निवेदन।


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शुक्रवार, 30 जून 2023

3804....बोले रे पपीहरा

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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बादलों की पोटली से 
टपकती बूँदों को देखकर
बंद काँच से टकराती
टिपटिपाहट मन में समेटकर
सूख चली अनगिनत स्मृतियाँ हरी हो रही है।
बचपन की बारिश आँखों में खड़ी हो रही है।
हवाओं की पाती भेजकर
भींगने संग बुलाती बारिश
फुहारें सोंधी खुशबुओं की
छींटती शीतलता लुभाती बारिश
छूकर मन, उम्र की दीवार से टकराकर,
बेआवाज़, बेरंग पानी की लड़ी हो रही है।
बचपन की बारिश आँखों में खड़ी हो रही है।
#श्वेता
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आइये आज की रचनाओं की दुनिया में-
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किसी के जाने के बाद
बीती स्मृतियों की टीस से भरा 
ख़त तकरीबन रोज़ ही लिखे जाते हैं, 
उनके जाने के निशान समय की बारिश में
फीके पड़ने तक...। 
चहकती चिड़ियों और पतंगों वाला आसमान .
सूरज चाँद या सितारों वाला आसमान .
जिसकी खिड़कियों से देखा जा सकता था
सुदूर क्षितिज तक फैली धूप , हरियाली .
बादलों की गडगड़ाहट सुन नाचता मोर
या अनीति का शोर 
खड़खड़ा उठती थीं खिड़कियाँ ,
विरोध में अनीति के ..

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वे बातें जो होना चाहती हैं 
वे अपने न हो सकने में बताती रहीं 
कि कितना ज़रूरी है न होना 
सुंदर गज़ल

फूट ही जानें दो गुबार दिल का अपने।
आने दो लब पे थोड़ी बगावती बातें।।
लफ्जों की लागलपेट बस की नही मेरे ।
कर नही सकता मैं ये मिलावटी बातें ।

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मृत्यु शाश्वत सत्य है किंतु समयानुसार हो या
 असमय किसी प्रिय की
साँसों का टूटना घात दे जाता है। 

एक कच्चा फल टूटा,
मैं जानता था 
कि हवाओं का दोष नहीं था,
न ही पत्थर चलाया था किसी ने,
पर उसका गिरना मुझे 
उतना बुरा नहीं लगा,
जितना अपना नहीं गिरना
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प्रकृति के अद्भुत,गूढ़ रहस्यों को समझ पाना संभव नहीं
किंतु इतना समझना तो बेहद आसान है कि
प्रकृति के सारे उपहार जीवों के सहूलियत के लिए ही हैं।
मगर चातक निर्द्वंदी है। उसमें कोयल की तरह रिझाने का गुण नहीं और न ही उसे धरती के सरोकारों से कुछ लेना-देना है। चातक एक ऐसा जीव है जो टकटकी बांधे बस आसमान को निहारता रहता है। आसमान की छाती पर छाए बादलों में स्वाती नक्षत्र की बूँदें जो मचलती हैं। उन्हीं की प्राप्ति हेतु पपिहा पियो पियो पियो की अतिरंजित पुकार में खोया-खोया दिन-रात  बिताने को मजबूर बना रहता है। समय कठोर है या अपने होने में पक्कावह चातक की टेर पर अपनी चाल नहीं बदलता। जब तक स्वाती नक्षत्र की बेला नहीं आती तब तक चातक की टेर विरही मन और बादलों के सीने में एक विकंपित टीस उत्पन्न कर उन्हें विह्वल बनाती रहती है। 
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और चलते-चलते
आपने भी सुना होगा 
कोस-कोस में पानी बदले,चार कोस में वाणी...
विभिन्न संस्कृतियों से संपन्न हमारे देश के
निवासियों के रहन-सहन, खान-पान को जानना समझना
अत्यंत रोचक है।

शायद सच में ही इतनी बड़ी है भी ये दुनिया कि अगर अथाह विराट ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण जानकारियों की बातें ना करके तुलनात्मक एक गौण अंशमात्र- समस्त धरती पर ही उपलब्ध हर क्षेत्र में व्याप्त एक-एक तत्व-वस्तु या हरेक पादप-प्राणी को हम जानने-समझने की बातें तो दूर .. हम केवल ताउम्र उनके नाम सुनने या देखने भर की भी बातें सोचें तो .. हमारे श्वसन और स्पंदन की जुगलबन्दी पर चलने वाला हमारा यह जीवन भले ही हर क्षण या हरेक क्षणांश में अपघटित होते-होते इस धरती से तिरोहित हो जाए, परन्तु सूची ख़त्म नहीं होगी .. शायद


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 आज के लिए इतना ही

कल का विशेष अंक लेकर

आ रही हैं प्रिय विभा दी।


गुरुवार, 29 जून 2023

3803...ज़िन्दगी को हमने, हर मोड़ पे बिखरते देखा...

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में आज पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

सदा सर्वदा

कजरारी काली रातों में,

तारा बन कर जीया करे।

वेदनाओं को भूल-भाल कर,

ख़ुशियों वाली राह चले॥

हर बार

जो पावन है वही शेष रहेगा

मायावी हर बार चला ही जाएगा

जैसे मृत्यु ले जाएगी देह

पर आत्मा तब भी निहारती रहेगी!

सूरजमुखी

लेन देन के सिवा
कुछ भी नहीं

हर क़दम इक
मरासिम

नए दस्तखत,
नए मुतालबे,
ज़िन्दगी
को हमने

हर मोड़ पे बिखरते देखा,

#भीगकर तुमने #बारिश में...

जो बूंदें थी नीचे जा गिरी ,

वो अभी तक #मदहोश पड़ी ,

कुछ बाहों में सिमटी सिमटी,

#किस्मत थी अच्छी जिनकी।

नदी का दर्द

कुछ घरों में औरतें

जलती है

सुबह से शाम तक

और रात होने पर

शरीर पर उग आये फफोले को

धो देती हैं नमक के पानी से

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव  


बुधवार, 28 जून 2023

3802 ....आत्मा का बोझ उठाए कौन?

 

सादर अभिवादन
सखी पम्मी जी प्रवास पर हैं
सो जवाबदारी निभाना परम कर्तव्य है
देखिए आज क्या है
ये लगातार तीसरी प्रस्तुति है
.....
शब्दों को नाकाफी देख
मैं तुम तक पहुँचाना चाहता हूं
कुछ स्पर्श
लेकिन केवल शब्द ही हैं
जो इन दूरियों को पार कर
परिन्दों से उड़ते पहुँच सकते हैं तुम तक
- पुरुषोत्तम अग्रवाल


आइए रचनाएं देखें


जीवन एक पहेली जैसा ! .....अनीता जी

छोटा  मन  विराट हो  फैले

ज्यों बूंद बने सागर अपार,

नव कलिका से  कुसुम पल्लवित 

क्षुद्र बीज बने वृक्ष विशाल ! 




मूँदी पलकों से ... सुबोध सिन्हा

धुँधलके में जीवन-संध्या के 

धुंधलाई नज़रें अब हमारी,

रोम छिद्रों की वर्णमाला सहित 

पहले की तरह पढ़ कहाँ पाती हैं भला

बला की मोहक प्रेमसिक्त .. 
कामातुर मुखमुद्राओं की वर्तनी तुम्हारी ..



आसन नहीं है पिता होना ..... अरुण साथी

कहां आसान है
किसी के लिए
पिता होना
और
आसान कहां है 
पिता के लिए
कुछ भी,
यहां तक रोना भी


हर तरह से खैरियत है ,होनी भी चाहिए,

गर, जेठ की दोपहरी में कुछ खास मिल जायें,

तो फिर क्या बात है..!!

पर....

कहॉं आसान होता है,

शब्दों में बयां करना।


आसान है शायद ... श्वेता सिन्हा
वर्तमान परिदृश्य में...
चमकदार प्रदर्शन की होड़ में

बाज़ारवाद के भौड़े शोर में

सिक्कों के भार से दबी लेखनी, 

आत्मा का बोझ उठाए कौन?

बेड़ियाँ हैं सत्य, उतार फेंकनी



आज बस इतना ही
सादर









मंगलवार, 27 जून 2023

3801...सुहागरात का पूर्वाभ्यास

 सादर आभिवादन

आल इज़ वेल..
बस कुछ ही दिन बाकी है
फिर एव्हरी थिंग इज़ वेल होगा
रचनाएं देखें ....
मानव सदा एकरस,
शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चैतन्य आत्मा है।
वह पूर्ण है, प्रेमस्वरूप है,
आनंद उसका स्वभाव है।
प्रेम तथा आनंद को व्य
क्त करना दैवीय गुण हैं।
आत्मा में रहना
सदा स्वीकार भाव में होने का नाम है



किसी ने नजरअंदाज किया
मेरा भ्रम तोड़ दिया
मुझे एक झटका लगा मलने
यह गलतफहमी पाली
मैं पूरी सक्षम हूँ



आंख में लज्जा पानी
बिंदिया लगती सुहानी
स्वर जब कोमल मधुर हो
स्वर्ग यह संसार हैं


लटक रहा रेशम डोरी पे,

झूला था मन के आँगन में।

झूल रहा था रोम-रोम मेरा,

वो बाँधे निज आलिंगन में।

मैं झूली कुछ ऐसे झूली

भूल गई अपनी काया भी,

खुलती जाती डोर स्वयं से

बिखरा जाता बूटा-बूटा॥



सारे कलाकार आपसी संवाद में
माह-दो माह भर के पूर्वाभ्यास से
और फलतः कर पाते हैं प्रायः एक दिन
एक कालजयी सफल मंचन ..बस यूँ ही...

चार दिन सीखे नहीं के सबको सिखलाने लगे
चंद ऐसे लोग ही हर सिम्त मंडराने लगे

आज बस
सादर


सोमवार, 26 जून 2023

3800 ..किस्सा की कहानी

 सादर अभिवादन


इन आँखों ने देखी न राह कहीं
इन्हें धो गया नेह का नीर नहीं,
करती मिट जाने की साध कभी,
इन प्राणों को मूक अधीर नहीं,
अलि छोड़ो न जीवन की तरणी,
उस सागर में जहाँ तीर नहीं!
कभी देखा नहीं वह देश जहाँ,
प्रिय से कम मादक पीर नहीं!
-महादेवी वर्मा


दूर तक तैरतीं काई,
जलोच्छ्वास लेते
कुछ कमलिनी,
जब देह बने जलासय,
तट के कचनार,
वन्य कुसुम, हरित तृण
बांस वन तक चाहें जल समाधि




अगस्त 1980 बड़ा बेटा चिकित्सक की पढ़ाई छोड़कर माँ के पास आ गया। उसे खर्च के लिए पिता पर बोझ नहीं बनना है। अपनी बहनों की पढ़ाई और शादी के खर्चों में सहयोग कर सके इसलिए खेती और व्यापार पर ध्यान देना है।




एक बकलोल और आलसी पाठक होने के बाद भी इन नाम से जुड़ी जो भी 'पोस्ट' सामने से गुजरी सभी को तन्मयता से पढ़ा। इन से जुडी मार्मिक घटनाओं के बारे में छिटपुट पढ़ कर इनके बारे में जानने की और भी उत्सुकता बढ़ती गयी। तभी सहज-सुलभ उपलब्ध 'गूगल' पर 'सर्च' करके तसल्ली हुई कि ये सारे दिख रहे 'पोस्ट' 'फेक' नहीं हैं। फिर 'अमेजॉन' पर खँगालने पर मिल ही गयी, वह मार्मिक इतिहास के घटनाक्रम की दफ़न पवित्र गीता .. शायद ... जिसका नाम है - "मेरा जीवन संघर्ष (दुर्लभ चित्रों सहित) -नीरा आर्य 'नागिन' की आत्मकथा" ....


भावना के ढेर को ताड़े हृदय
कुछ मिले ऐसा कि रचनाकर्म हो!

बंद दरवाजे खुलें आनंद के
बोल गूँजें गीत, कविता, छंद के
ताक में चिंतन, कहीं कुछ मर्म हो!



प्रकृति नें कितने ,
खूबसूरत रंगों से भरा है
इस दुनियाँ को
नीला आकाश ,नीला सागर
हरी-हरी घास



आज इतना ही
सादर

रविवार, 25 जून 2023

3799....हम न सोए रात थक कर सो गई 

जय मां हाटेशवरी...

आज हर्ष महसूस कर रहा हूं.....
3800वां अंक कल आने वाला है......
सभी स्नेहीजन पाठकों व चर्चाकारों का आभार.....
इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई 
हम न सोए रात थक कर सो गई ----राही मासूम रज़ा
अब पढ़िये मेरी पसंद.....

फ़ोटो में कितनी बातें छुप जाती हैं
फ़ोटो
सब एक जैसे होते हैं 
रतलाम हो
जबलपुर हो
शिमला हो
दिल्ली हो
धड़ से ऊपर का हिस्सा 
सब जगह का एक सा ही होता है

दोहे "बारिश अब घनघोर
हवा सुहानी बह रही, बादल करते शोर।
चपला चमकी गगन में, वन में नाचें मोर।।
--
पौध धान की हो गयी, अब बिल्कुल तैयार।
फिर से वीरान चमन, होगा अब गुलजार।।

 

आज़ादी
कुछ ने अपने दोस्तों के संग में | 
बाली सी उम्र में  गवाई जान 
मान सम्मान कपे  तुम उनको | 
जिन्होंने आजादी की लिया 
गवाए अपने जान |

हम किधर जा रहे हैं
संस्कृति की रक्षा का दम भरने वाले ही 
आज उसके हंता नज़र आ रहे हैं 
पता नहीं कैसा है यह काल 
और हम किधर जा रहे हैं ?

सीमा
मैं तुम्हारे बारे में कभी 
सही तरह बता ही नहीं पाता,
कभी कुछ, तो कभी कुछ 
रह ही जाता है. 
तुम्हारा होना प्रमाण है 
कि शब्दों की भी सीमा है.

आधा-अधूरा
अक्षर मिले कई
लुभावने शब्द भी
अर्थ नहीं मिला लेकिन
तुमने जितना लिखा
उतना ही पढ़ा गया मैं
आधा-अधूरा

ओ महुवे के फूल लगता जैसे चाँद चू गया
खुली गदोरी पर
फुदके पंछी हँसी-किरन के
ओरी-ओरी पर
साधों की हंसिनी, 
मगन हो पाँखें थिरकाये
ओ पूनम के फूल! 
कौन-सा मौसम तुम लाये

धन्यवाद....

       

शनिवार, 24 जून 2023

3798••• रहनुमा


हाज़िर हूँ...! पुनः 
उपस्थिति दर्ज हो...
   

पीठ ठोकी मेरी, और क्या चाहिए,

मंजिलों का मुझे बस पता चाहिए,

खुद-ब-खुद रास्ते पर चला आऊँगा,

आप सा बस कोई चाहिए रहनुमा

तेरी आबाज दब क्यों गयी है आंखें क्यों डर रही हैं,

ये हरकत ये नजीर सियासत को दागदर कर रही हैं,

जो नुमाइंदगी करने को चुने थे मासूम अवाम ने,

वे अब गलत को गलत कहने में खौफ खाते हैं,

रहनुमा

हौसला देती रहीं मुझको मेरी बैसाखियाँ,

सर उन्हीं के दम पे सारी मंज़िलें होती रहीं।

जंग में कागज़ी अफ़रात से क्या होता है,

हिम्मतें लड़ती हैं, तादाद से क्या होता है।

रहनुमा

कहाँ है हुस्न को मस्ती में होश-ए-इल्तिफ़ात ऐ दिल 

वो क्या अपनी ख़बर लेंगे नहीं जिन को ख़बर अपनी 

ज़हीन' अपने लिए दैर-ओ-हरम दोनों बराबर हैं 

जिधर से वो गुज़रते हैं वही है रहगुज़र अपनी

रहनुमा

तु  न मिली जो मुझको , जी तो मैं लूँगा , 

कल तक मेरी थी तु ये ख़ुशी तो रहेगा ,

ये कश्मे ये वादे सारे संभाले रखूँगा ,

कल फिर मेरी हो तु ये दुआ रब से करूँगा ,

रहनुमा

आपने कह दिया, हमने सुन भी लिया,

मंजिलें है जिधर, रास्ता चुन लिया,

आपका साथ हो, तो क्या हांसिल न हो,

जी बहुत शुक्रिया, जी बहुत शुक्रिया…

तजुर्बे

शतरंज की शह-मात,जिसे आती है

ज़िंदगी उसकी करामात सी,लगती है।

जीवन का हर पल हर क्षण,है परिवर्तनशील

स्वयं पर कर भरोसा,बन हसीं मह-ए-कामिल।

>>>>>><<<<<<
पुनः भेंट होगी...
>>>>>><<<<<<

शुक्रवार, 23 जून 2023

3797....कविता! तुम्हें जीना ही होगा

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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सोचती हूँ अक़्सर
लिखने वालों के लिए है भाव या भाषा अनमोल 
या पूँजी है आत्मा के स्वर का संपूर्ण कलोल?
महसूस होता है
वर्तमान परिदृश्य में...
चमकदार प्रदर्शन की होड़ में
बाज़ारवाद के हाँफते दौड़ में
सिक्कों के भार से दबी लेखनी, 
आत्मा का बोझ उठाए कौन?
बेड़ियाँ हैं सत्य, उतार फेंकनी
क्योंकि
स्वार्थी,लोलुप अजब-गजब किरदार,
आत्मविहीन स्याही के व्यापारी, ख़रीददार,
बिचौलिए बरगलाते हैं मर्म
कठपुतली है जिनके हाथों की
 सत्ता और धर्म...। -श्वेता

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आइये आज की रचनाओं के संसार में-

संवेदनहीन,कृत्रिमता के इस दौर में 
भावनाओं से भरी सकारात्मक लेखन का
आह्वान करती एक सहज,सुंदर और महत्वपूर्ण रचना।

पथराई संवेदना पर 
बिछानी होगी 
मख़मली मिट्टी की चादर 
ओक लगाकर 
पीना होगा 
महासागर-सा अप्रिय अनादर

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अप्रिय,अमर्यादित, तथ्यहीन व्यवहार पर
असंतोष व्यक्त करना,विरोध के स्वर मुखर करना 
लेखनी का धर्म है।

सह नहीं सकते कभी निंदा स्वयं  की वे
ये सियासी हैं महज जयकार देखेंगे
उस बार धोखे में तुम्हारे आ गए थे हम
क्या हमें करना है अब इस बार देखेंगे
याचकों जैसे कभी जो लोग आते थे
बाद में अकसर उन्हें मक्कार देखेंगे

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जीवन यात्रा में आत्ममंथन की महत्वपूर्ण भूमिका है
जो जीवन के हर पड़ाव पर आगे बढ़ने के लिए
दृष्टिकोण प्रदान करती है,प्रेरणा देती है।
लड़खड़ाया
गिरा, संभला
उठा ,चला
जीवन भर
खुद को
यात्री ही पाया


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मरूस्थल की स्मृतियों की हरियाली 
जीवन में सकारात्मकता और उम्मीद बनाये रखते है।
 अब 
कुछ पल टहलने आए बादल 
कुलांचें भरते हैं
अबोध छौने की तरह 
पढ़ते हैं मरुस्थल को 
बादलों को पढ़ना आता है
जैसे विरहिणी पढ़ती है 
उम्र भर एक ही प्रेम-पत्र बार-बार
वैसे ही
पढ़ा जाता है मरुस्थल को 
मरुस्थल होना

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और चलते-चलते वर्तमान लेखन पर एक
महत्वपूर्ण लेख। 
बोलना लिखना और पढ़ना

अब संपादक और संपादन (खुद को सुधार) का काम बचा नहीं। रही-सही कसर सोशल मीडिया की तकनीकी सुविधा ने निकाल दी। अपवाद को छोड़ दें तो, पहले के लेखक अपने लिखे को बार-बार सुधारते थे, अगला काम संपादक करता था। अब स्थिति यह है कि न खुद से सुधार का अवसर है, न संपादन की कोई गुंजाइश! कहाँ वे दिन जब संपादकों को भी संपादक की जरूरत होती थी, कहाँ आज का समय!भाषा का नैसर्गिक रूप बोलना है।
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आज के लिए इतना ही

कल का विशेष अंक लेकर

आ रही हैं प्रिय विभा दी।


गुरुवार, 22 जून 2023

3796...एक तपस्त्या एक व्रत, अनुशासन है योग...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया अनीता जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के लिंक्स के साथ हाज़िर हूँ।

आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

है बिंदास मन की

अपने मन की करने वाली जिद्दी है

कहना किसी का नहीं मानती

यही समस्या है उसकी। 

योग दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ

सुख की बाट न जोहिये, भीतर इसकी ख़ान

योग कला  को जानकर, पुलकित होते प्राण

 

एक तपस्त्या  एक व्रत, अनुशासन है योग

जीवन में जब आ जायमिट जाये हर रोग

पुनर्जन्म

माँ! इतना अच्छा होना भी न अच्छा नहीं होता आजकल। देखो न कोई भी कुछ भी कह जाता है आपसे..., बड़े तो बड़े अब छोटे भी!... और पापा! कम से कम उन्हें तो आपका पक्ष लेना चाहिए न! वे तो और भी महान हैं जब चाहें छोटी सी बात पे भी सबके सामने आपको झिड़कते रहते हैं और उस दिन तो हाथ भी...!

वर्तमान परिदृश्य में योग की आवश्यकता | internationalyogaday |

कहा जाता है कि जब योग का प्रचार दुनिया में शुरू हुआ तो इसका पहला प्रचार पश्चिमी देशों में उन लोगों में हुआ जो लोग वैज्ञानिक और ईसाई धर्म को मानने वाले थे। शुरूआत में जब भारत में रहकर ये लोग विदेश वापस गए तो अपने साथ आसन, प्राणायाम लेकर गए। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब ये लोग कैदी हो जाते थे तब इनकी कैदखाने में हालत खस्ता रहती थी। 

चलते-चलते पढ़िए योग पर रोचक अंदाज़ में चर्चा- 

जैसी दिशा वैसी दशा

"मैं योग को अपनी दिनचर्या में कभी भी शामिल नहीं किया। योग जरूरी है यह कभी समझ ही नहीं पाया। दो-दो पाँच के चक्कर में रहा। अपने पैसों के बल पर स्व के बल को इक्कीस समझता रहा। मुझसे उम्र में बीस और आर्थिक रूप से उन्नीस सरपट दौड़े जा रहे हैं। और मैं•••,"

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


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