हम कौन थे क्या हो गए हैं र क्या होंगे अभी
आओ बिचारें आज मिल कर
ये समस्याएं सभी।
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए - गोपालदास नीरज अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।
लेखिका की छोटी । बहिन श्यामा ने लेखिका को सुझाव दिया कि तुम इतने पशु - पक्षी पाला करती हो , एक गाय क्यों नहीं पाल लेती ? छोटी बहिन का उपयोगितावादी भाषण
सुन कर लेखिका प्रभावित हुई और गाय पालने का निश्चय कर लिया । गौरा गाय की वयः । संधि तक पहुँची हुई बछिया थी । गौरा के बंगले पर पहुँचते ही उसका परम्परा रूप
में स्वागत किया गया और उसका नामकरण हुआ गौरागिनी या गौरा । उसका । नामकरण उसके स्वरूप के अनुसार ही किया गया क्योंकि गौरा वास्तव में बहुत प्रियदर्शनी थी ।
बूढ़ी काकी
सारांश : वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया लेकिन मुंशी प्रेमचन्द की कहानी बूढ़ी काकी की काकी आज भी प्रासंगिक है। बुजुर्गों की बात चलती है तो प्रसिद्ध हिंदी
साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द की मार्मिक कहानी बूढ़ी काकी याद हो आती है। बुजुर्ग
को लोग नसीहत देते हैं। उनकी उपेक्षा करते हैं, अवहेलना करते हैं। मुंशी प्रेमचंद की कहानी बूढी काकी आज भी हमारे सामने आइने की तरह है।
जिस अमृतमय वाणी के
जड़ में जीवन जग जाता,
रुकता सुनकर वह कैसे ,
रसिकों का दल मदमाता;
आँखों के आगे पाकर
अपने जीवन का सपना,
हर एक उसे छूने को
आया निज कर फैलाता;
अंतरव्यथा(अमृता प्रीतम की कहानी) जब वह मिलने आई थी, बीमार थी। खूबसूरत थी, पर रंग और मन उतरा हुआ था। वह एक ही विश्वास को लेकर आई थी कि मैं उसके हालात पर एक कहानी लिख दूँ...
मैंने पूछा-इससे क्या होगा?
कहने लगी-जहाँ वह चिट्ठियाँ पडीं हैं जो मैं अपने हाथों से नहीं फाड सकती, उन्हीं चिट्ठियों में वह कहानी रख दूँगी...मुझे लगता है, मैं बहुत दिन जिंदा नहीं
रहूँगी, और बाद में जब उन चिट्ठियों से कोई कुछ जान पाएगा, तो मुझे वह नहीं समझेगा जो मैं हूँ। आप कहानी लिखेंगी तो वहीं रख दूँगी। हो सकता है, उसकी मदद से
कोई मुझे समझ ले मेरी पीडा को संभाल ले। मुझे और किसी का कुछ फिक्र नहीं है, पर मेरा एक बेटा है, अभी वह छोटा है, वह बडा होगा तो मैं सोचती हूँ कि बस वह मुझे
गलत न समझे...
उसकी जिंदगी के हालात सचमुच बहुत उलझे हुए थे और मेरी पकड में नहीं आ रहा था कि मैं उन्हें कैसे समेट पाऊँगी। लिखने का वादा तो नहीं किया पर कहा कि कोशिश करूँगी..
आज बस यहीं तक.......
अगले सप्ताह हम चर्चा करेंगे.....
आज जैसा कि शीर्षक दिया गया है कि आज की चर्चा गद्य विधा को समर्पित है ..... गद्य में भी अनेक विधाएँ होती हैं ......कहानी , लघु कथा , व्यंग्य , लेख ...संस्मरण .... ........ आज इन सबका कुछ मिला जुला रूप प्रस्तुत करने का प्रयास है ...... कुछ ले पाई हूँ .....कुछ फिर कभी ..... हमारे पुराने साथी अभी तक ब्लॉग को आबाद किये हुए हैं और एक से बढ़ कर एक पोस्ट लगाते हैं .... जानकारी युक्त होती हैं सभी पोस्ट .... और नए साथी ब्लॉगर भी ब्लॉग की दुनिया को चाक चौबंद किये हुए हैं ....
बहुत बार मैंने अपने पुराने साथियों को प्रत्यक्ष और कभी अप्रत्यक्ष रूप से सुझाव दिया कि पहले जैसी ब्लौगिंग नहीं होती तो कोई बात नहीं आप अपनी रचनाएँ तो ब्लॉग पर पोस्ट कर सकते हैं एक डायरी के रूप में ... लेकिन थोड़ी निराशा ही हाथ लगी ..... कहा तो कुछ नहीं लेकिन कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि बस यही कहने वाले कि पगला गयी हो क्या ?????????? आज कल कोई नहीं करता ब्लौगिंग . खैर अभी मनन चल ही रहा था कि ब्लॉग जगत के मार्गदर्शक की एक पोस्ट नज़र में आ गयी .....और सच्ची अब तो उसी पर अमल करने वाले हैं ...... कौन बेकार मुसीबत मोल ले ... समीर लाल जी सरल सी लगने वाली बातों से कहाँ तीर चला रहे हैं ये तो आप पढ़ कर ही जान पायेंगे ...
अब ज़रा सुझावों से हट कर एक प्रेरक कहानी की तरफ रुख मोड़ते हैं ..... जिनके मन में कुछ कर गुज़रने की ललक होती है वो विषम परिस्थितियों में भी सफलता के सोपान चढ़ते हैं .....सुधा देवरानी जी की कहानी यही कहती है ....
मिठाई का डिब्बा मेरी तरफ बढाते हुए वह मुस्कुरा कर बोली "नमस्ते मैडम जी !मुँह मीठा कीजिए" मैं मिठाई उठाते हुए उसकी तरफ देखकर सोचने लगी ये आवाज तो मंदिरा की है परन्तु चेहरा......नहीं नहीं वह तो अपना मुंह दुपट्टे से छिपा कर रखती है ....नहीं पहचाना मैडम जी... मैं मंदिरा......मंदिरा तुम .
कहानी पढ़ कर लगा न कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती ....
चलिए इस कहानी के बाद अब चर्चा कर लेते हैं आज के समय की...... आज का समय यानि कि कोरोना काल ..... जी अभी ये खतरा टला नहीं है ...... भले ही वैक्सीन लग चुके हैं या लग रहे हैं .....
उम्मीद थी कि जल्दी ही निज़ात मिल जाएगी लेकिन ऐसा है नहीं ..... हमारी एक ब्लॉगर साथी ने एक वर्ष पहले ही इस पर चिंतन मनन कर अपने विचार रखे थे और कहा था कि हमें इसके साथ ही जीना होगा ..... पढ़िए ब्लॉगर रेणु के विचार ....
अचानक ये क्या हुआ कि जिन्दगी का पहिया एकदम थम गया --! गली - कूचे वीरान , सड़कें खाली और हर कोई अपने घर में कैद ! कुछ समय के लिए तो लोगबाग़ -इस तरह जिन्दगी की रफ़्तार पर लगे इस विराम पर स्तब्ध रह गये !पर बाद में लगा - ये खालीपन अपने साथ एक ऐसा सुकून भी जीवन में ले आया है , जहाँ ना मजबूरीवश कहीं भागने की अफ़रातफ़री है , ना किसी दौड़ में आगे आने की जद्दोजहद | यहाँ चिंता और चिंतन बस एक बिंदू पर ठहरे हैं -- अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा ! जो परिवार सालों से एक दूसरे के साथ मिल बैठ नहीं पाए थे-- उन्होंने साथ मिलजुल कर यादों की अनमोल पूंजी आपस में बाँटी .
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काल कोई भी हो लेकिन जिसको लिखने पढने की इच्छा रहती है वो या तो पुस्तक पढ़ लेता है या फिर आज कल इंटरनेट पर बहुत सामग्री मिलती है -----कहानी , कविता , व्यंग्य .... जो मर्ज़ी आये वो पढ़ें ..... ऐसे ही कभी कभी कुछ कहानियाँ मिल जाती हैं .... मीना शर्मा जी की लिखी कहानी ..... दो भागों में ब्लॉग पर प्रकाशित है ......
क्षिप्रा की हरियाली घाटियों के बीच बसा हुआ था एक छोटा सा खूबसूरत गाँव – रुद्रपुर । गाँव के पास से बहती हुई क्षिप्रा अल्हड़ बालिका के समान उछलती कूदती नहीं थी बल्कि शांत – सुघड़ नवयौवना सी मंद-मंथर चाल से बहती जाती थी । इसी सुंदर सरिता तट पर दूर - दूर तक फैले हरे भरे खेत, उसके बाद आम की सघन अमराई और अमराई से लगकर था ग्रामदेवी का सुंदर मंदिर।
उम्मीद है कहानी पढ़ ली होगी ....... चलिए अब आपको एक ऐसा संस्मरण पढवाते हैं जिसे पढ़ कर मुस्कराहट तो ज़रूर आएगी ....... रायटोक्रेट कुमारेन्द्र जी सुना रहे हैं किस्सा .... ओह सुना नहीं रहे पढ़ा रहे हैं ....
हाल्ट, हुकुम सर देयर. फंडर फ़ो. इस वाक्य से आपमें से संभव है कि बहुत से लोगों का पाला पड़ा हो और बहुत से लोगों का नहीं भी पड़ा होगा. बहुत से लोगों से ऐसे वाक्य का सामना प्रत्यक्ष रूप से किया होगा और बहुत से लोग ऐसे होंगे जिन्होंने ऐसे लोगों की जुबानी ही इस वाक्य से परिचय पाया होगा. हम भी उन्हीं लोगों में से हैं जिन्होंने इस वाक्य का परिचय अपने बाबा जी से प्राप्त किया है.
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अब इस संस्मरण से थोडा बाहर आईये और देखिये अपने अस पास क्या क्या होता रहता है .......कुछ अनुभव और कल्पनाओं को बन कर रची जाती हैं कहानियाँ ...... वाणी जी का यही कहना है ....
चाय बना लाती हूँ - कहती माला रसोई जाने केे लिए मुड़ी तो विद्या भी उसके साथ हो ली यह कहते हुए कि मैं भाभी की मदद करती हूँ.
आपके पापा के बारे में सुना था तबसे ही आपसे मिलने का मन हो रहा था. कैसे क्या हो गया था! चाय की पतीली गैस पर रखते माला भीगी पलकों से सब बताती रही. बहुत बुरा हुआ लेकिन पीछे रह जाने वालों को हिम्मत रखनी पड़ती है. चाय विद्या ने ही कप में छानी. बिस्किट, नमकीन करीने से प्लेट में रखते हुए माला फिर से सुबक पड़ी.
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क्या खोज रहे क्या पाया ये तो पता नहीं ....... बस इतना पता कि कोई भी दौर हो ....... हमेशा यही सुनते रहे कि बहुत मंहगाई है ........ कभी मंहगाई कम ही नहीं रही ..... गिरीश पंकज जी इस मंहगाई के कमर तोड़ आसन सिखा रहे हैं ...... एक नज़र इस योग पर भी .....
इस देश में अगर योग के लिए प्रेरणा देने का काम किसी ने किया है तो वो है परमप्रिय महंगाई-सुंदरी.
इसे डायन कहना ठीक नहीं. डायन बर्बाद करती है, ये सुंदरी आबाद करती है. जनता और महंगाई-बाला दोनों अपने-अपने तरीके से योगासन कर रहे हैं. महंगाई के कारण लोग 'शीर्षासन' करने पर मजबूर है.
योग की सारी मुद्राएं करती है महंगाई. 'अनुलोम-विलोम' उसे बड़ा प्रिय है. साँस खींचती है यानी कीमत बढ़ाती है,और कभी-कभार साँस छोड़ती भी है.
और आज की चर्चा की अंतिम कड़ी ...... इंटरनेट की दुनिया का एक ज्वलंत मुद्दा ..... हांलांकि इस पर बहुत लोगों ने अपने विचार रखे ...... फिर भी यदि और लोग भी इस पर कुछ कहें तो विचारणीय होगा .... कामिनी सिन्हा जी ने उठाये प्रश्न और दिए अपने विचार ....
वैसे तो, सामान्य जीवन में रिश्तों का बहुत महत्व है, अनमोल होते हैं ये रिश्ते। सच्चे और दिल से जुड़े रिश्ते कभी चुभते नहीं...वो हार बनकर भी गले की शोभा ही बढ़ाते हैं। ये गीत तो आज कल के युग की एक खास रिश्ते को बाखुबी परिभाषित कर रहा है वो रिश्ते हैं "आभासी दुनिया के रिश्ते" जो आजकल समाज में यथार्थ रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण जगह बना चुका है। सोशल मीडिया के नाम से प्रचलित अनेकों ठिकाने हैं जहाँ ये रिश्ते बड़ी आसानी से जुड़ रहें हैं और हवाई पींगे भर रहें हैं "फल-फूल भी रहें हैं" ये कहना अटपटा लग रहा है क्योंकि वैसे तो हालात कही भी नजर नहीं आ रहें हैं।
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अचानक ही दिग्विजय साहब का कथन याद आ गया ........ आज सोमवार है और सप्ताह का पहला दिन ज्यादा व्यस्तता लिए हुए .... खैर अब तो लगा दिए लिंक ...... धीरे धीरे पढ़ लीजियेगा .....
आप सभी पाठकों की प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा ...... अपना ख्याल रखें ...... स्वस्थ रहें ....
वास्तव में हमें शरीर की नैसर्गिक क्रिया में रूकावट डालने वाली किसी भी चीज से बचना चाहिए। विशेषज्ञों के अनुसार एकाध बार बहुत ही जरूरी वजह से गोली ली जा सकती है लेकिन किसी भी हालात में डॉक्टर की सलाह के बिना ये गोली नहीं लेनी चाहिए।
उजालों की खातिर,अंधेरों से गुज़रना होगा उदास हैं पन्ने,रंग मुस्कुराहट का भरना होगा। उफ़नते समुंदर के शोर से कब तक डरोगे चाहिये सच्चे मोती तो लहरों में उतरना होगा।
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आइए आज की रचनाएं पढ़ते हैं
आज की पहली रचना के लेखक के शब्दों में-
सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना करने वाले कबीर की भोजपुरी आज स्वयं अश्लीलता और गंदगी का शिकार बन गयी है। भोजपुरी गाने और फिल्मों के संवाद कुरूप और बदरंग होते जा रहे हैं। इन कुसंस्कारों और विसंगतियों से त्राण पाने हेतु यह भाषा छटपटा रही है।
हर सकारात्मक पहल पर विचार के साथ क्रियान्वयन पर सहयोग भी आवश्यक है-
प्रथम रचना सदैव विशेष होती है और बात जब प्रादेशिक भाषा में गढ़ी गयी कृति की हो तो मिठास द्विगुणित हो जाती है। लेखिका को अशेष शुभकामनाएँ आपकी उपलब्धि की उड़ान
घिंघुड़ी(गौरेया) की तरह साहित्यिक नभ में विशिष्ट हो यही कामना है।
छज्जे में फँसे हैं तेरे घोंसले पुराने
कैसे हो गये हम सब तेरे लिए विराने
आजा गौरैया! सता न तू!
बोल गौरैया ! कहाँ गयी तू !!
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काश कि रिश्तों को रफू करने का हुनर भी अभिमान सीख जाता बहुत खूबसूरत लगते फिर तो उधड़े हुए दर्द पर मुस्कुराहटों के फाहे और विश्वास के धागों से गूँथे पैबंद
रफ़ू कर फ़िर सी लूँ उन रिश्तों को l
तार तार कर गयी वो जिन रिश्तों को ll
चुभ रही एक कसक ज़िस्म कोने में l
छलनी हो रही अंगुलियाँ इन्हें सिने में ll
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देखनी है दिलों में, ख़ुशी अपनों की, मिट सकें रंजिशें तो, मिटा कर के देख़ । सचमुच बोलती हैं गज़लें
मौसम के बदलाव पर लेखक की चिंतनीय विचार बारिश की बूँदों की तरह पारदर्शी और बादल की उमस की तरह पर्यावरण के बदलते व्यवहार पर मौसम के राग पर आधारित है बूँदों की सरगम
ग्लोबल वार्मिंग'' बढ़ रही है ! यह डर की बात तो है ही और ऐसा लग भी रहा है कि मानसून, जो सदियों से भारत पर सहृदय, दयाल और मेहरबान रहता आया है, वह आने वाले वक्त में अपना समय और दिशा बदल सकता है। उससे हमारे विशाल कृषि प्रधान देश को कितनी समस्याओं का सामना करना पडेगा उसका अंदाज लगाना भी मुश्किल है ! ऐसा न हो कि प्रकृति का यह अनुपम, अनमोल तोहफा, राग पावस और बूँदों की सरगम की मधुर ध्वनि किसी कंप्यूटर की डिस्क में ही सिमट कर रह जाए !
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और चलते-चलते
कुछ खास एहसास की भीनी खुशबू मन की दीवारों को छूती रहती हैं, गूँजती रहती है श्वासों की लय में पवित्र प्रार्थनाओं की तरह, सहेजी जाती हैं ताउम्र
मौलिक तो केवल ईश्वर है। कविता के सन्दर्भ में मौलिक होना अलग बात है। कविता के दो पक्ष हैं भाव पक्ष और कला पक्ष। कोई कवि अपने अनुभवजन्य हृदयोदगारों को अपने ढंग से प्रस्तुत करता है तो वह मौलिक ही माना जाता है। नये बिम्ब व नवीन उदाहरण का प्रयोग भी मौलिकता की श्रेणी में आता है।
कोशिश बहुत की मगर ये रात ख़िसक जाती है चेहरे पे उसकी उदासी जब भी आती है मेरी तमन्नायें यूँ ही सुलग जाती है..
बच्चे प्यारे फूल कमल के छू लेंगे आकाश उछल के तोड़ रहे जो पत्थर पथ पर सपने उनके नहीं महल के समसामयिक आलेख... हाल ही में एक बिलकुल अलग किस्म का अनोखा सर्वे यह पता लगाने के लिए किया गया कि भारत में राजनीति के धंधेबाज़ों में से किसकी बीनाई सबसे तेज़ है। पता चला ममताबाड़ी की कल्लो बंगालिन बाईनोकुलर विजन
यूँ भी किसी के पूछे जाने की किसी के चाहे जाने की किसी के कद्र किए जाने की
चाह में औरतें प्राय: मरी जा रही हैं किचिन में, आँगन में, दालानों में...
आज की पेशकश के साथ हम तो यहीं थमते है...फिर मिलेंगे