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शनिवार, 24 जून 2023

3798••• रहनुमा


हाज़िर हूँ...! पुनः 
उपस्थिति दर्ज हो...
   

पीठ ठोकी मेरी, और क्या चाहिए,

मंजिलों का मुझे बस पता चाहिए,

खुद-ब-खुद रास्ते पर चला आऊँगा,

आप सा बस कोई चाहिए रहनुमा

तेरी आबाज दब क्यों गयी है आंखें क्यों डर रही हैं,

ये हरकत ये नजीर सियासत को दागदर कर रही हैं,

जो नुमाइंदगी करने को चुने थे मासूम अवाम ने,

वे अब गलत को गलत कहने में खौफ खाते हैं,

रहनुमा

हौसला देती रहीं मुझको मेरी बैसाखियाँ,

सर उन्हीं के दम पे सारी मंज़िलें होती रहीं।

जंग में कागज़ी अफ़रात से क्या होता है,

हिम्मतें लड़ती हैं, तादाद से क्या होता है।

रहनुमा

कहाँ है हुस्न को मस्ती में होश-ए-इल्तिफ़ात ऐ दिल 

वो क्या अपनी ख़बर लेंगे नहीं जिन को ख़बर अपनी 

ज़हीन' अपने लिए दैर-ओ-हरम दोनों बराबर हैं 

जिधर से वो गुज़रते हैं वही है रहगुज़र अपनी

रहनुमा

तु  न मिली जो मुझको , जी तो मैं लूँगा , 

कल तक मेरी थी तु ये ख़ुशी तो रहेगा ,

ये कश्मे ये वादे सारे संभाले रखूँगा ,

कल फिर मेरी हो तु ये दुआ रब से करूँगा ,

रहनुमा

आपने कह दिया, हमने सुन भी लिया,

मंजिलें है जिधर, रास्ता चुन लिया,

आपका साथ हो, तो क्या हांसिल न हो,

जी बहुत शुक्रिया, जी बहुत शुक्रिया…

तजुर्बे

शतरंज की शह-मात,जिसे आती है

ज़िंदगी उसकी करामात सी,लगती है।

जीवन का हर पल हर क्षण,है परिवर्तनशील

स्वयं पर कर भरोसा,बन हसीं मह-ए-कामिल।

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पुनः भेंट होगी...
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2 टिप्‍पणियां:

  1. सदा की तरह
    सदाबहार अंक
    आभार.
    सादर वन्दे

    जवाब देंहटाएं
  2. जी.दी,एक से बढ़कर एक रचनाओं का शानदार संकलन, गज़ल और शाइरी पढ़कर लगा जाने कितने दिनों बाद कुछ पढ़ रहे।
    हमेशा की तरह लाज़वाब अंक दी।
    सादर प्रणाम।
    सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं

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