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सोमवार, 15 दिसंबर 2025

4602...चीख़े तुम सुन नहीं पाओगे

सोमवारीय अंक में
आपसभी का हार्दिक अभिनन्दन।
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स्वयं समर्थ हो तुम
जीवन का सार
संपूर्ण अर्थ हो तुम
उठाओ कटारी 
काट डालो
दुख की हर डाली 
रोक लो लौटते
सुख को
अड़ जाओ पथ पर
बाँध दो
ज़िद की ज़जीर भारी।
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आज की रचनाऍं-


पूर्वज



मन की क्षितिज पर, रमते अब भी वही, छलक उठते, ये नयन, जब भी बढ़ती नमी, यूं तो, घेरे लोग कितने, पर है इक कमी, संग, उनकी दुवाओं का, असर, वो हैं, इक नूर शब के, दूर कब हुए! वो, आसमां पे रब हुए.....


एक शख़्स मौजूद था


साथ है उसके वो 

कुछ ख़ास 

कुछ अपने 

कुछ मन पसंद 

कुछ लोग बस लोग 

मैं चुप हो गई

चुप शांत नहीं 

मेरे टुकड़े खोजती 

ना खोजती 

कहीं गुम 

कहीं खुली 

बस हूँ। 

किसी दिन बरसूँगी 

चीखें तुम नहीं सुन पाओगे। 




देश हमारा है


हर मौसम के 
रंग यहाँ 
फूलों की घाटी है ,
अनगिन 
वीर शहीदों की 
यह पावन माटी है ,
सत्यमेव जयते 
इसका 

सदियों से नारा है |



ट्रेन मिल गयी



वह लोकल पकड़कर विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन पहुँचा और पैदल गेटवे ऑफ इण्डिया तक चला गया. टिकट लिया और थोड़ी देर बाद नाव में बैठ गया. नाव तट से दूर हुई तो समुद्र की लहरें और तेज़ हवाएँ उसे रोमांचित करने लगीं. बाल हवा में उड़ रहे थे. नाव में दस-पंद्रह किशोर भी थे, जो पिकनिक के लिए एलिफेंटा जा रहे थे. नाव में ही उन से परिचय हुआ. नाव एलीफेंटा पहुँचती तब तक किशोरों से उसकी दोस्ती भी हो चुकी थी.





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आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।



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