निवेदन।


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मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

837.....आई सी यू में अलौकिक शक्ति का रहस्य

सादर अभिवादन...
भाई कुलदीप जी ने पृष्ठ तो खोल दिया पर....
उनका नेट जो है न...
इन्टेन्सिव क्रिटिकल केयर यूनिट में जमा हो गया
सो उन्हीं के पेज में यशोदा आपके समक्ष.....

आई सी यू में अलौकिक शक्ति का रहस्य....प्रकाश गोविन्द
एक हॉस्पिटल के आई सी यू में
हर रविवार
एक ही बिस्तर पे ठीक 11 बजे
एक मौत हो रही थी
---
हर रविवार उसी बेड पर
ठीक उसी समय हो रही मौत 
डॉक्टरों की समझ से परे थी,

उनसे कह न पाते जो शब्द मेरे,
विस्तारपूर्वक कह गई थी उनसे मेरी नमी!
उस हार मे भी था जीत का एहसास,
विहँस रहे नैन उनके, समझ चुके वो मेरे मन की!

भँवर 
और तितली
फूलों से
बतियाने लगे,
गुलाब की 
खुशबू ने 
बाग का 
हर कोना 
महकाया है।

साथ कोई दे, न दे , पर धीमे धीमे दौड़िये !
अखंडित विश्वास लेकर धीमे धीमे दौड़िये !

दर्द सारे ही भुलाकर,हिमालय से हृदय में 
नियंत्रित तूफ़ान लेकर, धीमे धीमे दौड़िये !

मन सागर में ज्वार उठा 
आते देखा अपना 'चाँद' 

फिर अम्मी की ईद हुई 
छुट्टी पर घर आया 'चाँद' 

फिसलकर सर्प ऊपर से गिरा जब तेज आरे पर।
हुआ घायल, समझ दुश्मन, लिया फिर काट झुँझलाकर।
हुआ मुँह खून से लथपथ, जकड़ता शत्रु को ज्यों ही
मरे वह सर्प अज्ञानी, कथा-संदेश अतिसुंदर।।

यही वे शब्द हैं
उपयोग किया है
हरिवंश राय ने
शौकत थानवी ने भी
अपनाया इसे...
इन्हीं शब्दों से
हंसाया जग तो
काका हाथरसी ने

बस...
इज़ाज़त दें
यशोदा ..

सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

836..केवल अंधेरी खाई में गिरना ही हमारा भाग्य होगा।

आज लिखना मैं बहुत ही आवश्यक नहीं समझता। 
परन्तु भारत में इन जनप्रतिनिधियों की मनमानी देखकर हृदय में 
इनके प्रति सम्मान घटता जा रहा है। 
नित नये नियम - क़ानून केवल अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु, संविधान की मर्यादा को दरकिनार करना, विचारों की अभिव्यक्ति को 
कुचलने का षड़यंत्र ! 
इस अनोखे लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए कहीं से हितकर नहीं।  
अतः कुछ न लिखने से बेहतर कुछ लिखना अतिआवश्यक है। 
घूमने दो समय का पहिया !
चलने दो हमें भेड़ -चाल !
आशा है एक दिवस अवश्य पहुँच जायेंगे !
उस अँधेरी खाई की तरफ़ 
आवाज़ लगायेंगे और प्रतिउत्तर में हमारी ही ग़लतियों की 
प्रतिध्वनि हमें सुनाई देंगी। 
परन्तु अफ़सोस तब हम असमर्थ होंगे !
केवल अंधेरी खाई में गिरना ही हमारा भाग्य होगा।


सादर अभिवादन। 


 कवि : नितीश कुमार , कक्षा : 7th ,अपनाघर 

ऐ खुदा कुछ ऐसा कर, 
कि मेरी जिंदगी सुधर जाए | 
काश कुछ ऐसा हो, 
जिस पर मैं चल सकूं |  

आदरणीय "ओंकार" 


छूट गया पीछे स्टेशन,
ओझल हो गए परिजन,
जाने-पहचाने मकान,
गली-कूचे, सड़कें,
पेड़,चबूतरे- सब कुछ.

आदरणीय  "जयन्ती प्रसाद शर्मा"  
 शाह झांकते है बगल, हावी रहते चोर।।
बागी-दागी तंत्र को, कर देते कमजोर।
शासन का इन पर नहीं, चल पाता है जोर।। 
तुष्टिकरण समाज में, पैदा करता भेद। 

आदरणीय "ज्योति खरे" 


 तुम्हारे खामोश शब्द
समुंदर की लहरों जैसा कांपते रहे
और मैं 
प्रेम को बसाने की जिद में
बनाता रहा मिट्टी का घरोंदा

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


वक्त की रफ्तार ने जीना सिखाया,
जिन्दगी ने व्याकरण को है भुलाया,
प्यार-उल्फत के ठिकाने खो गये हैं।


"प्रकृति की कृपा" 
विचारों का प्रभाव पड़े !

रविवार, 29 अक्तूबर 2017

835....भाई रवीन्द्र जी बताइए न ..ऐसा क्यों होता है

सादर नमस्कार......
आज अंतिम दिन.....
कल उठ जाएँगे देवगण
सोच का विषय....घर पर कोई जब सोया रहता है तो...
माता - पिता बच्चों से कहते हैं..शोर मत मचाओ पापा जी उठ जाएँगे
और यहाँ देवगण देव शयनी एकादशी से जो सोते हैं
तो देवोत्थान एकादशी में ही उठते हैं....
इनके शयनकाल में ही सारे तीज त्योहार पड़ते है
जोर-शोर से पूजा-अर्चना की जाती है...
भाई रवीन्द्र जी बताइए न ..ऐसा क्यों होता है
....
श्वेता जी शुक्र को आई... शुक्र है
अच्छा लगा..विविधता के आयाम और बढ़ेंगे
पर तआज़्ज़ुब होता है कि वे सारा ब्लॉगिंग मोबाईल से ही करती हैं
सही है यदि ये..तो काबिले तआरीफ़ है...
शुभकामनाएँ उन्हें.....
......
आज-कल में पढ़ी-सुनी रचनाओं पर नज़र.....



तुम बिन....श्वेता सिन्हा
रात अमावस घुटन भरी,
घनघोर अंधेरा छाया है।
न दीप आस के बुझ जाए,
बाती में नींद ज़रा सी है।



आये   हैं  अमीर-फ़कीर    
हालात     बदलने,
ख़ुशी   केवल   इनकी     
हमनवा    हुई। 
मुश्किल   एक    से        
सवा    हुई।

संतप्त हूँ, 
तुम बिन संसृति से विरक्त हूँ,
पतझड़ में पात बिन, 
मैं डाल सा रिक्त हूँ...
हूँ चकोर, 
छटा चाँदनी सी तुम बिखेरो ना,
प्रिय, कुछ कहो! यूँ चुप तो तुम रहो ना!

दर्द की बेपनाही में अक्सर
दिल चीखकर रोता है बेआवाज़
पथराई नजरों की जुबां भी
हो जाती हैं खामोश जब !
ठीक उसी लम्हे,
फफककर फूटता है आबशार
खामोशियाँ आँसू बहाती हैं !!!

पिता ने बेटी से कहा, अब कुछ समझी? पतीले में ये जो गर्म पानी है उसे मुसीबत समझो। जो झेल गया वो चाय की तरह विजेता बनेगा और नहीं झेल पाया वो गर्म पानी रूपी मुसीबत में अपना सब कुछ खो बैठेगा। जब तक आलू और अंडे का गर्म पानी से पाला नहीं पड़ा था वो खुद को सर्वशक्तिमान समझते थे, लेकिन मुसीबत क्या आई उन्हें अपनी औकात पता चल गई। उन्होंने अपना असली स्वरूप ही खो दिया। हार मान ली और हारता वही है जो संघर्षों से डरता है।


कौन  हूँ मैं ?
आज उम्र के 
इस मोड़ पर आकर भी
ढूँढ रही हूँ 
अपनी पहचान
क्या है मेरा वजूद 
क्या एक नाम ही 
काफी नहीं ?

आज बस इतना काफी है..
आदेश दिग्विजय को
सादर





शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

834... आस्था


सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

दशहरा दीवाली छठ बताते हैं
बुराई से लड़ने की ताकत
और जीत दिलाती है
हमारी संस्कृति और हमारी

आस्था


झौंक देंगे पूरे शहर को  आग में
रहबरों का ही आसरा है उनको
इसलिये बड़ा हुआ है हौंसला
कोई उनका क्या बिगाड़ सकता है।


धर्म के नाम पर धोखा


लाचारों को गुमराह कर,
अपना साम्राज्य बना रहे हैं,
भक्ति के नाम पर ,
विवेक मिटा सही गलत की समझ मिटा रहे,
यह कैसा धंधा भगवान के नाम पर,
मासूम जिंदगियां लगा रहे दांव पर,


अनास्था के दौर में आस्था


यदि जडता परम्परा है तो परिवर्तन आधुनिकता है ।
परिवर्तन ही बनी बनाई धारणाओं का खंडन करके प्रेम के पक्ष मे माहौल तैयार करता है ।
जी हां प्रेम युद्ध का प्रतिपक्ष है ।
इस कृति मे महज विरोध और विश्लेषण भर नही है
 प्रेम का  सकारात्मक अनुचिन्तन है


प्रयोगवादी कविता


मैं आस्था हूं
तो मैं निरंतर उठते रहने की शक्ति हूं
...    ...    ...
जो मेरा कर्म है,उसमें मुझे संशय का नाम नहीं
वह मेरी अपनी सांस-सा पहचाना है


फूस के छप्पर पर


समझ से परे
जिंदगी के कई मोड़
जी चुके कई पल, कई लम्हें, कई कथाएं
लताओं के लिए अथाह सागर
पूरा जीवन सिमटता नजर आता


><><

फिर मिलेंगे




शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

833...जो तूफानों को किनारे तक पहुँचा दे...


प्रथम प्रस्तुति पर 
सादर अभिवादन
त्योहारों का मौसम समाप्त होने को है। आपने अपने घर में बची मिठाइयों और नमकीन जो आपको पसंद नहीं, अधजली बची मोमबत्तियाँ,बची रंगोली के रंग,पुरानी बिजली के झालर और  ऐसे ही आपके लिए अनुपयोगी चीजों का क्या किया???
कृपया, इन सब चीजों को फेंकने के बजाय गरीबों, जरुरतमंदों में सम्मान के साथ बाँट दे। किसी झोपड़ी में रोशनी हो जायेगी, किसी गरीब का मँहगी मिठाई खाने का सपना पूरा हो जायेगा। किसी झोपड़ी के दीवार में रंग-बिरंगी तितली,फूल बनाकर बच्चे खुश होंगे। संभव हो तो आपके और आपके बच्चों के काम  न आने वाली अनुपयोगी वस्तुएँ, कपड़े, खिलौने फेंकने के बजाय समय समय पर जरुरतमंदों को ससम्मान दे दें।

चलिये मेरी पसंद की आज की रचनाओं की ओर


मौन है गर्जन है

 रत है विरक्त है

शून्य है..

शब्द है पर खामोश है

नत है ..

हर ऊषा की प्रत्युषा भी



जो तूफानों में किनारे तक पहुंचा दे 
ऐसी अब कश्तियाँ नहीं मिलतीं
गम को गले से लगा कर खुशी बांटे
ऐसीं जादू की झप्पियाँ नहीं मिलतीं
ख़ुद के लिये जूझने वाले इस जहाँ में
एक ढूढों तो हज़ारों मिल जायेंगे
दूसरों की खुशी के लिये जूझने वाली 
आप जैसी हस्तियां नहीं मिलतीं।

याद  धूप  है  याद  छाँव  है,
तड़प-ओ-ख़लिश का एक गाँव है, 
याद  रात  है याद  ही दिन है,
न फ़लक़-ज़मीं पर होता पाँव है,
हिय में हूक होती है पल-पल,  
बेक़रारी में चश्म-ए-तर है। 

आदरणीया यशोदा दी के शानदार संकलन से

चिलमन के पीछे जाके ... क्यूँ छुप गया है वो...
मुश्किल से जुदाई का .. हम गम गटक रहें हैं..

नज़रो से तेरी पहले ही ... बेहोश है ये दुनिया...
नींद आती नहीं है न ही..कोई ख्व़ाब फटक रहें हैं..


अंतर्मन के अनछुये भावों को शब्द देती 
आदरणीया अपर्णा जी की 
बहुत सुंदर रचना

उड़ आए बीज कंही से;
कि लाख कोशिशों के बावजूद
उग ही आये कुछ अंकुर
बातें करने लगे हवा से
नाता जोड़ लिया इस धरा से,
गगन से और इंसानों से.......
और हम!
अपनी कोशिशों में भी हारते रहे..... 

जहाँ फैली थी मधुर चांदनी - 
शीतल जल के धारों पे , 
कुंदन जैसी रात थमी थी  ;
फेर आँखे जग - भर से वहां-
दो प्रेमी नटखट निकल पड़े !!

http://www.thahrav.com/2017/07/blog-post_18.html?m=1

जो भी ख़लिश थी दिल में एहसास हो गयी है
दर्द निस्बत मुझे कुछ खास हो गयी है

वजूद हर ख़ुशी का ग़म से है इस जहाँ में
फिर जिंदगी क्यूँ इतनी उदास हो गयी है

रोज पकाया 
जाता है 
कुछ ना कुछ 



अधपकों के 

बस में बस 

इतना ही 
तो होता है 
जो पकाने
के बाद
भी पका
ही नहीं
होता है। 

आज के लिए इतना ही
आप सभी के सुझाव 
की प्रतीक्षा में

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