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गुरुवार, 23 सितंबर 2021

3160...हम सभी चले जा रहे हैं कहीं करते हुये भरोसा...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय अरुण चंद्र रॉय जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक लेकर हाज़िर हूँ।

आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

एकांत में वार्तालाप

मेरे सामने चींटियाँ

चल रही हैं एक दूसरे के पीछे

हम सभी चले जा रहे हैं कहीं

करते हुये भरोसा

 

६०३. मौसम


हवाएं ख़ामोश हैं,

पत्ते गुमसुम,

पसीने की जैसे

नदी बह रही है,

पर आज मौसम अच्छा है,


साधारण ही हूँ


और मैं 

अब भी 

वहीं खड़ा हूँ 

अपने सीमित शब्दकोश की 

असीमित देहरी के भीतर 

जहां कल्पना का खाद-पानी पा कर

अंकुरित होती बातें 

अविकसित या अल्पविकसित ही रह कर 

पूर्ण हो ही नहीं पातीं 

क्योंकि मैं जानता हूँ 

अपने शाब्दिक कुपोषण का कारण


पितृपक्ष


उनकी दुआओं ने बुने थे आसमान,

हम उसी छत के नीचे हैं खड़े हुए

श्राद्ध के दिन आते हैं वो भाव से पृथ्वी पर

श्रद्धा के सुमन अर्पित हैं,

ग्रहण कर लें वो आशीष देते हुए

 

मुफ्त में सब्जी

हर सब्जी के दामों में,वे लगे दो-दो रुपए घटवाने।

एक बूढ़ी सब्जी वाली, जो दिखती चेहरे की भोली।

मुट्ठी भर धनिया-पत्ती का वह, दाम दो रुपए बोली।

पति महोदय हंसकर बोले,मुफ्त में दो धनिया पत्ती।

बूढ़ी सब्जी वाली के चेहरे पर,साफ दिखी आपत्ति।

*****

आज बस यहीं तक 

फिर मिलेंगे अगले गुरुवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


8 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात
    सुन्दर अंक
    पढ़ती बाद में हूँ
    पहले शेयर करती हूं
    शानदार अंक
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन प्रस्तुति.आभार

    जवाब देंहटाएं
  3. सरस,सरल धारा में बहती हुई सुंदर रचनाएं ।संदेशपूर्ण और सामयिक भी ।सभी लिंक्स पर हो आई ।बहुत आभार आपका रवीन्द्र सिंह यादव जी ।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर संदेशात्मक रचनाएं। उम्मदा प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  5. हमेशा की तरह बहुत ही उम्दा और सुंदर प्रस्तुति!

    जवाब देंहटाएं

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