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रविवार, 21 दिसंबर 2025

4608.... ज़िन्दगी कहने को बे-माया सही

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े 
हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े, 
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के गर्म अश्क 
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े।

मशहूर शायर 

उनकी रूहानी आवाज़ महसूस कीजिए।


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आइये आज की रचनाओं का आनंद लें।
आज के अंक में
हर  रचना के साथ कैफ़ी साहब की आवाज़ में
नज़्म और गज़ल के छोटे-छोटे वीडियो हैं।
रचनाएं लोग लिख नहीं रहे पांच कविताऍं
आसानी से मिलती ही नहीं आज की प्रस्तुति 
 एक प्रयोग भर है आप सभी साहित्य प्रेमी पाठकों के लिए ।
उम्मीद है आपको पसंद आयेगी।
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पाया भी उनको खो भी दिया चुप भी हो रहे
इक मुख़्तसर सी रात में सदियाँ गुज़र गईं

जो इक ख़ुदा नहीं मिलत तो इतना मातम क्यों
मुझे ख़ुद अपने क़दम का निशाँ नहीं मिलता



ये बुझी सी शाम ये सहमी हुई परछाइयाँ
ख़ून-ए-दिल भी इस फ़ज़ा में रंग भर सकता नहीं
आ उतर आ काँपते होंटों पे ऐ मायूस आह
सक़्फ़-ए-ज़िन्दाँ पर कोई पर्वाज़ कर सकता नहीं
झिलमिलाए मेरी पलकों पे मह-ओ-ख़ुर भी तो क्या?
इस अन्धेरे घर में इक तारा उतर सकता नहीं







ज़िन्दगी कहने को बे-माया सही
ग़म का सरमाया सही
मैं ने इस के लिए क्या-क्या न किया
कभी आसानी से इक साँस भी यमराज को अपना न दिया
आज से पहले, बहुत पहले
इसी आँगन में
धूप-भरे दामन में







ये साँप आज जो फन उठाए
मिरे रास्ते में खड़ा है
पड़ा था क़दम चाँद पर मेरा जिस दिन
उसी दिन इसे मार डाला था मैंने
ये हिन्दू नहीं है मुसलमाँ नहीं
ये दोनों का मग़्ज़ और ख़ूँ चाटता है
बने जब ये हिन्दू मुसलमान इंसाँ
उसी दिन ये कम-बख़्त मर जाएगा।






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