निवेदन।


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रविवार, 28 फ़रवरी 2021

2053....गीत "गाता है ऋतुराज तराने"...

जय मां हाटेशवरी......
सादर अभिवादन......
रात नहीं ख्वाब बदलता है,
मंजिल नहीं कारवाँ बदलता है;
जज्बा रखो जीतने का क्यूंकि,
किस्मत बदले न बदले ,
पर वक्त जरुर बदलता है 
 अब पेश है......मेरी पसंद.......

नेह कली मुरझाती है।
मंथन मन का करते-करते
गरल हाथ में आया है
पीकर प्यास बुझेगी कैसे
हृदय बहुत घबराया है
झोली भरकर कंटक पाए
नेह कली मुरझाती है
प्रीत दामिनी सी मन में तब
कड़क-कड़क गिर जाती है।

हमारा शरीर और ग्रहों का वास
सूर्य के तेज का उजाला जब
चंद्रमा पर पड़ता है,तब इंसान
की शक्ति,ओज,वीरता चमकती है।
ये गुण चिंतन की प्रखरता से ही
निखरते हैं।
गरुड़ पुराण के अनुसार मंगल
का स्थान मानव के नेत्रों में माना

सफर
ओस से भीगी टेबिल, कुर्सियां जो रात भर गपशप में बाहर रहकर चांदनी की
सिसकियों में डुबकी लगाती रही हो ...
अखबार के पन्नों पर नहीं आ पाने वाली बेखौफ़ खबरों की आज़ाद हँसी ...
कोयले के देह को छूती लहराती लिपटने को आतुर नारंगी लौ ...
 मेरी मुक्ति ने अभी नवयौवना का रूप लिया भर ....

गुलमोहर                        
आज और कल की
दहलीज़ पर
मन कैसा सा हो गया है
चिंतन-मनन का पलड़ा
पेंडलुम सा बन गया है
अच्छा है तुम…,तुम हो
अपनी ही किये जा रहे हो
किसके प्रेम में हो गुलमोहर
बड़े इठला रहे हो 

हर वक्त जब यूं #मुस्कुराकर चले जाते हो !
ठहरा भी करो कभी पल दो पल,
गुफ्तगू हो जाये कुछ तो अगर , 
मिल जाये दिल को कोई डगर ,
पता नहीं  दिलों  की सदा को कब समझ पाते हो ।

"गाता है ऋतुराज तराने"... डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ 
नीड़ बनाने को पक्षीगण,तिनके चुन-चुनकर लाते,
लटके गुच्छे अंगूरों के, सबके मन को भरमाते,

कल-कल, छल-छल का स्वर भाता गंगा जी की धार का।
गाता है ऋतुराज तराने, बहती हुई बयार का।।
 धन्यवाद।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

2052... नमक


हाज़िर हूँ....
उपस्थिति स्वीकार हो...

नमक हलाल होना

नमक का हक अदा करना

नमक मिर्च लगाना

नमक हराम होना

जले पर नमक छिड़कना

घाव पर नमक छिड़कना

क्या सही या क्या गलत

क्या तुम ही स्वयं बता पाओगे 

नमक

जेब से रूमाल निकालकर उन्होंने कुर्सी को झाड़ा और बोले, “बैठिए।” सफ़िया ने पुडि़या और बैग को मेज पर रख दिया। बाहर की तरफ़ झाँककर उन्होंने एक पुलिस वाले को इशारा किया। सफ़िया के पैर तले की जमीन खिसकने लगी-अब क्या होगा!

“दो चाय लाओ, अच्छी वाली।” पुलिसवाला सफ़िया को घूरता हुआ चला गया। फिर उन्होंने मेज की दराज खींची और उसमें अंदर दूर तक हाथ डालकर एक किताब निकाली। किताब को सफ़िया के सामने रखकर उन्होंने पहला सफ़ा खोल दिया। बाईं ओर नजरुल इस्लाम की तसवीर थी और टाइटल वाले सफ़े पर अंग्रेजी के कुछ धुँधले शब्द थे-“शमसुल इसलाम की तरफ़ से सुनील दास गुप्त को प्यार के साथ, ढाका 1946”

  नमक 

सविनय अवज्ञा आंदोलन आरम्भ करने से पूर्व गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार से  2 मार्च 1930 को वायसराय को पत्र लिखकर समझौता करने का भी प्रयास किया। परंतु उनका प्रयास असफल रहा । इसके पूर्व 30 जनवरी 1930 को अपने पत्र में यंग इंडिया द्वारा पूर्ण शराबबंदी, राजनैतिक बंदियों की मुक्ति,  सैन्य व्यय में 50 प्रतिशत की कमी , सिविल सेवा के अधिकारियों के वेतन में कमी , शस्त्र कानून में सुधार, गुप्तचर व्यवस्था में परिवर्तन, रुपया स्टर्लिंग की दरों में कमी , विदेशी वस्त्र आयात पर प्रतिबंध , भारतीय समुद्र तट सिर्फ भारतीयों के लिए सुरक्षित, भूराजस्व में कमी तथा नमक कर की समाप्ति जैसी 11 मागें वायसराय इरविन के समक्ष रखी ।

  भोर के उत्सव

गाँव बैठा शहर के

द्वारे पसारे हाथ

लौट आयेंगे कभी वो

जिनने छोड़ा साथ

आस कोमल-सी निगलता स्वार्थ का दानव

नून

मैं, मेरा औ मेरे अपने,

इनके बाहर निकल न पाया.

दूजे के पतझर पर ही क्यों,

अपने उपवन को हरियाया.

ये दिमाग तो जीत गया पर,

मेरे मन की हार हो गयी.

व्यंग्य किसान और जवान

आचार्य रामभरोसे का कहना है कि सुरक्षा बलों का मनोबल बना रहना बहुत जरूरी है। चाहे वे सीमा पर लड़ने वाले सैनिक हों या आंतरिक सुरक्षा वाली, पुलिस, सीआरपी, बीएसएफ, आरपीएफ, हो या औद्योगिक सुरक्षा बल हों। सरकार जानती है कि सीमा की सुरक्षा से आंतरिक सुरक्षा बहुत जरूरी है। जनता का असंतोष आसमान छू रहा है। पता नहीं वह थैला उठा कर मेहुल भाइयों के पास पहुंचने भी देगी या नहीं।

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पुन: भेंट होगी...

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शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

2051 ...काग़ज़ की नाव बना हमने सागर मथ डाला है

शुक्रवारीय अंक में 

आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।

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बरसभर की टकटकी के बाद
लौटते हैं मौसम
सर्दियों की पहली आहट पर
सिहरते सपने जाग कर चौखट को 
बुहारते हैं पलकों से 
पर रजाई,कंबल से अकबकाया
दुशाले ,अलाव की थामे गर्माहट
समय पहाड़ की
ढलान पर हो खड़ा मानो
चार दिन में मैदानों से
लुढ़कती सर्दी और
इकदिवसीय त्योहार-सा 
पलक झपकते उड़न छू मधुमास,
मनुष्य के मन के मौसम की तरह
प्रतिबिंबित होने लगा है 
प्रकृति का अनमना व्यवहार
शायद...
सृष्टि कूटभाषा में
कर रही हमें सचेत ,
कुछ दे रही संकेत ।

#श्वेता सिन्हा

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आइये आज की रचनाएं पढ़ते हैं-

वह

जिंदगी फूल सी महका करे दिन-रात 

कितनी तरकीब से सामान जुटाता है  


न कमी रहे न कोई कामना अधूरी 

बिन कहे राह से हर विरोध हटाता है 

 हकीकतों ने पाला है


हम पले बरखा की फुहारों में ।
झीलों तालाबों नदियों किनारों ,
समुद्री तूफ़ानों और मँझधारों में  ।।
काग़ज़ की नाव बना हमने सागर मथ डाला है 
सच हमें हक़ीक़तों ने पाला है..

रंगों 

की पीढ़ी 

उम्र 

से पहले

उन्हें ओढ़कर 

सतरंगी आकाश 

पर टांकने लगती है

कोरे जज्बाती 

सपने।


जब होती तारीफ़ हमारी 
अहम् साथ भी लाता है 
पर जब कोई ढूंढ-ढूंढ कर 
नए नुक्श बतलाता है
फिर पानी की भांति निर्मल 
करके हमें वह जाता है 

कैसे  मधुरिम थे वो सब दिन ,
कितनी प्यारी सी सखियाँ थीं |
कैसे चिंता रहित विचरते , 
हर पग पर बिखरी खुशियाँ थीं |
कभी खेलते आँख मिचोनी ,
गुड़ियों की हम शादी करते |
झूठ मूठ के व्यंजन रच कर ,
सबसे आ खाने को कहते |


मुख कलियों का चूम रहा है
कौन हीन है कौन श्रेष्ठ है
संग सभी के झूम रहा है.
भवन-भवन में मगन-मगन में

फ़िलहाल हम बात कर रहे हैं "लोहा सिंह" जी उर्फ़ "रामेश्वर सिंह 'कश्यप'" जी की , तो ये जान कर अचरज लग सकता है आपको कि उन्होंने अपनी अकूत लोकप्रियता हासिल करने वाली नाटक-श्रृंखला "लोहा सिंह" के मुख्य पात्र "लोहा सिंह" की भाव भंगिमा और बोलने की शैली की प्रेरणा अपने पिता के एक नौकर के अवकाश-प्राप्त फौजी भाई की गलत-सलत अंग्रेजी , हिन्दी और भोजपुरी मिला कर एक नयी भाषा बोलने की शैली से मिली थी क्योंकि उन फ़ौजी सज्जन के इस तरह बोलने से गाँव वालों पर इसका बड़ा रोबदार असर पड़ता था। मतलब .. लोग बहुत प्रभावित होते थे। 
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आज बस इतना ही
कल मिलिए विभा दीदी से







गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

2050...क्योंकि वह अपनी प्रजा को ही खा जाता है...

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में आपका स्वागत है।

 

एक हिंसक जीव 

शेर को

जंगल का

बहादुर राजा कहा जाता है,

क्योंकि 

वह अपनी प्रजा को ही खा जाता है।

#रवीन्द्र-सिंह-यादव 

 

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-

चित्रकार... उर्मिला सिंह

प्रज्ञाचक्षु खुलने से पहले

तृष्णा के मरुस्थल में घुमाते हो तुम

अनगिनत कामनाओं के शूल

ह्रदय की वादियों मे उगाते हो तुम

शूलों की सेज सजाओ या बचाओ तुम

तेरे हाथों से बनी तेरी तस्वीर हैं हम।।


हम नई कहानी सबको पेलते रहे ...दिगंबर नासवा

 मेरी फ़ोटो

हार तय थी दिल नहीं था मानता मगर.
उनकी इक नज़र पे दाव खेलते रहे.
 
चिंदी चिंदी खत हवा के नाम कर दिया,
इस तरह से दिल वो मेरा छेड़ते रहे.

 

कौए... ओंकार


मैं बुलाता हूँ उन्हें

कटोरी में पकवान रखकर,

इंतज़ार करता हूँ उनका,

पर वे आते ही नहीं,

दूर से देखते रहते हैं.

 

अविवाहिता ... अपर्णा बाजपेई 


चाय की कप के लिए मधुर पुकार ने

उसे इश्क़ के समंदर से खींच लिया था...

उम्र के ज्वर से कांपते शरीर

अम्बर में टंके चाँद से ज्यादा कीमती थे...

कुबूल है बोलने की जगह

 

ऋतु वसंत... अनीता सैनी 'दीप्ति'


कली कुसुम की बाँध कलंगी

रंग कसूमल भर लाई है

वन-उपवन सजीं बल्लरियाँ

ऋतु वसंत ज्यों बौराई है।।

 

चलते-चलते पुस्तक-चर्चा वीडियो ब्लॉग के ज़रिये-

कासे कहूँ- समीक्षा डॉ प्रोफेसर उषा सिन्हा... विश्वमोहन


*****

आज बस यहीं तक 

फिर मिलेंगे अगले गुरूवार।

रवीन्द्र सिंह यादव

 

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