सादर अभिवादन
सरेआम
सत्य का कत्ल हुआ
मक्कार मकड़ी, तुरन्त,
सिर से पैर तक जाला बुन गई
कड़ुआ धुआँ बंदी हुआ
केस चला
राह ने गवाही न दी
धूप ने कुछ न कहा
धरती आई।
मिट्टी बोली :
शव ने स्वयं कहा :
लकवा मार गया।
न्यायी संशय
भ्रमवश बोला :
कैदी छूट गया।
-केदारनाथ अग्रवाल
तैरती नींद में, धुंधली सी, लकीरें,
फिर उभर आई, वही भूली सी तस्वीरें!
अधर उनके, फिर, छंद कई लिखती गई,
यूं कहीं, अधख़िली सी, चंद कली खिलती गई,
सिमट आए, ख्वाब सारे, बंद पलकों तले,
उभरती रहीं, नींद में, तैरती लकीरें!
चाहत है के आँगन में चहकते हों परिन्दे,
फूलों से लदा एक शजर ठीक रहेगा.
मुश्किल ही सही वक़्त गुज़र जाएगा यूँ तो,
तुम साथ रहोगे तो सफ़र ठीक रहेगा.
प्यारे साहेब, दिल के रेले ही हैं जो यहाँ -वहाँ बिखरे मिलेंगे, हिसाब-किताब के जद्दोजहद में डूबे मिलेंगे.. किरचों से उठता धुआँ, सितारों से रिसता आकाश..कितनी तन्हाई है इस बेवक़्त की तन्हाई में..
साहेब, आप मेरे सब सवालों के जवाब जानते हैं न...आपके होने से मन स्वच्छन्द हो उड़ता जैसे नवीन पुष्पगुच्छ देख बाँछें खिलना तय.. इस रेशम-से लफ्ज़ो के जाल में मेरा वजूद..
उसे गालियों से भी
परहेज नहीं है,
असल में गालियाँ
उसकी ढाल हैं, कवच हैं,
जिनसे वह
हर दिन टकराते
उस रूखे संसार को
थोड़ा-सा दूर रखती है।
ये मन भी बड़ा अजीब है
कितनी ख्वाहिशें पाल लेता है
बस उन्मुक्त गगन में
अविरत ,विचरण करता रहता है
सोच को लगाम लगती ही नहीं
ऐसा होता ,वैसा होता
क्षण भर में तो कहाँ से कहाँ
आज बस
सादर वंदंन




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