जय मां हाटेशवरी.....
सादर नमन
वो समय निष्ठुर था
पर जाना आपका भी निश्चित था
विधाता के समक्ष
समय का हारना सुनिश्चित था
श्रद्धा सुमन से
वंदना करूँ मैं आपके चरणों की
आप जहां भी रहें
खुश रहें यही कामना मेरी।
सभी को पितृ पक्ष की शुभकामनाएँ।
पतवंत सिंह लिखते हैं,
“वज़ीर ख़ाँ ने गुरु गोबिंद सिंह के दोनों बेटों से कहा कि अगर वो इस्लाम धर्म क़बूल कर लें तो उनकी जान बख्शी जा सकती है. उन्होंने ऐसा
करने से इंकार कर दिया. तब वज़ीर ख़ाँ ने उन्हें ज़िंदा दीवार में चिनवा देने का आदेश दिया. तब उनकी उम्र आठ साल और छह साल थी.”
जब उनका सिर और कंधा चिनने से रह गया तब उनसे एक बार फिर धर्म बदलने के बारे में पूछा गया. इस बार भी इनकार करने के बाद उन्हें दीवार से निकाल कर वज़ीर ख़ाँ
के सामने पेश किया गया.
वज़ीर ख़ाँ ने उन्हें तलवार से मारे जाने का आदेश दे दिया. उनकी मौत की खबर सुनते ही साहबज़ादों की दादी माता गुजरी ने सदमे से दम तोड़ दिया.
एक जगह वह सीता की व्यथा और मनोभावों का आंकलन अपने स्तर से करते हुए यह भी लिखते हैं कि , " जब लक्ष्मण जंगल में पहुंच कर अचानक रथ को रोक देते हैं तथा रथ
से सीता को उतारते हुए बताते हैं कि भइया का आदेश है कि आप को यहीं छोड़ दूं । पर सीता विचलित नहीं होतीं। क्यों कि लक्ष्मण उन के पास हैं। लेकिन जब लक्ष्मण
रथ पर चढ़ कर चल देते हैं तब भी सीता विचलित नहीं होतीं। लक्ष्मण अचानक आंख से ओझल होते हैं तो जब तक उन का रथ दिखता रहता है, सीता तब तक विचलित नहीं होतीं। रथ ओझल होता है तो रथ का ध्वज दिखने लगता है।
जब तक रथ का ध्वज दिखता रहता है, सीता विचलित नहीं होतीं। लेकिन जब रथ का ध्वज भी ओझल हो जाता है, सीता विलाप करती
हैं। इतना जोर से विलाप करती हैं कि दूब चर रहे मृग के मुंह से दूब गिर जाती है। आकाश में उड़ते पक्षी ठहर जाते हैं। वृक्ष की शाखाएं आपस में रगड़ खाने लगती
हैं। मानो पूरा वन ही सीता के शोक में डूब जाता है। समूचा वन सीता के साथ विलाप करने लगता है। तो उनके मन में यह भी ख्याल आता है कि " तो क्या जब सिद्धार्थ
यशोधरा को छोड़ कर गए तो लुंबिनी भी यशोधरा के साथ विलाप में डूबी थी ? यशोधरा के शोक में संलग्न हुई थी लुंबिनी ? कोई उत्तर नहीं है।"
छपने के बाद
तमाम अकादमियों को ढूँढना पड़ता है
जो अमुक वर्ष में अमुक प्रकार की
प्रकाशित कृतियों को स्वीकार करता हो
उस अमुक प्रांत का बन के दिखाना पड़ता है
रोज मरते हैं वो जिनकी गैरत मरी, स्वाभिमानी कभी रोज मरते नहीं।
जब कांटों में रहने का फन आ गया
चाहे नफ़रत हो कितनी वो डरते नही।
लेकिन वो झूठी कहानी नहीं लिखना चाहती थी। उसने आसमान से झरते अक्टूबर के आगे हथेलियाँ फैला दीं। घर पहुँची तो लड़का इंतज़ार करता मिला। अरे...तुम तो चले गए थे न? मैं कहाँ गया हूँ। कब तक इस डर को जीती रहोगी। कहीं नहीं गया मैं। ख्वाब था तुम्हारा। लो चाय पियो।
धन्यवाद।
शानदार प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार आपका
सादर
बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सार्थक प्रस्तुति सादर
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