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शनिवार, 20 दिसंबर 2025

4607... एहसासों के अनुवाद को ...

शनिवारीय अंक में
आपसभी का हार्दिक अभिनन्दन।
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कभी परदा जरूरी होता है   
कहीं परदा मजबूरी होता है
सजावट तो कभी सहूलियत
परदा ओट नहीं दूरी होता है
अधिकार के चुंबकीय क्षेत्र में
परदा मन का कस्तूरी होता है
जीवन के चारों ओर घूमता

परदा मन की धुरी होता है।
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आज की रचनाऍं-

अर्थ गीता के जग में अटल हो गये


सौ की मर्यादा टूटी सुदर्शन चला
पल वो शिशुपाल के काल-पल हो गए

रूह प्रारब्ध ही बस बचा किंतु तन
अग्नि, पृथ्वी, गगन, वायु, जल हो गए

कर के नारायणी कौरवों की तरफ़
कृष्ण ख़ुद पाण्डवों की बगल हो गए




मौन का संवाद 


भाषा परिभाषित करे भी कैसे

एहसासो के अनुवाद को

अनुच्चरित शब्द भी कैसे

गढ लेते हैं संवाद को

सुनने के लिए ज़रूरी नहीं है

कानों की मौजूदगी;

कभी-कभी सन्नाटा भी

वह कह जाता है जो

शोर की भीड़ में अकसर

अनसुना रह गया.



दुश्वार ये क्षण मुक्कू



विछोह, यही असह्य,
यूं बिखर गई, अपनी जगह से हर शै,
मुक्कू, तुम क्यूं बिछड़ गए,
क्यूं पड़ गए, कम जिंदगी के क्षण,
भ्राता मेरे, तुम यूं आए, 
यूं गए...

दुश्वार बड़ा ये क्षण! मुक्कू, तुम यूं आए, 
यूं गए...




फेरीवाला और नन्ही गुड़िया



साँवरी     गोरी     पहने   लाल
गुलाबी    केसरिया    पीला   नीला
हरा   धानी    घाघरा  -   चोल
सिर    पे   ओढ़े   वो   सतरंगी    चुनर    
देती    इंद्रधनुष     को   जो   टक्कर 




स्त्रियाॅं देवियाॅं नहीं


किसी भी स्थिति में केवल स्त्री होने के नाते किसी भी रूप में दण्ड की अधिकारी हैं. जब मैं घर संभालती हूँ, खर्च बचाती हूँ, माता-पिता की सेवा करती हूँ, तो मुझे देवी कहा जाता है. पर जब गलती हो जाए या परिस्थिति बिगड़ जाए, तो वही लोग मुझे राक्षसी कहकर मारपीट करने लगते हैं. हमारे साथ यह दोहरा व्यवहार क्यों? हम स्त्रियाँ हैं, एक मनुष्य मात्र, यदि पुरुष समाज हमें भी खुद की तरह इंसान समझे और स्त्रियों के साथ समानता का व्यवहार करे. हम इसके सिवा कुछ नहीं चाहतीं।“



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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।


2 टिप्‍पणियां:

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