निवेदन।


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बुधवार, 30 जून 2021

3075..लोग आहिस्ता बदलने लगे हैं..

 ।। उषा स्वस्ति।।


बादलों से कहो बेरुखी ना करें।

हो सके तो तुरत गांव का रुख करें!


जल रही है धरा, जल रहा आस्मां

दूर तक है नहीं जल का नामोनिशां

कोई राही नहीं, कोई रस्ता नहीं

प्यास का कोई ठीहा भी दिखता नहीं..!!

ओम निश्चल



मौसमों का लुका छिपी तो चलता ही रहता  है पर बहुत जरुरी है समय पर बूंदों की स्पंदन की,तो समय के बहाव के साथ लिजिए  लिंकों का आनंद ब्लॉग मंथन से..✍️

जी करता है  किसी से आज मिल करके देखें,

अपनों से दिल की बात हम करके देखें ।

खैर न खबर उनकी बीते जमाने से,

जा कर उन्हीं के पास हैरान करके देखें..

❄️❄️

दोस्त जो चले गए

कोरोना ने कितनी जिंदगियां छीन ली
मेरे मोबाइल में जाने कितने नंबर 
अब ऐसे ही पड़े हैं 
जिनको डिलीट करू या रहने दु 
समझ नही पा रहा हूँ
जिन नंबरों से रोज़ आया करते थे
कभी सलाम कभी दुआ 
जाने अब क्या उन्हें हुआ
न उधर से कोई जवाब आता है

❄️❄️



पुरातन अभिलेख देते हैं दस्तक, विलुप्त

दरवाज़ों का मिलता नहीं कोई भी
नामोनिशान, वही सीलन
भरी ज़िन्दगी, झूलते
हुए चमगादड़ों
की तरह
भीड़
भरी सांध्य लोकल लौट आती है कच्चे
रास्तों से हो कर सुबह

❄️❄️



जब सुख संध्या घिर आती है

अनुराग-राग बरसाती है

जब सुख संध्या घिर आती है....

सूर्य किरण ढल जाती थककर

सांझ स्नेह बरसाती सजकर


❄️❄️



ब्लॉग अडिग शब्दों का पहरा  की प्रस्तुति के साथ आज की पेशकश यहीं तक..


मेरे मुल्क के लोग आहिस्ता बदलने लगे हैं
जब से वे घर छोड़ मकानों में रहने लगे हैं। 

घर, धाम था, देवस्थान था जहाँ प्रीत बसती थी
मकानों में रुतवा रुस्तम दर्प ठहरने लगे हैं। 

थालियों से कोर लेनदेन का अप्रमेय नेह था घर में
मकानो की मेजों पर कोर एकला अकेले होने 
❄️❄️

।। इति शम ।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️

मंगलवार, 29 जून 2021

3074.....अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।

जय मां हाटेशवरी...... 
सादर अभिवादन..... 
हमारे कुछ ब्लॉगर साथियों ने...... 
हिंदी साहित्य की अमर रचनाओं को..... 
ब्लॉगों पर संकलित किया है...... 

आज की चर्चा में...... 
उन्ही ब्लॉगों से...कुछ रचनाएं..... 

 हम कौन थे क्या हो गए हैं र क्या होंगे अभी आओ बिचारें आज मिल कर ये समस्याएं सभी। 

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए - गोपालदास नीरज
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए। 
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए। 
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।  

लौटा लो यह अपनी थाती 
मेरी करुणा हा-हा खाती विश्व ! 
न सँभलेगी यह मुझसे 
इसने मन की लाज गँवाई 

लेखिका की छोटी । बहिन श्यामा ने लेखिका को सुझाव दिया कि तुम इतने पशु - पक्षी पाला करती हो , एक गाय क्यों नहीं पाल लेती ? छोटी बहिन का उपयोगितावादी भाषण सुन कर लेखिका प्रभावित हुई और गाय पालने का निश्चय कर लिया । गौरा गाय की वयः । संधि तक पहुँची हुई बछिया थी । गौरा के बंगले पर पहुँचते ही उसका परम्परा रूप में स्वागत किया गया और उसका नामकरण हुआ गौरागिनी या गौरा । उसका । नामकरण उसके स्वरूप के अनुसार ही किया गया क्योंकि गौरा वास्तव में बहुत प्रियदर्शनी थी । 

 बूढ़ी काकी सारांश  : वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया लेकिन मुंशी प्रेमचन्द की कहानी बूढ़ी काकी की काकी आज भी प्रासंगिक है। बुजुर्गों की बात चलती है तो प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द की मार्मिक कहानी बूढ़ी काकी याद हो आती है। बुजुर्ग        को लोग नसीहत देते हैं। उनकी उपेक्षा करते हैं, अवहेलना करते हैं। मुंशी प्रेमचंद की कहानी बूढी काकी आज भी हमारे सामने आइने की तरह है। 

जिस अमृतमय वाणी के
जड़ में जीवन जग जाता,
रुकता सुनकर वह कैसे ,
रसिकों का दल मदमाता; 
           
आँखों के आगे पाकर            
अपने जीवन का सपना,
हर एक उसे छूने को आया
निज कर फैलाता;           

अंतरव्यथा(अमृता प्रीतम की कहानी)
जब वह मिलने आई थी, बीमार थी। खूबसूरत थी, पर रंग और मन उतरा हुआ था। वह एक ही विश्वास को लेकर आई थी कि मैं उसके हालात पर एक कहानी लिख दूँ... मैंने पूछा-इससे क्या होगा? कहने लगी-जहाँ वह चिट्ठियाँ पडीं हैं जो मैं अपने हाथों से नहीं फाड सकती, उन्हीं चिट्ठियों में वह कहानी रख दूँगी...मुझे लगता है, मैं बहुत दिन जिंदा नहीं रहूँगी, और बाद में जब उन चिट्ठियों से कोई कुछ जान पाएगा, तो मुझे वह नहीं समझेगा जो मैं हूँ। आप कहानी लिखेंगी तो वहीं रख दूँगी। हो सकता है, उसकी मदद से कोई मुझे समझ ले मेरी पीडा को संभाल ले। मुझे और किसी का कुछ फिक्र नहीं है, पर मेरा एक बेटा है, अभी वह छोटा है, वह बडा होगा तो मैं सोचती हूँ कि बस वह मुझे गलत न समझे... उसकी जिंदगी के हालात सचमुच बहुत उलझे हुए थे और मेरी पकड में नहीं आ रहा था कि मैं उन्हें कैसे समेट पाऊँगी। लिखने का वादा तो नहीं किया पर कहा कि कोशिश करूँगी..

आज बस यहीं तक....... अगले सप्ताह हम चर्चा करेंगे..... 
वैश्विक महामारी कोरोना पर..... 
रचनाएं निम्न प्रारूप के माध्यम से भेजें।

धन्यवाद।

सोमवार, 28 जून 2021

3073 -------- गद्य - विशेषांक / सुझाव देने का समय नहीं रहा अब

 आज जैसा कि  शीर्षक दिया गया है  कि  आज  की चर्चा  गद्य विधा को समर्पित है ..... गद्य में भी अनेक  विधाएँ होती हैं ......कहानी , लघु कथा  , व्यंग्य  , लेख ...संस्मरण .... ........ आज इन सबका कुछ मिला जुला रूप प्रस्तुत करने का प्रयास है ...... कुछ ले पाई हूँ  .....कुछ फिर कभी .....  हमारे पुराने साथी अभी तक ब्लॉग को आबाद किये हुए हैं और एक से बढ़ कर एक पोस्ट  लगाते  हैं .... जानकारी  युक्त होती हैं सभी पोस्ट .... और नए साथी ब्लॉगर भी ब्लॉग की   दुनिया को  चाक चौबंद  किये हुए हैं .... 

बहुत बार  मैंने अपने पुराने साथियों को प्रत्यक्ष  और कभी अप्रत्यक्ष रूप से सुझाव दिया कि  पहले जैसी  ब्लौगिंग    नहीं होती तो कोई बात नहीं आप अपनी रचनाएँ तो ब्लॉग पर पोस्ट कर सकते हैं एक डायरी के रूप में ... लेकिन थोड़ी निराशा ही हाथ लगी ..... कहा तो कुछ नहीं लेकिन  कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि बस यही कहने वाले कि पगला गयी हो क्या ??????????  आज कल कोई नहीं करता ब्लौगिंग  . खैर अभी मनन चल ही रहा था कि  ब्लॉग जगत के मार्गदर्शक  की  एक पोस्ट नज़र में आ गयी .....और सच्ची अब तो उसी पर अमल  करने वाले हैं ...... कौन बेकार  मुसीबत मोल ले ...  समीर लाल जी सरल सी लगने वाली बातों से कहाँ  तीर चला रहे हैं ये तो आप पढ़ कर ही जान पायेंगे ... 



सुझाव देने का समय नहीं रहा अब


शाम टहलने निकला था. सामने से आती महिला के कारण तो नहीं मगर उसके साथ पतले से धागेनुमा

 किसी डोरी में बँधे बड़े से खुँखार दिखने वाले कुत्ते के कारण वॉक वे छोड़ कर किनारे घास पर डर

 कर खड़ा हो गया.

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वैसे सच्ची बात तो ये है कि  हर जगह और हर तरह के लोग हर तरह के सुझाव देते नज़र आते हैं

 .....बसआपको खुद तय करना है कि किसका सुझाव मानना  है या  अनसुना कर देना है .. अमित जी

 भी लाये हैं  एक सुझाव . ....... इसको तो शायद  मान  लेने में ही भलाई है ....


बड़ी साधारण सी बात है कि,लोग गैस के चूल्हे को लाइटर से जलाते हैं और माचिस का प्रयोग लगभग नहीं ही करते हैं | जो कि पूरी तरह से गलत है |
बस इत्ती सी बात है कहते हुए अमित जी ने  किस किस को लपेट लिया है आप भी पढ़िए ....

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अब ज़रा सुझावों से हट कर एक प्रेरक कहानी  की तरफ रुख  मोड़ते  हैं ..... जिनके मन में कुछ कर गुज़रने की ललक होती है वो विषम परिस्थितियों में भी सफलता के सोपान  चढ़ते हैं .....सुधा देवरानी जी  की कहानी यही कहती है .... 



"एक सफलता ऐसी भी"


मिठाई का डिब्बा मेरी तरफ बढाते हुए वह मुस्कुरा कर बोली  "नमस्ते मैडम जी !मुँह मीठा कीजिए" मैं मिठाई उठाते हुए उसकी तरफ देखकर सोचने लगी ये आवाज तो मंदिरा की है परन्तु चेहरा......नहीं नहीं वह तो अपना मुंह दुपट्टे से छिपा कर रखती है ....नहीं पहचाना मैडम जी... मैं मंदिरा......मंदिरा तुम . 


कहानी पढ़ कर लगा न कि कोशिश करने वालों  की हार नहीं होती ....

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चलिए इस कहानी के बाद अब चर्चा कर लेते हैं  आज के समय  की...... आज का समय यानि कि कोरोना काल ..... जी अभी ये खतरा टला नहीं है ...... भले ही वैक्सीन  लग चुके हैं या लग रहे हैं .....  
उम्मीद थी कि जल्दी ही  निज़ात मिल जाएगी  लेकिन ऐसा है नहीं ..... हमारी एक ब्लॉगर साथी ने एक वर्ष पहले ही इस पर चिंतन मनन कर अपने विचार रखे थे और कहा था कि हमें इसके साथ ही जीना होगा ..... पढ़िए ब्लॉगर रेणु के विचार .... 


ये ठहराव जरूरी था- कोरोना काल पर चिंतन 


अचानक ये क्या हुआ कि जिन्दगी  का पहिया एकदम थम गया  --!  गली - कूचे  वीरान  ,  सड़कें खाली   और हर कोई अपने घर में कैद  !  कुछ समय के लिए तो लोगबाग़ -इस तरह  जिन्दगी की  रफ़्तार पर लगे  इस विराम पर  स्तब्ध रह गये !पर बाद में लगा  -   ये खालीपन  अपने साथ  एक ऐसा सुकून भी  जीवन में  ले    आया है      ,  जहाँ  ना  मजबूरीवश   कहीं  भागने की  अफ़रातफ़री है  , ना किसी   दौड़ में आगे आने की जद्दोजहद | यहाँ चिंता और चिंतन बस एक    बिंदू पर ठहरे हैं --  अपनी  और अपने परिवार की सुरक्षा  ! जो परिवार  सालों से एक  दूसरे के  साथ   मिल बैठ नहीं पाए थे--  उन्होंने    साथ मिलजुल कर यादों की    अनमोल   पूंजी आपस में बाँटी . 

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काल कोई भी हो लेकिन जिसको लिखने पढने  की इच्छा रहती है वो या तो पुस्तक पढ़ लेता है या फिर आज कल इंटरनेट पर बहुत सामग्री मिलती है -----कहानी , कविता , व्यंग्य .... जो मर्ज़ी आये वो पढ़ें ..... ऐसे ही कभी कभी  कुछ कहानियाँ  मिल जाती हैं ....   मीना शर्मा जी की  लिखी कहानी ..... दो  भागों में ब्लॉग पर प्रकाशित है ......   


कमला (भाग - 1)

कमला (भाग - 2)



क्षिप्रा की हरियाली घाटियों के बीच बसा हुआ था एक छोटा सा खूबसूरत गाँव – रुद्रपुर । गाँव के पास से बहती हुई क्षिप्रा अल्हड़ बालिका के समान उछलती कूदती नहीं थी बल्कि शांत – सुघड़ नवयौवना सी मंद-मंथर चाल से बहती जाती थी । इसी सुंदर सरिता तट पर दूर - दूर तक फैले हरे भरे खेत, उसके बाद आम की सघन अमराई और अमराई से लगकर था  ग्रामदेवी का सुंदर मंदिर।  

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उम्मीद है कहानी पढ़ ली होगी ....... चलिए अब आपको एक ऐसा संस्मरण पढवाते हैं जिसे पढ़ कर मुस्कराहट तो ज़रूर आएगी .......   रायटोक्रेट कुमारेन्द्र  जी सुना रहे हैं किस्सा .... ओह  सुना  नहीं रहे पढ़ा रहे हैं ....


हाल्ट, हुकुम सर देयर. फंडर फ़ो. इस वाक्य से आपमें से संभव है कि बहुत से लोगों का पाला पड़ा हो और बहुत से लोगों का नहीं भी पड़ा होगा. बहुत से लोगों से ऐसे वाक्य का सामना प्रत्यक्ष रूप से किया होगा और बहुत से लोग ऐसे होंगे जिन्होंने ऐसे लोगों की जुबानी ही इस वाक्य से परिचय पाया होगा. हम भी उन्हीं लोगों में से हैं जिन्होंने इस वाक्य का परिचय अपने बाबा जी से प्राप्त किया है.

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अब इस संस्मरण  से थोडा  बाहर  आईये और देखिये अपने अस पास क्या क्या होता रहता है .......कुछ अनुभव और कल्पनाओं को बन कर रची जाती हैं कहानियाँ ...... वाणी जी का यही कहना है .... 



जिन खोजा तीन पाइयां...


चाय बना लाती हूँ  - कहती माला रसोई  जाने केे लिए मुड़ी तो विद्या भी उसके साथ हो ली यह कहते हुए कि मैं भाभी की मदद करती हूँ.

आपके पापा के बारे में सुना था तबसे ही आपसे मिलने का मन हो रहा था. कैसे क्या हो गया था!
चाय की पतीली गैस पर रखते माला भीगी पलकों से सब बताती रही.
बहुत बुरा हुआ लेकिन पीछे रह जाने वालों को हिम्मत रखनी पड़ती है. चाय विद्या ने ही कप में छानी. बिस्किट, नमकीन करीने से प्लेट में रखते हुए माला फिर से सुबक पड़ी.

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क्या खोज रहे क्या पाया ये तो पता नहीं ....... बस इतना पता कि कोई भी दौर हो ....... हमेशा यही सुनते रहे कि बहुत मंहगाई है ........ कभी मंहगाई कम ही नहीं रही  ..... गिरीश पंकज जी इस मंहगाई के कमर तोड़ आसन सिखा रहे हैं ...... एक नज़र इस योग पर भी ..... 


व्यंग्य /महंगाई के कमरतोड़ आसन


इस देश में अगर योग के लिए प्रेरणा देने का काम किसी ने किया है तो वो है परमप्रिय महंगाई-सुंदरी. 
इसे डायन कहना ठीक नहीं. डायन बर्बाद करती है, ये सुंदरी आबाद करती है. जनता और महंगाई-बाला दोनों अपने-अपने तरीके से योगासन कर रहे हैं. महंगाई के कारण लोग 'शीर्षासन' करने पर मजबूर है. 
योग की सारी मुद्राएं करती है महंगाई. 'अनुलोम-विलोम' उसे बड़ा प्रिय है. साँस खींचती है यानी कीमत बढ़ाती है,और कभी-कभार साँस छोड़ती भी है.

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और आज की चर्चा  की अंतिम कड़ी ...... इंटरनेट की दुनिया का एक ज्वलंत मुद्दा .....  हांलांकि  इस पर बहुत लोगों ने अपने विचार रखे ...... फिर भी यदि और लोग भी इस पर कुछ कहें तो विचारणीय होगा .... कामिनी सिन्हा जी ने उठाये प्रश्न और दिए अपने विचार .... 



"खिलतें हैं  फूल  बनके चुभते हैं हार बनके"


वैसे तो, सामान्य जीवन में रिश्तों का बहुत महत्व है, अनमोल होते हैं ये रिश्ते। सच्चे और दिल से जुड़े रिश्ते कभी चुभते नहीं...वो हार बनकर भी गले की शोभा ही बढ़ाते हैं। ये गीत तो आज कल के युग की एक खास रिश्ते को बाखुबी परिभाषित कर रहा है वो रिश्ते हैं "आभासी दुनिया के रिश्ते" जो आजकल समाज में यथार्थ रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण जगह बना चुका है। सोशल मीडिया के नाम से प्रचलित अनेकों ठिकाने हैं  जहाँ ये रिश्ते बड़ी आसानी से जुड़ रहें हैं और हवाई पींगे भर रहें हैं "फल-फूल भी रहें हैं" ये कहना अटपटा लग रहा है क्योंकि वैसे तो हालात कही भी नजर नहीं आ रहें हैं। 

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अचानक ही दिग्विजय साहब का कथन याद आ गया  ........ आज सोमवार है और सप्ताह का पहला दिन ज्यादा व्यस्तता लिए हुए ....  खैर अब तो लगा दिए लिंक ...... धीरे धीरे पढ़ लीजियेगा ..... 

आप सभी पाठकों  की प्रतिक्रिया का   इंतज़ार  रहेगा  ...... अपना ख्याल रखें ...... स्वस्थ रहें .... 

धन्यवाद ....
संगीता स्वरुप 

रविवार, 27 जून 2021

3072 ..पृष्ठों में हर बार ख़ुशी के पृष्ठ सजाए मैंने

आज रविवारीय अंक में
आप सभी को
सादर अभिवादन
....
तुमको मिल ही गया
कोई बेहतर
मुझसे !
मुझको भी मिल गया
कोई बेहतर
तुमसे !

पर कभी कभी दिल को यूँ भी लगता है …
हम जो इक दूसरे को मिल जाते
तो यक़ीनन वो होता बेहतर
सबसे !
.....

चलिए चलें आज की रचनाओं की ओर ...

फूल थे तुम, तो बड़े मुखर थे,
बंद थे, तो भी प्रखर थे,
विहँसते थे खिल कर, हवाओं में घुल कर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?


मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया।


अरे, कोई समझाए
उस पगली को
जहां भय हो
वहां
न होता है धर्म
और न प्रेम।


चकवा चकवी मिलवा लागा
फूल कमल का खिलवा लागा
रस पीवा की वेराँ जावे
जागो म्हारा भमरा कलियाँ जगावे
कलियाँ की गलियाँ में सोई लिदा जी आखी रातलड़ी
ओ आखी रातलड़ी
जागो म्हारा हिवड़ा का हार जागी जाओ सा
चटक चाँदणी चितचोर चाली


वास्तव में हमें शरीर की नैसर्गिक क्रिया में रूकावट डालने वाली किसी भी चीज से बचना चाहिए। विशेषज्ञों के अनुसार एकाध बार बहुत ही जरूरी वजह से गोली ली जा सकती है लेकिन किसी भी हालात में डॉक्टर की सलाह के बिना ये गोली नहीं लेनी चाहिए।

पहली सीढ़ी चढ़ी औ पहला पायदान लकड़ी का
जीवन की कड़ियों में जुड़ती हर एक एक कड़ी का
कर स्मरण सजाए मैंने अपने सपने
पृष्ठों के भी पृष्ठ कई देखे हैं मैंने
....
आज बस
कल बड़ी दीदी आएगी
सादर

 

शनिवार, 26 जून 2021

3071... संगत

कदली सीप भुजंग मुख स्वाति एक गुण तीन।
जैसी संगति बैठिए , तैसोई फल दिन।

हाज़िर हूँ...! उपस्थिति दर्ज हो...

संगत

चारों ओर से हम पर बरसता रहता है कितना जीवन

मगर हम ही हैं कभी बुद्धिमान कभी मूर्ख बनकर

ज़िन्दगी गंवाने पर तुले रहते हैं

मैं देर तक सोखता रहा धूप

करवट बदल-बदलकर

संगत हैवानों की हो गर, हैवानियत आ ही जाती है
संभाल कर रखना अपनी पीठ को,

शाबाशी 
         और......
               खंजर

दोनों यहीं पर मिलते हैं.......!!!

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई


संगत

लोग शराबी के साथ रहकर शराबी बन जाते है,

लोग कहते है की गलत संगत का असर है।

कोई शराबी, संस्कारी के साथ रहकर संस्कारी

क्यों नही बनता….?

सत्य ये है-

"जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग 

चंदन विष व्यापै नहीं, लिपटे रहत भुजंग"

एक युक्ति सोची  पिता ने अपने पुत्र को बुलाया और
उसे एक हाथ में कोयला वह दूसरे हाथ में चंदन लाने के लिए कहा
जब पुत्र दोनों सामान लेकर आया तो पिता ने चंदन और कोयले को 
वही रख कर उसे अपने दोनों हाथ देखने को कहा 

मैं फिर हरी हरी सी,
कली-कुसुमों से भरी सी,
नाज़ से इठलाउंगी,
गीत गुनगुनाउंगी,

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पुन: भेंट होगी...
>>>>>>><<<<<<<


शुक्रवार, 25 जून 2021

3070...सुलगने से मेरे महकता हो अगर


शुक्रवारीय अंक में आप सभी का 
स्नेहिल अभिवादन।

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उजालों की खातिर,अंधेरों से गुज़रना होगा
उदास हैं पन्ने,रंग मुस्कुराहट का भरना होगा।
उफ़नते समुंदर के शोर से कब तक डरोगे
चाहिये सच्चे मोती तो लहरों में उतरना होगा।
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आइए आज  की रचनाएं पढ़ते हैं

आज की पहली रचना के लेखक के शब्दों में-

सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना करने वाले कबीर की भोजपुरी आज स्वयं अश्लीलता और गंदगी का शिकार बन गयी है। भोजपुरी गाने और फिल्मों के संवाद कुरूप और बदरंग होते जा रहे हैं। इन कुसंस्कारों और विसंगतियों से त्राण पाने हेतु यह भाषा छटपटा रही है। 
हर सकारात्मक पहल पर विचार के साथ क्रियान्वयन पर सहयोग भी आवश्यक है-


धानी चूड़ी,
पिअरी पहिनले,
और टहकार सेनुर।
दुलहिन बाड़ी,
 पेड़ा जोहत,
सैंया बसले दूर।
मैना करेली...

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प्रथम रचना सदैव विशेष होती है और बात जब प्रादेशिक भाषा में गढ़ी गयी कृति की हो तो मिठास द्विगुणित हो जाती है। लेखिका को अशेष शुभकामनाएँ आपकी उपलब्धि की उड़ान 
घिंघुड़ी(गौरेया) की तरह साहित्यिक नभ में विशिष्ट हो यही कामना है। 


छज्जे में फँसे हैं तेरे घोंसले पुराने
कैसे हो गये हम सब तेरे लिए विराने   
आजा गौरैया! सता न तू!
बोल गौरैया ! कहाँ गयी तू !!

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काश कि रिश्तों को रफू करने का हुनर भी अभिमान सीख जाता बहुत खूबसूरत लगते फिर तो उधड़े हुए दर्द पर मुस्कुराहटों के फाहे और विश्वास के धागों से गूँथे पैबंद



रफ़ू कर फ़िर सी लूँ उन रिश्तों को l
तार तार कर गयी वो जिन रिश्तों को ll 

चुभ रही एक कसक ज़िस्म कोने में l
छलनी हो रही अंगुलियाँ इन्हें सिने में ll 

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देखनी है दिलों में,     ख़ुशी अपनों की,
मिट सकें रंजिशें तो, मिटा कर के देख़ ।
सचमुच बोलती हैं गज़लें 


सरहदों पर हैं बुझते,       चिरागों के घर,
जो हक़ीक़त है ख़ुद की बना कर के देख़ ।

देखनी है दिलों में,     ख़ुशी अपनों की,
मिट सकें रंजिशें तो, मिटा कर के देख़ ।

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मौसम के बदलाव पर लेखक की चिंतनीय विचार बारिश की बूँदों की तरह पारदर्शी और बादल की उमस की तरह पर्यावरण के बदलते व्यवहार पर मौसम के राग पर  आधारित है बूँदों की सरगम


ग्लोबल वार्मिंग'' बढ़ रही है ! यह डर की बात तो है ही और ऐसा लग भी रहा है कि मानसून, जो सदियों से भारत पर सहृदय, दयाल और मेहरबान रहता आया है, वह आने वाले वक्त में अपना समय और दिशा बदल सकता है। उससे हमारे विशाल कृषि प्रधान देश को कितनी समस्याओं का सामना करना पडेगा उसका अंदाज लगाना भी मुश्किल है ! ऐसा न हो कि प्रकृति का यह अनुपम, अनमोल तोहफा, राग पावस और बूँदों की सरगम की मधुर ध्वनि किसी कंप्यूटर की डिस्क में ही सिमट कर रह जाए !

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और चलते-चलते
कुछ खास एहसास की भीनी खुशबू मन की दीवारों को छूती रहती हैं, गूँजती रहती है श्वासों की लय में पवित्र प्रार्थनाओं की तरह, सहेजी जाती हैं ताउम्र 

सुलगने से मेरे महकता हो अगर,
रौशन मन का घर-कमरा तुम्हारा।
हरदम किसी मन्दिर की सुलगती,
अगरबत्तियों-सा सुलगता रखना।

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आज के लिए इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर आ रही हैं
प्रिय विभा दी।

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गुरुवार, 24 जून 2021

3069 ..गुलमोहर की छाँव में, फूल रहा अनुराग

सादर अभिवादन
आज सुबह-सुबह रवीन्द्र जी नही दिखे
चलिए मैं दिख जाती हूँ

आप भी देखिए...

सरसों के खेत में, हल्दी भरा रंग
सखी सहेली कर रही,कन-बतियां रस-रंग

हल्दी के थापे लगे, मन की उडी पतंग।
सखी सहेली कर रहीं, कनबतियाँ रस-रंग

सड़कों के दोनों तरफ, गंधों भरा चिराग
गुलमोहर की छाँव में, फूल रहा अनुराग


राह में कंटक मिले तो।रौंद उसको बढ़ चलो।।
हौसला रखकर हृदय में।पर्वतों पर चढ़ चलो।

मन पराजित मत करना।हिम्मत नहीं तुम हारना।।
प्रपंच से आहत न होना।मन में रखो धारना।

यहां
केवल रात होती है
सुबह
और
सुबह की उम्मीद
यहां
केवल
फरेब है।


बिना तपस्या कहाँ से पाएं ज्ञान गहन,
तज के सारे मोह करने होंगे बड़े जतन।
खुद की कमियों का कर स्वयं मनन,
प्रगक्ति पथ पर निरंतर रहे मन।

न रोक न टोका न बाँधा कभी मन।
कैसे करें भला सफलता आलिंगन ।।


"बंधु क्या कोई भी कवि मौलिक रहा, है या होगा?"
मौलिक तो केवल ईश्वर है। कविता के सन्दर्भ में मौलिक होना अलग बात है। कविता के दो पक्ष हैं भाव पक्ष और कला पक्ष। कोई कवि अपने अनुभवजन्य हृदयोदगारों को अपने ढंग से प्रस्तुत करता है तो वह मौलिक ही माना जाता है। नये बिम्ब व नवीन उदाहरण का प्रयोग भी मौलिकता की श्रेणी में आता है।


तब ज़िन्दगी ऐसी नहीं थी
कि ए-सी होता
बिजली ही नहीं थी
कि ऐसी सम्भावनाएँ बीज लेतीं
न पंखे थे
न पंख
कि कल्पनाएँ उड़ान भरतीं
..
बस
कल आएगी सखी
सादर


बुधवार, 23 जून 2021

3068..छू लेंगे आकाश उछल के...

 ।। उषा स्वस्ति।।

"दूर क्षितिज पर सूरज चमका,सुब्‍ह खड़ी है आने को

धुंध हटेगी,धूप खिलेगी,साल नया है छाने को

प्रत्यंचा की टंकारों से सारी दुनिया गुंजेगी

देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडिव पे बाण चढ़ाने को..!"

गौतम राजरिशी

चलिए एक पल के लिए मौजूदा हालात को परे रख कुछ क्षण बिताते हैं.. बस...
यहीं पर यहाँ हम सभी के शब्द बोलते हैं...✍️

सारथी मैं हूँ (बेटे से संवाद )


तुम चलो, सारथी मैं हूँ 
थोड़ा सा तो चलो, डगर पर कदम बढ़ाओ
उन कदमों से कदम मिलाते चलते जाओ
अपने कदमों का दो सच्चाई से साथ,सारथी मैं हूँ 
कोशिश बहुत की मगर ये रात ख़िसक जाती है
चेहरे पे उसकी उदासी जब भी आती है
मेरी तमन्नायें यूँ ही सुलग जाती है..

बच्चे प्यारे फूल कमल के
छू लेंगे आकाश उछल के
तोड़ रहे जो पत्थर पथ पर
सपने उनके नहीं महल के

समसामयिक आलेख...
हाल ही में एक बिलकुल अलग किस्म का अनोखा सर्वे 
यह पता लगाने के लिए किया गया कि
भारत में राजनीति के धंधेबाज़ों में से
किसकी बीनाई सबसे तेज़ है।
पता चला ममताबाड़ी की
कल्लो बंगालिन बाईनोकुलर विजन


यूँ भी
किसी के पूछे जाने की
किसी के चाहे जाने की 
किसी के कद्र किए जाने की

चाह में औरतें प्राय: 
मरी जा रही हैं
किचिन में, आँगन में, दालानों में...

आज की पेशकश के साथ हम तो यहीं थमते है...फिर मिलेंगे

।। इति शम ।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍️


मंगलवार, 22 जून 2021

3067 ..दर्द कितने भी हों दिल में, मुस्कुराते रहिये!

सादर वन्दे...
मंगलवारीय प्रस्तुति बनानी है
सिर्फ दस ही मिनट है हमारे पास....
देर क्यों चलिए चलें...
.....

दर्द कितने भी हों दिल में,
मुस्कुराते रहिये!

अगर जो गिरा एक आंसू तो,  
तमाशा हो जायेगा!!

पोंछने वाले कम मिलेंगे,
वजह पूछने वालों का
अंबार लग जायेगा.!!!

....


पिता दिवस पर आज आपकी यादें लेकर
हुई लेखनी मौन बस आँखों से टपकती

वो बीता बचपन दूर कहीं यादों में झिलमिल
झलक आपकी बस माँ की आँखों में मिलती


एक कहावत है
 ''कौन पढ़ाये मूर्खों को कि
भाषा से साहित्य बनता है''
किन्तु ''साहित्य से ही
भाषा समृद्ध'' होती है,
और उन्हें तो कतई नहीं कि
जो भाषा, साहित्य, संस्कृति और
विचार के प्रति कहीं से भी गंभीर न हों


बद्दुआएं जुबाँ से ही नही दिल से भी निकल जाती हैं
दुखी ह्रदय के आँसूं  भी बद्दुआ बन जाती है।

संघर्षों, मुसीबतों, परेशानियों से घबराना कैसा...
सितारे अंधेरों में ही चमकते हैं सोच के  देखना ज़रा।।


मेरे घर के ड्राइंगरूम की
दक्षिणी दीवार
जो कभी थी मेरे लिए
'वॉल आफ फेम'
आज ढल गई है
यादों की दीवार में
मन को कुरेदते सूने संसार में।


नजदीकियों में, समाई हैं दूरियाँ,
पास रह कर भी कोई, दूर कितना यहाँ,
दूर कीजिए ना, दो दिलों की दूरियाँ,
यहाँ बन्दगी, कम हैं जरा!
.....
बस इज़ाज़त दें




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