निवेदन।


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गुरुवार, 31 अगस्त 2017

776...राम और रहीम को एक साथ श्रद्धाँजलि

सादर नमस्कार...
आठवें महीने की अंतिम प्रस्तुति
भाई रवीन्द्र सिंह प्रवास पर हैं..
कुछ खास नहीं हुआ इस माह..

श्रम की अधिकता में
कुछ ही दिनों में बीमार पड़कर
अस्पताल में भरती हो जाएँगे
अस्पाल को जेल में नहीं न लाया जा सकता...

कुछ दिनों से देखा जा रहा है..
कविता कहानी लिखने वाले ब्लॉग आज-कल
मीडियाधर्मी बन गए हैं....

चलिए आज की पढ़ी-सुनी रचनाओं की ओर...

पहली बार..

न जाने क्या चाहता है ये दिल...अरमान
कितना भी रोकने की कोशिश करूं
तेरी ओर ख़्यालों के क़दम बढ़ जाते हैं

तुम्हारी आंखों, तुम्हारी बातों ने
जैसे कोई साज़िश की हो 'अरमान'


शब्द एक प्रतिध्वनि है,
वीरान/ अकेली/ निर्वासित नगरी में
हमसफ़र की तरह
साथ चलने के लिये।

बोलो शहर, 
क्या तुम्हारे सीने में कोई दर्द की लहर नहीं उठती 
कोई ज्वालामुखी नहीं फूटता 
क्या सचमुच तुम्हारा जी नहीं करता कि 
मासूमों की सांसों को तोड़ देने वाली सरकारों की 
धज्जियाँ उड़ा दी जाएँ 

चाहकर ये उदासी कम न हो
क्यूँ प्रीत इतना निर्मोही है
इक तुम ही दिल को भाते हो
जानूँ तुम सा क्यूँ न कोई है
दिन गिनगिन कर आँखें भी
रोती कई रातों से न सोई है


हाँ, सही कहा कि 
ग़र करती हो तो पछताती हो क्यों...? 
अपने पहनावे पर 
लोगों के व्यंग्यबाण सुन 
तुम शर्म से गढ़ जाती हो क्यों...? 


‘उलूक’ 
नोचता है 
बाल अपने 
ही सर के 
पिता साँप का 
जब तुरन्त ही 
साँप के सँपोले 
को पालने की 
जुगत लगाना 
शुरु हो जाता है ।

आज्ञा दें दिग्विजय को



बुधवार, 30 अगस्त 2017

775 ..नित नए फ़ितनागरी दिखाता है..

३ ० अगस्त २ ० १ ७ 
।।जय भास्करः।।
।उषा स्वस्ति।

अथ इस कथ्य से .

शायद..

" इंसानियत के सर पे

गद्दारी की हवा चली या,

आदर्शों की चिता जली..

हर तरफ़ दौडते-भागते रास्ते

आदमी का शिकार आदमी..

जो न डरता है,न शर्माता है..

नित नए फ़ितनागरी दिखाता है।"

इन समसामियक  विषयों से इतर कुछ लफ्ज़..

चलो, फिर कुछ देर थमते हैं..
यहीं पर..
कुछ वक्त का सिरहाना लेकर
और लिखते हैं..
वो सब कुछ जो रह गया था अनकहा..

इन्हीं बातों को मद्देनज़र रखते हुए

आप सभी प्रस्तुत लिंको की ओर नज़र डाले..

पावनी दीक्षित "जानिब" महफिल से...


दिल में प्यार का महल बनाकर ये बनके पत्थर तोड़े। ।

कोई कसक है धड़कन में दिल मुश्किल से धड़कता है
जाने कैसी याद है तेरी जो बस सांस है दिल से जोड़े ।

दर्द हमारे बसमें नहीँ है चाहत में कोई रस्में नहीं हैं

टूटी-फूटी  एक गृहिणी की डायरी...से अधूरी आशा


शायरा आज दस बजे से ही टीवी से चिपकी थी। दिन भर चैनेल बदल-बदलकर एक ही ख़बर देखती रही। सास-बहू वाले सीरियल भी आज इस ख़बर के आगे फीके थे। ठीक पाँच बजे दरवाजे की घंटी बजी। अरे, अभी इस समय कौन हो सकता है...! दुपट्टा सम्हालते हुए दरवाजा खोला तो शौहर खड़े थे, आज कुछ अलग मुस्कान लिए हुए। चकित होकर पूछाक्या हुआ, आज इतनी जल्दी
सुशील कुमार जोशी जी द्वारा  रचित मजेदार व्यंग्य एवं तीक्ष्ण कटाक्ष


जो लिखता है
उसे पता होता है

वो क्या लिखता है
किस लिये लिखता है
किस पर लिखता है
क्यों लिखता है


वर्षा...यहां सुनाई देते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर


इस कहानी ने अपने वक़्त में सबको हैरान कर दिया था। कि दुनिया जैसी हम देखते हैं इससे ठीक उलट भी हो सकती है। औरतों की दुनिया। बीसवीं सदी के शुरुआती दशक औरतों के माफिक तो हरगिज नहीं थे। आज़ादी की जंग लड़ रहे हिंदुस्तान में तब औरतों के अधिकार को अलग से देखा भी नहीं जाता था। उस समय में रुकैया  सखावत हुसैन ने एक कहानी लिखी जिसका नाम था -सुल्ताना का सपना। सुल्ताना अपने सपने में एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करती है जहां हर चीज बदली हुई थी। जहां बारिश नहीं होती थी लेकिन धरती पर बहुत हरियाली थी।

साधना जी द्वारा  रचित  सुन्दर कविता 'धुंध'

आँखों से धुँधला दिखने लगा है
अच्छा ही है !
धुंध के परदे में कितनी
कुरूपताएं, विरूपताएं छिप जाती हैं
पता ही नहीं चल पाता और मन
इन सबके अस्तित्व से नितांत अनजान
उत्फुल्ल हो मगन रहता है ! 
 





" ये वक्त है जनाब हर चेहरे याद रखता है

अच्छा हो..जो हम वक्त पर ही
एक नन्हा-सा दीया जलाएं
जो बुझा-बुझा सा है हमारे अंदर.."

अन्वीक्षा जरूर करें,

अब आपसे आज्ञा लेती हूँ। 

फिर मिलेंगे। 

।।इति शम।।

पम्मी सिंह



मंगलवार, 29 अगस्त 2017

774....आज वो कैदी नंबर 1997 है....

जय मां हाटेशवरी.......
कल तक जो भगवान थे....
आज इनसान भी नहीं है....
आज वो कैदी नंबर 1997 है....
आज फिर अधर्म पर धर्म की जीत हुई है....
जिसने भी नारी का शोषण किया है....
अंत में उसे अंजाम भुगतना पड़ा है....
चाहे वो रावण हो या दुर्योधन....
आसाराम हो या राम रहीम.....

इन दो साधवियों ने अपनी तपस्या से....
अनेकों निर्दोष बालाओं को भी मुक्त किया होगा....
शोषित होती रही....
जो डेरे के भय से....
कुछ बोल न सकी होगी...
इन न्यायाधीश को नमन.....
पेश है आज के लिये मेरी पसंद....
पर इससे पहले इसी विषय पर....
ये विचार भी अवश्य पढ़ें....

"कौन होते हैं आशाराम बापू के लिए बेसुध होकर रोने वाले.. राम रहीम के लिए कुछ भी फूंकने वाले..
राधे मां का फाइव स्टार आशीर्वाद लेने वाले. राम पाल के लिए अपनी जान तक दे देने वाले. निर्मल बाबा की हरी चटनी खाकर अरबपति बन जाने वाले..?
दरअसल इस भीड़ के मूल में दुःख है.. अभाव है.. गरीबी है.. और शारीरिक मानसिक शोषण है.. अहंकार के साथ कुछ हो जाने की तमन्ना है.
एक ऐसा विश्वास है जिस पर आडंबरों की फसल लहलहाती है.. आप जरा ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि ऐसे भक्तों की संख्या में ज्यादा संख्या महिलाओं, गरीबों, दलितों और शोषितों की है.. इनमें कोई अपने बेटे से परेशान है तो कोई अपने बहू से किसी का जमीन का झगड़ा चल रहा तो किसी को कोर्ट-कचहरी के चक्कर में अपनी सारी जायदाद बेचनी पड़ी है. किसी को सन्तान चाहिए किसी को नौकरी!
यानी हर आदमी एक तलाश में है.. ये भीड़ रूपी जो तलाश है. ये धार्मिक तलाश नहीं है. ये भौतिक लोभ की आकांक्षा में उपजी प्रतिक्रिया है.
जिसे स्वयँ की तलाश होती है वो उसे भीड़ की जरूरत नहीं उसे तो एकांत की जरूरत होती है..
वो किसी रामपाल के पास नहीं, किसी राम कृष्ण परमहंस के पास जाता है.. वो किसी राम रहीम के पास नहीं.. रामानन्द के पास जाता है.. उसे पैसा, पद और अहंकार के साथ भौतिक अभीप्साओं की जरूरत नहीं. उसे ज्ञान की जरुरत होती है..

गीता में भगवान कहते हैं..
न ही ज्ञानेन सदृशं पवित्रम – इह विद्यते
अर्थात ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नहीं है.. न ही गंगा न ही ये साधू संत और न ही इनके मेले और झमेले..
लेकिन बड़ी बात कि आज ज्ञान की जरूरत किसे हैं.. ? चेतना के विकास के लिए कौन योग दर्शन पढ़ना चाहता है.. कृष्णमूर्ति जैसे शुद्ध वेदांत के ज्ञाता के पास महज कुछ ही लोग जाते थे.. ऐसे न जाने कितने उदाहरण भरे पड़े हैं और कितने सिद्ध महात्माओं को तो हम जानते तक नहीं… यहाँ जो चेतना को परिष्कृत करने ध्यान करने और साधना करने की बातें करता है उसके यहां भीड़ कम होती है और जो नौकरी देने, सन्तान सुख देने और अमीर बनाने के सपने दिखाता है उसके यहाँ लोग टूट पड़ते हैं.. वहीं सत्य साईं बाबा के यहाँ नेताओं एयर अफसरों की लाइन लगी रहती थी, क्योंकि वो हवा से घड़ी, सोने की चैन, सोने शिवलिंग प्रगट कर देते थे, राख और शहद बांट रहे थे.
ये धार्मिक गुरु जो होतें हैं.. ये काउंसलर होते हैं. ये धार्मिक एडवारटाइजमेंट करते हैं।..जहां आदमी का विवेक शून्य हो जाता है..और आप वही करने लगतें हैं जो आपके अवचेतन में भर दिया जाता है..
आज जरुरत है जागरूकता की.. विवेक पैदा करने की. जरा तार्किक बनने की और उससे भी ज्यादा ज्ञान की तलाश में भटकते रहने की.. वरना हम यूँ ही भटकते रहेंगे…
“आतम ज्ञान बिना नर भटके कोई मथुरा कोई काशी”
ऋते ज्ञानात न मुक्तिः
( अर्थात ज्ञान के बिना कोई मुक्ति नहीं है)"whatsapp से प्राप्त....



भारत की बेटी और प्रधानमंत्री
न्यायलय ने
उस ख़त में लिपटी चीख को
शिद्दत से महसूस किया
सीबीआई जांच का आदेश दिया।
भाई भी खोया इस समर में
संवेदनशील  पत्रकार  की  आहुति  हुई
पिता भी चल बसे
एक पीड़ित साथी  साथ आयी
केस में और जान आयी
देते-देते गवाही
झेलते-झेलते धमकियाँ
सामाजिक  दुत्कार
घायल मन की चीत्कार
पंद्रह वर्ष बीत गए।
25 अगस्त 2017
सुकून का दिन आया
जब  माननीय जज़  साहब ने
अपराधी बाबा  को 
जेल भिजवाया
एक अपराधी को
कोर्ट तक लाने में देश हिल गया
 मौत के सौदागरों ने
36 घरों के चराग़ बुझा दिए
ये  कैसे इन्होंने  आपस में 
ख़ूनी  सौदे  किए ....?



माँ सामने खड़ी है मचल जाइए हुजूर ...
मुद्दों की बात पर न कभी साथ आ सके
अब देश पे बनी है तो मिल जाइए हुजूर
हड्डी गले की बन के अटक जाएगी कभी
छोटी सी मछलियां हैं निगल जाइए हुजूर
बूढ़ी हुई तो क्या है उठा लेगी गोद में
माँ सामने खड़ी है मचल जाइए हुजूर

पति परमेश्वर
 उसी रात देव मीनू के पति रात देर से घर पहुंचे ,किसी पार्टी से आये थे वह ,एक दो पैग भी चढ़ा रखे थे ,मीनू ने दरवाज़ा खोलते ही बस इतना पूछ लिया ,''आज देर से कैसे आये ,?''बस देव का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया ,आव देखा न ताव कस कर दो थप्पड़ मीना के गाल पर जड़ दिए । सुबह जब सोनू ने अपनी मालकिन का सूजा हुआ चेहरा देख अवाक रह गई ।

जिन्दगी और पत्थर
पत्थर  की  औरत  की  वो  आराधना  करते  है।
किन्तु घर की  औरत  पर वो  प्रताड़ना  करते है।।
        आज भी तो मुझे समझ ये राज मे नही  आता है।
        जिदंगी से है नफ़रत तो फिर पत्थर क्यों भाता है।।

भूख का पलड़ा-लघुकथा
''भूख के मरम हम जानत रहीं मालकिन| केकरो सामने हाथ पसारे के मरम हम जानत रहीं| जी मार के रहे के मरम हम जानत रहीं। आप भी केतना दिन भुखले रहीं| पेट भरल में सब इज्जत-बेइज्जती सोचे के चाहीं| भुख्खल पेट के तो खाली खाना चाहीं|''
इस बार खाने का पैकेट दासी के हाथ मे था और उसे लेने के लिए कौशल्या देवी के हाथ धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे।

स्त्री स्वर्ग का फाटक
सारी निर्दयता का अंत
स्त्री की जांघ पर जा बैठा
अब स्त्री की उतनी ही जरुरत थी
जितनी खाट की ,सवारी की, छत की।
स्त्री अब कोई चीज बड़ी है मस्त मस्त थी।
...धन्यवाद












सोमवार, 28 अगस्त 2017

772......लेना इनका धर्म ! देना हमारा जन्मसिद्ध कर्तव्य

"परिवर्तन" एक क्रांतिकारी शब्द जिसका महत्व तब भी था जब हम अंग्रेज हुक्मरानों के ग़ुलाम थे और आज जब हम आज़ाद राष्ट्र के नीच मानसिकता रखने वाले जनप्रतिनिधियों के तामीरदार हैं। 
अंतर केवल इतना तब हम आज़ाद देश के सपने देखा करते थे ,स्वयं के अधिकार की बात किया करते ! आज़ हम धर्म सिद्धि हेतु लालायित हैं। 

धर्म के ठेकेदार हमारे पूज्यनीय जिनका महिमामंडन 
हम आँख बंद करके बड़ी ही तन्मयता से कर रहें  हैं भले ही हमारे धर्म गुरु भोग -विलास में लिप्त हों अथवा कुछ छोटे -मोटे सामाजिक कार्य करके हमारे आँखों में धूल झोंक रहे हों। 

कुछ बुद्धिजीवी वर्ग जब हमारे आँखों पे लगा अन्धविश्वास का ये सफ़ेद चश्मा हटाने की कोशिश करता है हम उसी 'परिवर्तन के द्योतक' को  अपनी कुण्ठा की मैली चादर में लपेटकर क़ब्रिस्तान की सून-सान गलियों में एकांत भटकने को विवश करते हैं। वो चाहे देश का सच्चा सपूत 
शहीद ''राम चन्दर छत्रपति''
अथवा हममें से कोई एक मानव जाति को शर्मसार करने वाला यह कृत्य यहीं नही रुकता ! हमारी जनता जनार्दन जिसके अटूट विश्वास को अपने मज़बूत कन्धों पर ढोकर देश के पवित्र स्थल संसद तक पहुँचने वाले बड़े ही मेहनती व कर्मठ जिन्होंने अपने  सम्पूर्ण  जीवन में पवित्र गीता -क़ुरान पर हाथ रखकर न जाने कितनी बार सत्य का दामन थामा और सत्य का साथ लिया ,क्षमा कीजिएगा क्योंकि हमारे जनप्रतिनिधि देना नहीं, लेना ही जानते हैं। ये बात और है कि कभी 
राष्ट्र की अस्मिता, तो कभी किसी निर्दोष नागरिक की जान 
लेना इनका धर्म !  और देना हमारा जन्मसिद्ध  कर्तव्य 
परन्तु परिवर्तन की बात न करें ! इसमें ही आपका कल्याण है
ऐसा नहीं कि हमारा रक़्त पानी हो चुका है 
बल्कि हममें अभी भी इच्छाशक्ति की पूर्णरूप से कमी है 
कुछ मानव समय रहते चेत जाते हैं एवं कुछ चिरनिद्रा में विराजमान अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं। ऐसा ही एक भारत का वीर सपूत जाग उठा एवं परिवर्तन का ध्वज बुलंद किया। परिणाम तो निश्चित था ! 
परन्तु अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज़ किया। 
इस राष्ट्र के सच्चे सपूत को 
"पाँच लिंकों का आनंद"
परिवार भावभीनी श्रद्धांजलि 
अर्पित करता है एवं आपसभी रचनाकारों व पाठकगणों से अपने विचार व्यक्त करने का अनुरोध करता है।   

शहीद ''राम चन्दर छत्रपति''
''भावभीनी श्रद्धांजलि ''

सादर अभिवादन 

चलिए आज रचनाओं में परिवर्तन का दामन थामते हुए "शब्द नगरी" के प्रमुख साहित्य साधकों की बात करते हैं जो प्रथम दृष्टया  हमारे ब्लॉग पर पधार रहे हैं। इनका स्वागत है इस परिवर्तन के मेले में एवं इस प्रस्तुति की विशेष बात यह भी है कि इसका सम्पूर्ण श्रेय मैं आदरणीया क्रांतिकारी लेखिका "रेणुबाला" जी  को देना चाहूँगा आपके प्रयास को नमन !

''मैं मटमैला माटी सा''
प्रथम रचना आदरणीय "एस कमलवंशी" जी की जो मानव के जीवन की सारभौमिक सत्य पर आधारित है 

जनम हुआ माटी से मेरा, माटी पर ही लिटाया,
माटी चखी, माटी ही सखी, माटी में ही नहाया।
माटी-घर, माटी ही घाट, माटी के खेत का खाया,
माटी-चाक आजीविका, माटी का धन मैं लाया।। 

"झोपड़े का मानसून"
दूसरी 'कृति' आदरणीय "मनोज कुमार खंसली" द्वारा रचित

उसके बदन से चिपकी साड़ी,
माथे से बहकर फैले कुमकुम,
या केशों से टूटकर गिरते मोतियों कि कैसे करूँ बात???...
रूमानी अफ़सानों में ?!!!?
जब बैठकर गुजरी है,...यहाँ रात,
भीगने से बचाते बिछौना बच्चे का, ...
फूस के कच्चे मकानों में ?!!!?

  ग़ज़ल.........  

आदरणीय "महातम मिश्रा'' जी की एक गज़ल 

 "गज़ल" तुझे दर्द कहूँ या खुशी 
आंखों को चुभी बेवशी छुट हाथ ले लो तिरंगा
 अभी उम्र है, कि बदनशी।।
 भूख आजादी गरीबी आहत आँसू है कि हँसी।। 

 ये कैसा सिलसिला है.......
आदरणीया "अपर्णा त्रिपाठी" जी की एक 
'कृति' 

 क्यो नही रुकता ये सिलसिला
सिलसिला जिसमें चले जाते है सब
धरम की आड में बिना समझे
एक अन्धेरी खोखली गली


 सच्चा सौदा था नहीं, पता चल गया आज।
छल-फरेब के जाल को, समझा सकल समाज।।

देख लिया संसार ने, कामुकता का हाल।
बाबाओं ने कर दिया, गन्दा पूरा ताल।।

 जिओ और जीने दो
अंत में, आदरणीय "रविंद्र सिंह यादव" जी की एक 
'कृति' 

कितना नाज़ां / स्वार्थी  
और वहशी है तू ,
तेरे रिश्ते 
रिश्ते हैं 
औरों के फ़ालतू।
चलो अब फिर 
समझदार
नेक हो जायें 

चलते -चलते "मेरी भावनायें" 

मैं आज मरूँगा 
कल आऊँगा 
तुझको सत्य दिखाऊँगा !
तेरे मैले क़ब्रों पर 
अश्रु नहीं बहाऊँगा !
कल वे फाड़ेंगे 
तेरी क़ब्रें 
देख -देख 
चिल्लाऊँगा !
रोएगा तूँ 
रक़्त के अश्रु 
कायर तुझे बताऊँगा !
ओ ! धरती पर रेंगनें वालों 
कीड़ा तुझे बनाऊँगा !
शान भरा, ये गौरव मष्तक 
आगे नहीं झुकाऊँगा !
शर्म -शर्म चिल्लाऊँगा मैं 
शर्म -शर्म चिल्लाऊँगा 
कीड़ा तुझे बनाऊँगा !

( प्रस्तुत अंश मेरे स्वयं के विचार व लेखनी की विवशता है )

रविवार, 27 अगस्त 2017

771...‘सब्र’ एक ऐसी ‘सवारी’ है जो अपने ‘सवार’ को कभी गिरने नहीं देती

सादर अभिवादन..
‘सब्र’ 
एक ऐसी ‘सवारी’ है 
जो अपने ‘सवार’ को 
कभी गिरने नहीं देती;
ना किसी के 
‘क़दमों’ में 
और ना ही 
किसी के नज़रों ‘में’।
आज की पढ़ी - सुनी रचनाओं पर एक नज़र...




ख़त इन्सान के नाम...रिंकी राऊत
हे  पर्थ
याद रख ये बात
करता भी तू है
भरता भी तू है
भोगता भी तू है


लम्हा-ए-विसाल था....लोकेश नशीने
शबे-वस्ल तेरी हया का कमाल था 
सुबह देखा तो आसमां भी लाल था 

 कटे हैं यूँ हर पल ज़िन्दगी के अपने 
नफ़स नफ़स में वो कितना बवाल था



इश्क...रेवा टिबड़ेवाल
आज फिर तुम्हारी याद 
बेताहाशा आ रही है... 
ऐसा लगता है मानो 
दिल में कई 
खिड़कियाँ हों 
जो एक साथ 
खुल गयी है ... 




आईना भी ख़फ़ा हो गया.....डॉ.यासमीन ख़ान
याद आने लगी है तेरी
ज़ख़्मे दिल फिर हरा हो गया।।

भूख वो ही,वही मुफ़लिसी।
साल कैसे नया हो गया।।


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मौन हो तुम...श्वेता सिन्हा
रंग लिया हिय रंग में तेरे
कुछ नहीं अब बस में मेरे
बाँधे पाश मनमोह है घेरे
बंद पलक छवि तेरे डेरे
अश्रुजल से न मिट सके 
वो अमिट अनंत संताप हो


आंतक की फुनगी....हेमलता यादव
अचानक नहीं होता
आंतक का आगमन।
विश्वास की मजबूत
धरा को नफ़रत से सींचकर
रौंपे जाते हैं आंतक के विषैले बीज।


मसालेदार कविता....ओंकार केडिया
कविता लिखो,
तो सादी मत लिखना,
कौन पसंद करता है आजकल 
सादी कविता ?
तेज़ मसाले डालना उसमें,
मिर्च डालो,
तो तीखी डालना,
ऐसी कि पाठक पढ़े,
तो मुंह जल जाय उसका,




वो सुनी अनसुनी कर गया सब मेरी,
मुझको मालूम था वो था बहरा नहीं.

छोड़ दे, छोड़ दे तेरी मर्ज़ी है ये,
टूटा खंडहर हूँ मैं, घर सुनहरा नहीं.









रचनाएँ तो हो गई...
आप सभी ने  कन्हैय्या की दही-लूट तो देखी ही होगी
पिछले दिनों.... आज देखिए विदेशों में भी पिरामिड बनते हैं
स्पेन के शहर  टारागोना में पिछले दो साल से एक दिन विशेष में कैसलर का कई चरणों में आनन्द लेते हैं

शनिवार, 26 अगस्त 2017

770... इतिहास कभी कायरों का नहीं



सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

"आधुनिक हिंदी लघुकथा के एक सौ एक साधकों की विशिष्ट-सूची"
आगामी हिंदी-दिवस पर जारी की जानी है।

पत्र अथवा मेसेंजर के माध्यम से अपनी/अपने परीचित लघुकथाकारों विषयक जानकारी कृपया पांच सितंबर'17 से पूर्व उपलब्ध करवाकर सहयोग करें!

इस सूचना को अपने ग्रुप/फ़ेसबुक वॉल पर स्थान देकर
अधिकाधिक प्रचारित करने पर आभारी होऊंगा। सादर।

विनीत/आपका

युवा कविता

संवाद के पूरा होने के लिए
दोनों पक्षों का पूर्ण वक्तव्य कतई जरुरी नहीं
कई दफा अपूर्ण संवाद भी
संवाद के पूरा होने का कारण बनती है

अपूर्णता संवाद को एक नया अर्थ प्रदान करती है


गैजेट्स पर निर्भरता हमें अपंग ना बना दे 

सुबह की फ्लाइट के लिए रात दो बजे प्रवेश की हिदायत दी गयी थी।
डेढ़ बजे रात 'कैब' का इंतजाम कर रवानगी करवा दी ।
उनके जाने के बाद शयन-शय्या पर पहुंचा ही था कि
कुछ देर के लिए बिजली गायब हो गयी साथ ही कॉर्ड-लेस भी सेंस-लेस हो गया।
बिजली आने पर कैब चालाक का फोन मिला कि आपका फोन नहीं लग रहा था
 इधर मेरे नेट बंद होने की वजह से मेरा जी.पी.एस. काम नहीं कर रहा है !
अब आप इंतजार करेंगे या गाडी छोड़ना चाहेंगे ?



इतिहास कभी कायर का नहीं

तू ही धर्म है, तू ईमान है, मुझे देश रब के समान है
ये गुलाम तेरा मुरीद है, तू बुलंदियों का निशान है!
जहां स्वाभिमान की ख़ातिर सिर कटते हैं मगर झुकते ही नहीं !
जहां रणभेरी की सुन पुकार बढ़ चले क़दम रुकते ही नहीं !
ये लाजवाब, ये बेमिसाल, इनका न कोई भी सानी !


बयान

"न बचने की कगार पर है -
खेती योग्य जमीन
मृदा का उपजाऊपन
स्वच्छ हवा-जल और जीवन,
मौसम की उँगलियों में संतुलन का चाबुक नहीं बचा
शब्दकोषों में नहीं बचे रास आने वाले शब्द
संसद से गैरहाजिर है संसदीय आचरण"

दोहे

जा दिनतें निरख्यौ नँद-नंदन, कानि तजी घर बन्धन छूट्यो।
चारु बिलोकनिकी निसि मार, सँभार गयी मन मारने लूट्यो॥

सागरकौं सरिता जिमि धावति रोकि रहे कुलकौ पुल टूट्यो।
मत्त भयो मन संग फिरै, रसखानि सुरूप सुधा-रस घूट्यो॥


><><

फिर मिलेंगे ....




शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

770...शब्द.. लड़ते हैं, झगड़ते हैं, डराते हैं, धौंस दिखाते हैं.

सादर अभिवादन..
निपट गई तीज भी
आज गणेश चतुर्थी है...
आज जो पढ़ी गई उसमे से कुछ......

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जीवन की राहों में गाँठ एक जोड़ा
दुनिया जहान में ढूँढ लाए वर मोरा
नेह के नभ पिया मैं चाँद औ चकोरा
हाथ थाम चलूँ हिय प्रीत के हिलोरा
डोली में आई अब काँधे जाऊँ तोरा

पढाई कोई शौक के लिए थोड़ी की जाती है भला ! वह तो जरुरी होती है। यह उसे समझ नहीं आती। उसे तो खीझ हो उठती है, जब घर का हर सदस्य उसे कहता ,'मनु पढ़ ले !' हद तो ये भी है कि घर का पालतू , पिंजरे में बंद तोता भी पुकार उठता है ,'मनु पढ़ ले!' मनु परेशान हुआ सोच रहा है। ये पढाई बहुत ही खराब चीज़ है। पैंसिल मुँह में पकड़ कर गोल-गोल घुमा रहा है। " परीक्षा सर पर है , अब तो पढ़ ले मनु ! "


 " सॉरी सर मैं पार्टटाइम जॉब करती हूँ किसी का टाइम पास नही हूँ ।" 
कहते हुए फोन काटने तक मेरी आवाज में आज फिर भारीपन उतर चुका था..

सिर्फ नेह ही तो .....
बरसाए थे उमरते गगन ने!
स्नेह के....
अनुकूल थे कितने ही ये मौसम!
क्यूँ तंज कसने लगी है अब ये उमस?
दुरूह सा क्यूँ हुआ....
ये बदली का असह्य मौसम?


नवनिहारिका नशा नयन मद,
प्रेम अगन सघन वन दहके .
सुभग सुहागन अवनि अम्बर,
बिहँस विवश बस विश्व भी बहके.



ऐ वक्त.... जयश्री वर्मा
अपना हर लम्हा,हर क्षण,मैंने तेरे ही तो नाम लिखा,
बाल्यावस्था,तरुणाई,यौवन,हर वक्त तेरे साथ दिखा,
मैंने अपनी हर सांस का,हर पल,तुझ संग ही तो जिया,
तूने मुझे केवल,जन्मतिथि-पुण्यतिथि में दर्ज किया?

इसी के साथ इज़ाज़त दे 
सादर
यशोदा ..



गुरुवार, 24 अगस्त 2017

769.......ओस की बूँद जैसे नश्वर विश्वास पर


                                                        सादर अभिवादन!
                    मंगलवार को सर्वोच्च न्यायलय ने मुस्लिम महिलाओं को क़ानूनी हक़ देते हुए तीन तलाक़ के रिवाज को प्रतिबंधित करने का ऐतिहासिक फ़ैसला दिया जिसका व्यापक स्वागत किया जा रहा है। संविधान की आत्मा के अनुसार समानता का अधिकार पाना सबका हक़ है।  पाकिस्तान सहित 8 मुस्लिम देश इस प्रथा को समाप्त कर चुके हैं तो भारत में ऐसा होना आश्चर्यजनक नहीं है। 
       
       चलिए आपको अब आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर  ले चलते हैं -
ग्लोबल रायटर होने के दायित्व से विमुख लोग तकनीक और सहूलियत का दुरूपयोग कर रहे हैं। यहाँ भी बयां हो रहा है  कुछ विचारणीय , गगन शर्मा जी की एक सामयिक प्रस्तुति -

महिलाओं की "पोस्ट"पर न्यौछावर "कुछ" लोगों की अजीब मानसिकता.....गगन शर्मा, कुछ अलग सा


 वैसे कोशिशें जारी हैं इन पर भी तोहमत लगाने और नीचा दिखाने की !  अब तो जनता जनार्दन पर ही आशा है कि वह अपनी नींद त्यागे, अपने तथाकथित आकाओं की असलियत पहचाने, आँख मूँद कर उसकी बातों में ना आएं, नापे-तौलें फिर विश्वास करेंजाति-धर्म के साथ-साथ देश की भी सुध ले ! क्योंकि देश है तभी हमारा भी अस्तित्व है

     आदरणीय  दीदी साधना वैद जी की ताज़ा रचना जोकि  विश्वास की गहन व्याख्या करती है और उसके पहलुओं के अन्तर्सम्बन्ध उकेरती है।  पढ़िए मन में ताज़गी भरती एक गंभीर रचना - 

विश्वास......साधना वैद 


कैसा था यह विश्वास

 जो मन की सारी आस्था

सारी निष्ठा को

निमिष मात्र में हिला गया !  

किस विश्वास पर भरोसा करूँ

काँच से नाज़ुक विश्वास पर या

ओस की बूँद जैसे नश्वर

विश्वास पर

जैसा होना चाहिए जब वैसा हो तो व्यंग स्वतः अपना मार्ग तलाशता है। हमने ख़ूब सुना और पढ़ा है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए नियुक्त अमला ख़ुद भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता है।  कुछ ऐसा ही समाज का भ्रष्टाचार उजागर करती व्यंग के सिरमौर स्वर्गीय हरिशंकर परसाई जी की आदरणीय दिग्विजय अग्रवाल जी द्वारा प्रस्तुत एक शानदार कृति-

अश्लील .............हरिशंकर परसाई

शहर में ऐसा शोर था कि अश्‍लील साहित्‍य का बहुत प्रचार हो रहा है। अखबारों में समाचार और नागरिकों के पत्र छपते कि सड़कों के किनारे खुलेआम अश्‍लील पुस्‍तकें बिक रही हैं।

दस-बारह उत्‍साही समाज-सुधारक युवकों ने टोली बनाई और तय किया कि जहाँ भी मिलेगा हम ऐसे साहित्‍य को छीन लेंगे और उसकी सार्वजनिक होली जलाएँगे।


धरती को भले ही हमने राजनैतिक सीमाओं में बाँध लिया है लेकिन 

प्रकृति की अनमोल कृति कहलाता मनुष्य ही आज सर्वाधिक चर्चित है 

धरती की नैसर्गिकता को क्षति पहुँचाने के लिए।  पढ़िए एक सारगर्भित 

विचारोत्तेजक रचना सुधा देवरानी जी की -

धरती माँ की चेतावनी .......सुधा देवरानी 


अभी वक्त है संभल ले मानव !

खिलवाड़ कर तू पर्यावरण से

संतुलन बना प्रकृति का आगे,

बाहर निकल दर्प के आवरण से

चेतावनी समझ मौसम को कुदरत की !

वरना तेरी प्रगति ही तुझ पर भारी होगी

    अब तुझ पर ही तेरे विनाश की ,

        हर इक जिम्मेदारी होगी........

पम्मी जी की ताज़ातरीन रचना चुप होकर भी कितनी मुखर हो उठी है 

.....महसूस कीजिये एक मार्मिक अभिव्यक्ति में समाये एहसास

तुम चुप थी उस दिन.... पम्मी सिंह


जिंदगी की राहों से जो गुज़री हो 


जो ज़मीन तलाश कर सकी ,

मसाइलों की क्या बात करें..

ये उम्र के हर दौर से गुज़रती है.

  

 हिंदी के जाने माने साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध कवि स्वर्गीय  डॉक्टर चंद्रकांत देवताले जी की अंजू शर्मा जी द्वारा प्रस्तुत पेश हैं  दस प्रतिनिधि रचनाऐं-


मैं वेश्याओं की इज्जत कर सकता हूं
 पर सम्मानितों की वेश्याओं जैसी हरकतें देख
 भड़क उठता हूं पिकासो के सांड की तरह
 मैं बीस बार विस्थापित हुआ हूं
 और ज़ख्मों की भाषा और उनके गूंगेपन को
 अच्छी तरह समझता हूं
 उन फीतों को मैं कूड़ेदान में फेंक चुका हूं
 जिनमें भद्र लोग
 जिंदगी और कविता की नापजोख करते हैं


           
             आपके सारगर्भित सुझावों की प्रतीक्षा में  
               अब आज्ञा दें। 
              फिर मिलेंगे।




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