स्नेहिल अभिवादन।
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ज़िंदगी की धड़कन सुनने की कोशिश में-
दूर तक फैला ख़ामोश शहर
न पेड़,न चिड़िया,न हवाओं की सुगबुगाहट,
कंक्रीट के पिंजरें में कैद दोपहर
चाहती हूँ उड़ जाऊँ जलती धूप में नभ पर,
पीठ पर बाँधे हौसलों के पर
बादलों से करूँ विनती बरस जाओ न
मैं भी बना लूँ एक लबालब बहर
बोकर आई हूँ कुछ आम,नीम,पीपल के बीज
खिलखिलाये बस्तियाँ हो प्रकृति की मेहर।
-श्वेता सिन्हा
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आइये चलते हैं आज की रचनाओं की दुनिया में।
कविताएँ मौन मन की मुखर अभिव्यक्ति होती है अनायास ही किसी रचना को पढ़ते समय सहज भाव से फूटी पंक्तियों को बाँधकर सलीके से गूँथने की कला में सिद्धहस्त कवयित्री की ऐसी ही एक सुंदर रचना पढ़िए जिनकी रचनात्मकता कविताओं को अपनत्व के फुहार से भींगा देती हैं।
महज़ तमाशबीन ,
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शिल्प और कथ्य का बेहतरीन तालमेल कर भावनाओं को कम शब्दों में अभिव्यक्त करने की कला से परिचित करवाने वाले अनुभवी साहित्यकार की रुहानियत का एहसास करवाती एक बेहतरीन गज़ल पढ़िए-
तीरगी की आड़ लेकर रौशनी छुपती रही
इक उदासी घर के पीपल से मेरे लटकी रही. उनकी आँखों के इशारे पर सभी मोहरे हिले,जीत का सेहरा भी उनका हार भी उनकी रही.
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वर्तमान परिदृश्यों को विश्लेषात्मक दृष्टिकोण प्रदान करना,समसामयिक घटनाक्रम पर लेख पढना सामान्य है किंतु काव्य के रूप में परिणत करने वाले अनूठे रचनाकार की यथार्थवादी, मर्म को बेधती रचना पढ़िए-
मृत देहों का अंबार
सुनते जब
संबंधियों-मित्रों शुभचिंतकों की
चीख़ें और सिसकियाँ
छितराई परेशानी की लकीरें
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समय के चक्र में घटनाक्रम की उठा-पटक से उत्पन्न मनोविश्लेषण संवेदनशील कवि मन के विचार पाठकों तक सहज,सरल पहुँचाती एक रचना-
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विशेष प्रस्तुति।
गज़ब...
जवाब देंहटाएंचाहती हूँ
उड़ जाऊँ
जलती धूप में
नभ पर,
पीठ पर बाँधे
हौसलों के पर
बेहतरीन अंक
आभार..
सादर..
बोकर आई हूँ कुछ आम,नीम,पीपल के बीज
जवाब देंहटाएंखिलखिलाये बस्तियाँ हो प्रकृति की मेहर।
जैसी सुंदर कामना के साथ सार्थक प्रस्तुति प्रिय श्वेता। ये सोचकर कभी कभी मन उदास हो जाता है कि प्रकृति ने तो बहुत कुछ दिया था हमें, हमीं ना संभाल सके वो अपार संपदा , विरासत और भावी पीढ़ीयों को संकट में डाल दिया। हरे भरे गांव नष्ट हो गए। मानव है कि भागता जा रहा। उसकी पलायनवादी प्रकृति ने उसे कोरोना जैसे भीषण संकट से धकेल दिया। संदीप जी के लेख नई चेतना का आह्वान करते हैं। सभी को पढ़ने चाहिए इनके लेख। भाई रविंद्र जी दिगंबर। जी जेसे दिग्गज मौजूद हैं आज तो। सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं। प्रतिक्रिया बाद में दूंगी। तुम्हें शुक्रिया और साभार सुन्दर प्रस्तुति के लिए 🌷🌷❤️❤️🤗
आभारी हूं आपका श्वेता जी। बहुत ही अच्छी रचनाओं का चयन किया है आपने। आपने जो मेरे आलेख को सम्मान दिया है उसके लिए आभार...। प्रकृति से जरुरी शायद कुछ नहीं है इस दौर में...मुझे लगता है हमें उन लोगों को बेहद सहज होकर सुनना चाहिए जो आज इसके संवर्धन में जुटे हैं क्योंकि उनके पास उनके ज्ञान का खजाना है, उनके ज्ञान और अनुभव के खजाने से हमें सीखना चाहिए क्योंकि वे समग्र की बात करते हैं...और उस समग्र में कहीं न कहीं हमारा और बच्चों का भविष्य भी है जिसे हमें सोचना चाहिए।
जवाब देंहटाएंआभारी हूं रेण जी का भी जो उन्होंने उत्साहवर्धन वाली प्रतिक्रिया लिखी है, मेरा उददेश्य केवल प्रकृति पर सकारात्मक विचारों वाले साथियों को साथ लाकर सुधार का एक अलख जगाना है...। आभार आपका रेणु जी, श्वेता जी और इस एक बेहद गहन मंच है जो हमें बहुत से साथियों तक अपनी बात पहुंचाने का अवसर देता है...सभी का आभार।
जवाब देंहटाएंजी संदीप जी, आपकी चिंता और प्रकृति के प्रति अनमोल चिंतन आभास कराता है कि कोई तो है जो प्रकृति के प्रति गंभीरता से सोच रहा है। प्रकृति के बिगड़े रूप को संवारने में दशकों लग जाएंगे पर कोई पहल तो करे और पहल वाली के साथ हमकदम बन कोई तो चले। आज देश को साइबर एक्सपर्टों से ज्यादा शिक्षित, सुदक्ष , समर्पित मालियों की जरूरत है। एक बार फिर आग्रह है पाठक अपके ब्लॉग को ज्यादा से ज्यादा पढ़े भी और उसमें निहित चिन्तन, दर्शन को अपनाएं भी। आभार और शुभकामनाएं।
हटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमानवता स्वयं में एक ऐसा धर्म है
जवाब देंहटाएंजिसका ईश्वर और प्रजा हम ही हैं
हम ही चोट देंगे हम ही दर्द सहेंगे
हम ही दुनिया बनाएंगे हम ही रहेंगे
खूबसूरत प्रस्तुति श्वेता ।
जवाब देंहटाएंबादलों से करूँ विनती बरस जाओ न
जवाब देंहटाएंमैं भी बना लूँ एक लबालब बहर
बोकर आई हूँ कुछ आम,नीम,पीपल के बीज
खिलखिलाये बस्तियाँ हो प्रकृति की मेहर।
लगता है बादलों ने विनती सुन ली आपकी आज तो खूब बरष गये....।
उत्कृष्ट लिंकों से सजी बहुत ही श्रमसाध्य एवं लाजवाब प्रस्तुति ।
सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
बादल तो बरस ही जायेंगे
जवाब देंहटाएंजलाशय भी भर जाएँगे लबालब
प्रकृति भी एक बार फिर
भूल कर सारे गुनाह
शायद कर दे मेहर
लेकिन अपने गुरुर में डूबा इंसान
क्या अब भी सुधारेगा खुद को
या दोहन कर प्रकृति का
हर बार थपथपायेगा खुद को ।
आज की प्रस्तुति में हर लिंक और उसके साथ लेखक का परिचय अपने शब्दों में बेहतरीन तरीके से दिया है ।
वैसे मुझे इतनी प्रशंसा की आदत नहीं तो थोड़ा संकुचित हो रही हूँ । फिर भी तहेदिल से शुक्रिया ।
सभी रचनाएँ एक से बढ़ कर एक । तय करें विकास चाहिए या समृद्धि विचारणीय लेख है । नासवा जी की ग़ज़ल 3 या 4 बार पढ़ आयी लेकिन टिप्पणी के लिए लोड नहीं हो पाया । फिर सही ।
शुभकामनाएँ।
बहुत सुंदर संयोजन
जवाब देंहटाएंबेहद सुंदर संयोजन... मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार आपका
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