निशा में वन-कुन्तल-तल
फूलों की गन्ध से बसे !
उषाकाल सागर के कूल से
उगता रवि देखा है भूल से;
संध्या को गिरि के पदमूल से
देखा भी क्या दबके-दबके..!!
~ सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
प्रस्तुतिकरण को आगे बढ़ाते हुए आज बात कुछ इस तरह के स्याही के बूंटो से ✍️
आओ मौसम की पहली बारिश में ज़िंदगी ढूँढे
🌟
खुद से खुद की जब पहचान हुई
ज़िंदगी फ़ज़्र की ज्यों अजान हुई
जिन्हें गुरेज था चंद मुलाक़ातों से
गहरी हरेक से जान-पहचान हुई
🌟
रावण
हममें रावण
तुममे रावण
हम सब में
रावण रावण
ऊपर रावण
नीचे रावण
क्षितिज क्षितिज
🌟
#दुर्गा पूजा पंडालों में
बजते घंटे, घड़ियाल
आरती की गूंज
धूप, दीप, नौवेद्य
अछत, अलता
🌟
।। इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंशानदार अंक
आभार
सादर
सुप्रभात ! निराला की काव्य प्रतिभा का आनंद देती सुंदर प्रस्तुति, आभार पम्मी जी !
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