सादर अभिवादन..
चालू हो गई फिर से गिनती.....
चालू हो गई फिर से गिनती.....
01,02,03
चलना है...चलते रहना है
रुक गया जो..
रुक गया जो..
श्रेणी बदल जाती है उसकी
स्वतः ही...
चरैवेति - चरैवेति
मत पलट के देख..
क्या छूट गया पीछे
वो देख सामने खड़ा है
सत्रह तेरे इन्तज़ार में...
क्या छूट गया पीछे
वो देख सामने खड़ा है
सत्रह तेरे इन्तज़ार में...
सपनों में जीने वालों का
एक यही तो हासिल है
दिन भी बीता रीता-रीता
रात बिलखते बीत गयी !
आज मेरी लेखनी ने राजनीति की तरफ देखा,
आँखें इसकी चौंधिया गयी मस्तक पर छायी गहरी रेखा।
संसद भवन मे जाकर इसने नेता देखे बडे-बडे,
कुछ पसरे थे कुर्सी पर ,कुछ भाषण देते खडे-खडे
भाई, नुक्स निकालना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. देश हो या नियम कायदे, हम तो नुक्स निकालेंगे.
जल्दी ही चुनाव होंगे लेकिन उसके पहले ही लोगों के हाथों में स्याही लगी होगी,
कहीं आग लगी होगी तो कहीं धुंआ उठेगा. अब दिल ढूँढता है फिर फुरसत के चार दिन
मुरारी की तरफ़ मुखातिब होते हुए कहा, "आज तक तुम्हारे खाते में तनख्वाह के अलावा कभी एक धेला भी जमा नहीं हुआ होगा। इस बार उसमें अनायास एक लाख की रकम जमा हो गयी। बदकिस्मती से अगर कोई राजस्व अधिकारी पूछ बैठे कि यह रकम कहां से आई तब क्या स्पष्टीकरण देना होगा इसे भी सोच लेना।
कभी कभी कहानियाँ
यूँ खत्म हो जाती है !
वक़्त का मरहम मिलता नहीं
तो जैसे ज़ख्म हो जाती है !!
महक उठी थी केसर.....स्मृति आदित्य जोशी "फाल्गुनी"
महक उठी थी केसर
जहाँ चूमा था तुमने मुझे,
बही थी मेरे भीतर नशीली बयार
जब मुस्कुराए थे तुम,
देश की धड़कन
एक शहंशाह बहुत समझदार था....ईश मिश्रा
काश चलता होता
सत्य-अहिंसा से जम्हूरी सियासत का काम
करना पड़े सियासत में कितना भी छल फरेब
खुले न मगर किसी भी चाल का भेद
वह एक भी ऐसा शब्द नहीं बोलता
जो करुणा से हो न ओत-प्रोत
दिखता है वह ऐसे
हो जैसे मानवीय संवेदनाओं का श्रोत
करता वह शहंशाह रियाया से निरंतर संवाद
बताता है उन्हें गाहे-बगाहे अपने मन की बात
कभी मन-ही-मन शहीदों के साथ दिवाली मनाता
खेलता है होली सरहद पर सैनिकों के साथ
मलाल है उसे इस बात का
कर न सका सम्मान सैनिक बनने के ख़ाब का
मचा था जब सिक्कों की गफलत से मुल्क में कोलाहल
लगा उसे बह रहा है देशभक्ति का हलाहल
आज का शीर्षक..
और जिसे
बस समय
लिख रहा
होता है
समय पढ़
रहा होता है
समय ही
खुद सब कुछ
समझ रहा
होता है ।
आज अति हो गई..
आज्ञा दें यशोदा को
सादर
महक उठी थी केसर.....स्मृति आदित्य जोशी "फाल्गुनी"
महक उठी थी केसर
जहाँ चूमा था तुमने मुझे,
बही थी मेरे भीतर नशीली बयार
जब मुस्कुराए थे तुम,
देश की धड़कन
एक शहंशाह बहुत समझदार था....ईश मिश्रा
काश चलता होता
सत्य-अहिंसा से जम्हूरी सियासत का काम
करना पड़े सियासत में कितना भी छल फरेब
खुले न मगर किसी भी चाल का भेद
वह एक भी ऐसा शब्द नहीं बोलता
जो करुणा से हो न ओत-प्रोत
दिखता है वह ऐसे
हो जैसे मानवीय संवेदनाओं का श्रोत
करता वह शहंशाह रियाया से निरंतर संवाद
बताता है उन्हें गाहे-बगाहे अपने मन की बात
कभी मन-ही-मन शहीदों के साथ दिवाली मनाता
खेलता है होली सरहद पर सैनिकों के साथ
मलाल है उसे इस बात का
कर न सका सम्मान सैनिक बनने के ख़ाब का
मचा था जब सिक्कों की गफलत से मुल्क में कोलाहल
लगा उसे बह रहा है देशभक्ति का हलाहल
आज का शीर्षक..
और जिसे
बस समय
लिख रहा
होता है
समय पढ़
रहा होता है
समय ही
खुद सब कुछ
समझ रहा
होता है ।
आज अति हो गई..
आज्ञा दें यशोदा को
सादर