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रविवार, 11 जून 2023

3785...टूट जाते हैं अपने आप ही ख़ुद के बनाए गए वज़नी आदर्श

शीर्षक पंक्ति :आदरणीय शांतनु सान्याल जी की रचना से.

सादर अभिवादन

आकस्मिक (अस्त-व्यस्त ) रविवारीय अंक में पाँच पसंदीदा रचनाओं के लिंक्स-

कविता | और हम हैं ख़ुश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

घर में एक दरवाजा
एक खिड़की
एक छत
एक चिमनी
घर के पीछे एक पेड़
आगे एक रस्ता
कुछ घास, कुछ फूल

जल समाधि - -



वो सभी तर्क
दर्शन हैं सतही हिमखंड से,
टूट जाते हैं अपने
आप ही ख़ुद
के बनाए
गए  
वज़नी आदर्श - मापदंड से,
गूंज को धरती गगन के मौन 

बरसों से था कुंठित दानव

पशुता जैसा ही था संस्कार

स्वार्थी कपटी था अंतर से

मन से दरिद्र भी था अपार.

नित्य कुकृत्य करता रहता था

नित्य बहाता रक्त की धार

अस्थि नोच खाता चंडाल

सुनता नहीं भीषण चीत्कार.


शब्दों का सफर

गहरे उतरने की क्रिया में 
तन्हाई से अटूट बंधन बनाते हुए 
जख्मों को उघाड़ उघाड़ कर 
कुरेदना पड़ता है । 

मद्रिद में मालिनी अवस्थी

संगीत संध्या में मंत्रमुग्ध श्रोता उस जादू को समझने से परे , बस, उस उठती गिरती स्वर लहरी पर आनंदित हो ताली बजा रहे हैं, अपनी जगह पर बैठे बैठे पाँव हिला कर नृत्यरत होने का मौन ऐलान कर रहे हैं। क्या बड़े, क्या छोटे…  कोई उस भाव भरे सम्मोहन से बच नहीं पाया है****फिर मिलेंगे.रवीन्द्र सिंह यादव 




9 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद बेहतरीन अंक
    आभार..
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहद बेहतरीन अंक
    आभार..
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह!बहुत खूबसूरत अंक अनुज रविन्द्र जी ।

    जवाब देंहटाएं
  4. अत्यधिक सुंदर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  5. आपका हृदयतल से आभार आदरणीया यशोदा जी, सभी रचनाएं अद्वितीय हैं शुभकामनाओं सह।

    जवाब देंहटाएं

    जवाब देंहटाएं
  6. सभी रचनाएं एकसे बढ़ कर एक हैं

    जवाब देंहटाएं

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