सभी को यथायोग्य
चौथे पड़ाव
चिहुँकता मौन
झेलते अकेलेपन का दंश
कल जो दिया
आज वही तो पाया
उदाहरण में कहाँ चूके वंश
भारतीय दीवारें
धान की क्यारियों में
भीगी-भीगी नरमाहट- सी
काली मिट्टी में निपजती
गौरांग नवजात -सी रूई की मखमली गुड़िया !
बरगद के पेड़ की
छाया को समेटती
पीपल की बांह पर
नीड़ों को सोने देती
तस्वीरों से भरी दीवारें
लटका दिया था
प्लास्टिक का हार,
धूल भी तो साफ नही करता कोई,
कि अब फ्रेम में दम भी घुटता है।
अब यहाँ कोने में पड़े हैं,
इंतजार है किसी दिन,
पोता आकर तोड़ देगा फ्रेम को,
आजाद हो जायेंगे,
खुली हवा में लौट जायेंगे।
कच्ची दीवार
दिल मुझपे लुटाया है तो कुछ खास नहीं
आज या कल में तो उनको भी समझना ही था
कितनी मुद्दत से जलाता रहा दिल को अपने
ऐसे गुलज़ार को दिलदार तो बनना ही था
अभी देर है
सजा लो लाख दरवाजे,दीवारें, महल या कोठी
बहुमूल्य इमारत से घर को बनाने में अभी देर है।
क्यों समझाते हो उन्हें, कद्र क्या है रिश्तों की
जिन्हें रिश्ता ही समझने में अभी देर है।
जिसकी तस्वीर आब - ऐ - चश्म से धुलता रहा,
उसे तुझ तक तो पहुंचने में अभी देर है।
><><
फिर मिलेंगे
शुभ प्रभात दीदी
जवाब देंहटाएंसादर नमन..
धूल भी तो साफ नही करता कोई,
कि अब फ्रेम में दम भी घुटता है।
होता ही है ऐसा..होने वाला भी है
उत्तम चयन
सादर
शुभ प्रभात। सुंदर प्रस्तुति। बधाई
जवाब देंहटाएंशुभ प्रभात आदरणीय
जवाब देंहटाएंआज संकलन पूर्णतः भिन्न है
दीवारों में छिपी भावनायें
कहीं क्रंदन करती ,पुकारती
आस से देखतीं ,टीसती
सत्यता के पट खोलती
दीवारें जीवन के कई रंग
बहुत उम्दा ! आभार
"एकलव्य"
बहुत ही सराहनीय उम्दा संकलन आदरणीय
जवाब देंहटाएंपठनीय लिंकों का संयोजन।
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति। बधाई..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति विभा जी।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंसुंदर संयोजन विभाजी...'दीवारें'शब्द से एक भूली हुई गजल याद आ गई....
जवाब देंहटाएंदीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएँगे ऐसा लगता है।
दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं
साँझ ढले इस सूने घर में मेला लगता है।
किसको 'कैसर' पत्थर मारें,कौन पराया है
शीशमहल में हर इक चेहरा अपना लगता है।
....सभी चयनित रचनाकारों को बधाई ।