निवेदन।


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सोमवार, 10 नवंबर 2025

4567 ..तुम्हारे चित्र, तुम्हारी मूर्ति से शोभायमान। पर वे हैं तुम्हारे दर्शन से अनभिज्ञ,

 सादर अभिवादन






शुरु  - शुरु  में  थोड़ा  मुश्किल  था  पर  मन  था  शुरुआत  हो  ही  गई । 
हालांकि  अभी भी  झिझक  गई  नहीं  है  ,  
यह  मन का  अजीब  द्वंद्व  है  जहाँ  इसे  नयी  दिशाओं  की  तलाश  भी  है  
और   एक  तरफ   नहीं   की  जकड़न  से   
बंधा  बार  -  बार   पीछे  को  खींचा  चला  जाता  है  ,  
पर  अब   जब   सफर  में   निकलने  के  लिए  
पहला  कदम  रख  ही  दिया  है
मेरा नया चैनल Nature feel of soul  





ये ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा बड़ी अजीब
शय है बाबू मोशाय!
जीने की बात पर मरना याद आता है,
ठहाकों के बीच रोना याद आता है,
जमीन पर चलते हुए आसमान याद आता है,
खुद को भूलो तो खुदा याद आता है,





हमेशा झूमते रहो सुबह से शाम तक,
बोतल के नीचे के आखिरी जाम तक,
खाली हो जाए तो भी जीभ टक-टका,
तब तलक जीभाएं, हलक आराम तक।




बुद्ध भगवान,
अमीरों के ड्राइंग रूम,
रईसों के मकान
तुम्हारे चित्र, तुम्हारी मूर्ति से शोभायमान।
पर वे हैं तुम्हारे दर्शन से अनभिज्ञ,





सुना है मौन की भी
भाषा होती है ।
बिना कुछ कहे भी
भावना व्यक्त होती है ।

सृष्टि का प्रत्येक कण
हर पल कुछ बोलता है ।
अस्तित्व में होना ही
उसका मुखर होना है ।





रात के अंधेरे का ख़त्म जब सफ़र होगा.
रौशनी की बाहों में, फिर से ये शहर होगा.

वक्त तो मुसाफिर है किसके पास ठहरा है,
आज है ये मुट्ठी में कल ये मुख़्तसर होगा.

****
आज बस
वंदन

रविवार, 9 नवंबर 2025

4566 ..बड़ी- बड़ी आँखों में दो जून की रोटी का रोना है नियति, ईंट- गारा और बालू ही ढोना है

 


सादर अभिवादन

कृपया एक दृष्टि अद्यतन रचनाों पर
***


वह अनदेखा, वह अनजाना
निकट से भी निकट लगता,
सुरभि सुमिरन की अनोखी
पोर-पोर प्रमुदित होता !

माँग जो भी, वह मिला है  
तुझसे न कोई गिला है,
कभी कुम्हलाया न अंतर
जिस घड़ी से यह खिला है !





मेरे प्यारे साहेब,
आज
मेरे, सिर्फ मेरे साहब' ही लिखूँगी
क्योंकि यह पूरा *'नवंबर * माह 'मेरा' है..
और आपने आज पूछा भी था कि
"सोचो, पूरा साल नवंबर हो तो.."...
सोचिए, नवंबर आपकी और
मेरी ज़िन्दगी में कितना
महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है..
तो बात यूँ हुई कि मन की तरंगें
द्रुत गति से दौड़ने लगीं और सच कहूँ
तो धड़कनें भी इस रहस्यमय
वार्तालाप का हिस्सा होना चाह रहीं..
यह प्रेम-प्रसंग होते ही हैं स्वप्निल इन्द्रधनुष माफ़िक..







एक दिन बेटे ने कुछ निश्चय करके उसने लकड़ी का एक ताबूत बनवाया।

उसने उस ताबूत में अपने पिता को डालकर वह खेतों के पास पहाड़ी पर ले गया। जब वह ताबूत को पहाड़ी से नीचे फेंकने ही वाला था कि ताबूत में खटखटाने की आवाज आई। उसने ताबूत खोला, तो उसके पिता ने कहा कि मैं जानता हूं कि तुम मुझे पहाड़ी से फेंकने वाले हो। इस सुंदर ताबूत को खराब करने की क्या जरूरत है। मुझे ऐसे ही फेंक दो। यह ताबूत तुम्हारे बेटे के काम आएगा। यह सुनकर बेटे को बड़ी लज्जा आई। वह फूट-फूटकर रोने लगा। उसने पिता से क्षमा मांगी और उसे वापस घर ले आया।




झुलसाती लपट बन गई दीपशिखा
मेटने तम अज्ञान, स्पृहा, विषाद का ,
छोटे-छोटे दीयों की सजा अल्पना
पर्व प्रकाश का मना रहा मतवाला !








बड़ी- बड़ी आँखों में दो जून की रोटी का रोना है
नियति, ईंट- गारा और बालू ही ढोना है
वो भला क्या जाने क्या होती है नजाकत
मटमैली धोती और ब्लाउज है देह पर
मर्दाना कमीज़ भी पहनी है उसके ऊपर
सकुचाती है छोटे कपड़ेवालियों को देखकर





आज बस
सादर वंदन

शनिवार, 8 नवंबर 2025

4565 ..अरे ये तो फिश पेडीक्योर है"... बहुत पहले इसके बारे में पढ़ा था

 सादर नमस्कार

शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

4564.... अंकुरित होने की आशा...

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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 असली प्रश्न यह नहीं कि मृत्यु के बाद
जीवन का अस्तित्व है कि नहीं,
असली प्रश्न तो यह कि 
क्या मृत्यु के पहले तुम
जीवित हो?
उपरोक्त कथन 
 किसी भी महान उपदेशक,विचार या चिंंतक का हो,
किंतु इन पंक्तियों में निहित संदेश
की सकारात्मकता आत्मसात करने योग्य है।
आज की रचनाऍं-

धरती का प्रेम
धैर्य में है
जो बंजर होने के बाद भी
अंकुरित होने की आशा
नहीं छोड़ती ! 


आग सिर्फ़ जंगल नहीं खाती,
वो भरोसा भी जलाती है —
कि कल भी हवा में हरियाली होगी,
कि पंछी लौटेंगे अपने घर,
कि धरती अब भी ज़िंदा है।

और अजीब बात यह है —
ये आग पेड़ों ने नहीं लगाई,
हमने लगाई थी…
अपनी ज़रूरतों, अपनी जल्दी,
और अपने अहंकार की तीली से।


विडंबना अक्षरः सत्य बदल गयी गजगामिनी हंस चालों को l
वैभव मधुमालिनी कुसुम रसखानी भूल गयी मधुर तानों को ll
अपरिचित सा ठहराव यहां रफ्तार आबोहवा बीच रातों को l
अदृश्य विचलित मन सौदा करता गिन गिन साँस धागों को ll



स्कूटर भाई, अब चलते हैं,

किसी कबाड़ी के यहां रहते है,

तुम भी पुराने, मैं भी पुराना,

बीत चुका है हमारा ज़माना। 



 

क्योंकि .. 

ब्याह लाए हो उसे तुम

साथ इक भीड़ की गवाही के,

तो तुम बन गए हो उसके ..

तथाकथित पति परमेश्वर,

या ख़ुदा जैसे ख़ाविंद।

है ना ? .. 

हे चराचर के स्वघोषित सर्वोत्तम चर जीव- नर !



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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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गुरुवार, 6 नवंबर 2025

4563...सोन, नर्मदा, चंबल, क्षिप्रा, सिंचित प्यारा मध्यप्रदेश...

 शीर्षक पंक्ति: आदरणीया कविता रावत जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 

पढ़िए आज की पसंदीदा रचनाएँ-

हाइकु मुक्तक-२

*****

बाग घर आँगन लिपवा लो

भाभी यह दालान लिखवा लो

पर अपने हिस्से भैया का प्यार नहीं दूँगा

 घुटनों के बल चले जहाँ पर खाए खील बताशे

दीवाली में लपट लाँघते खुब बजाए ताशे

यह माँ का कंगन बिकवा लो

भाभी यह अनबन मिटवा लो

पर इस आँगन में बनने दीवार नहीं दूँगा।

*****

मेरे ग़ज़ल संग्रह का द्वितीय संस्करण

मेरे ग़ज़ल संग्रह का द्वितीय संस्करण छप गया. नए कवर को डिजाइन किया है प्रोफ़ेसर अरुण जेतली जी ने. प्रकाशक लोकभारती. मूल्य 250 रूपये मात्र.

*****

हृदय देश का मध्यप्रदेश: महेश सक्सेना

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


बुधवार, 5 नवंबर 2025

4562..भला हुआ कब ऐब से?

प्रातःवंदन 

 उठो सोनेवालो, सबेरा हुआ है,

वतन के फकीरों का फेरा हुआ है।

जगो तो निराशा निशा खो रही है

सुनहरी सुपूरब दिशा हो रही है

चलो मोह की कालिमा धो रही है,

न अब कौम कोई पड़ी सो रही है।

तुम्हें किसलिए मोह घेरे हुआ है?

उठो सोनेवालो, सबेरा हुआ है।

अज्ञात


देव दीपोत्सव की शुभकामना के साथ,चलिए आज शुरुआत करते हैं ब्लॉग नया सवेरा की खास पेशकश...

बस इतने भर के लिए मिलना...




ना आँखों में पानी,

ना लफ्ज़ों में शिकवा…

बस एक ख़ामोश देख लेना है तुम्हें

जैसे रूह देखती है

अपना छूटा हुआ शरीर…

✨️

देसी विदेशी।

जेब में रूमाल, हाथ में घड़ी, और


पैंट की बैक पॉकेट में पर्स नजर आए,


तो समझ जाओ कि बंदा हिंदुस्तानी है।


ऊंची बिल्डिंग को ऊंट की तरह सर उठाकर देखे,


और उंगली हिलाकर मंजिलें गिनता नजर आए,


तो समझ जाओ कि.... भाई..

✨️

राह कटे संताप से !

फिर झुंझलाकर मैने पूछा


अपनी खाली जेब से


क्या मौज कटेगी जीवन की


झूठ और फरेब से


जेब ने बोला चुप कर चुरूए


भला हुआ कब ऐब से ..

✨️

चलती रही , मुश्किल सफ़र पे , ज़िंदगी मेरी

माँगा न कुछ , फिर क्यों भला तू ने , नज़र फेरी

तू भी तो कर, नज़रे इनायत , ओ खुदा मेरे

करती रहूँ , कब तक यूँ ही मैं , बंदगी तेरी..

✨️

।।इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह ' तृप्‍ति '

मंगलवार, 4 नवंबर 2025

4561...इतना ऊब गया हूॅं अब ज़िंदगी...

 मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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किसी से किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता नहीं है। आप स्वयं में जैसे हैं एकदम सही हैं। खुद को स्वीकारिये।-ओशो
और हाँ, मुझे ऐसा लगता है कि
समय-समय पर आत्ममंथन भी करते रहना
अंतर्मन की शांति के लिए औषधि है आत्ममंथन।
मन में उत्पन्न अनेक नकारात्मक विचारों की दिशा परिवर्तित कर जीवन की दशा में सकारात्मक ऊर्जा
प्रवाहित की जा सकती है।
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आज की रचनाऍं- 

अब मन से भी चीज़ें बेमन सी हो जाती हैं,
बस पग गिन-गिन कर सफ़र कर पार रहा हूँ मैं।
इतना ऊब गया हूँ अब ज़िंदगी के ऊहापोह से,
शांति की ख़ातिर ख़ुद को न्यौछार रहा हूँ मैं।



बहुत सूकुन है तुम्हारी सोहबत में
शायद तुम दरिया का किनारा हो

बेचैन 'नैन' तुम्हारे कर रहे चुगली
संदेशों के शायद तुम हरकारा हो



धूप दिन-भर
परछाई बुनती रहती है;
उसकी उँगलियों पर अब भी
मदार की छाया ठहरी है —
छाया,
थोड़ी-सी ठंडी,
थोड़ी बुझी-बुझी,
थकान में बंधी।


एक समंदर है आँखों में ।
दिल मगर प्यासा रहता है।।

ज़ख़्म जो हो गर सीने में।
उम्र-भर ताज़ा रहता है।।

रात जब सब सो जाते हैं ।
ख़्वाब तब जागा रहता है।।


मुख्य अतिथि या वरिष्ठ अतिथि वह बन सकता है जिसका समारोह से कोई स्वार्थ हो या वह संस्था का आर्थिक भला चाहता हो। वह इतना आदरणीय भी हो सकता है जिसको देखकर ही मन में आदर का भाव जगे और चरण वंदन का मन करे। जिसके आने की खबर सुनकर समारोह में चार चाँद लग जाय।

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आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।

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