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सोमवार, 13 सितंबर 2021

3150 ------- जबान संभाल के श्रीमान, संघ नहीं है तालिबान!

  नमस्कार , गणपति बहुत लोगों के घर में पधार चुके हैं ..... हम भी यहाँ ॐ गणपतये नमः 🙏🙏 कर आज के लिंक्स आप तक पहुँचाने का श्री गणेश करते हैं । कल हिंदी दिवस है । 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया था । राष्ट्र भाषा के रूप में अभी तक स्वीकार नहीं किया गया है । हिंदी का प्रचार - प्रसार केवल दिवस , सप्ताह या पखवाड़ा मना कर  नहीं किया जा सकता । इस दिन सरकार के संस्थानों में कुछ  प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं ऐसे ही विद्यालयों में बहुत से कार्यक्रम  प्रस्तुत किये जाते हैं ,मात्र यह प्रयास काफी नहीं हैं । जन जन की भाषा बनाने के लिए आवश्यक है कि हम नौकरियों को प्राप्त करने के लिए हिंदी को प्राथमिकता दें । जब भाषा जीविकोपार्जन से जुड़ेगी तो स्वयं ही उसका उत्थान हो जाएगा । 


खैर जितना विशाल देश उतनी ही ज्यादा समस्याएँ ...... एक को छोड़ते हैं तो  दूसरी सामने खड़ी दिखती है ....... कवि और शायर  भी कुछ भ्रमित से हो गए हैं । पहले सुनते थे कि शायरी  गम ऐ इश्क का दरिया है जिसमे लोग डूब जाते हैं । लेकिन आज कल  शायरी का विषय भी  बदल गया है ......ज़रा मुलाहिज़ा फरमाइए 

अरुण निगम जी को चिंता है गाँव की शहर की --- 

खेतों में बनी बस्ती

शहरों में नजर आती है खूब धनी बस्ती

गाँवों में मगर क्यों है अश्कों से सनी बस्ती।


ये चिंता खाली गाँव और शहर की नहीं ..... किसी एक देश की नहीं ....... कवि हृदय तो न जाने क्या क्या सोचता है और  जो देखता है उसे शब्दों में  ढालने  का प्रयास करता है ..…. इसी संदर्भ में पढ़िए पेरू की चर्चित कवयित्री  विक्टोरिया ग्युरेरो की कविता   का अनुवाद जो  अरुण चंद्र राय जी द्वारा किया गया है ........----

 एनएन 3

बोलो?
क्या कविता बोलेगी, उठाएगी प्रश्न?

मैं चिल्लाना चाहती हूँ
मेरा गला सूख गया है
मेरा गला, अरसे से है खामोश, रूंध गया है |

क्या वाकई कोई  कविता  इन प्रश्नों को उठा पाएगी ?  जीवन में जहां सामाजिक सरोकार हैं वहाँ कुछ नितांत निजी सरोकार भी हो सकते हैं  ....... वो भी किसी कवि की दृष्टि से छुपते नहीं हैं  ,मन में न जाने कितनी आस लगाए बैठते हैं , कुछ ऐसे ही भावों को उजागर किया है रेखा श्रीवास्तव जी ने  ----


आस लिए बैठे हैं !


वक्त गुजरता जा रहा है तूफान की तरह तेजी से ,

हम पोटली थामे यादों की आज भी लिए बैठे हैं ।


अब आशा का क्या भला , हमारी उम्मीदें इतनी हो जाती हैं कि हमें बहुत बार सही गलत भी नज़र नहीं आता । अपनी ही धुन में न कुछ सोच पाते न ही देख  पाते ..... ऐसा ही कुछ पढ़ा रही हैं प्रतिभा सक्सेना जी ..... लेकिन एक शर्त के साथ  ------ 

किसी को मत बताना .


( पता नहीं क्यों कॉपी नहीं हो रहा था तो स्क्रीन शॉट लेना पड़ा )

वैसे सच ही न जाने ज़िन्दगी में क्या क्या छुपाना  पड़ जाता है ...

कुछ लोगों की नज़र बचा कर तो कुछ बिंदास करते  हैं  प्यार , लेकिन अमृता तन्मय जी खूब मिर्च मसालों का तड़का  ले कर आई हैं कि यदि ये सब नहीं तो फिर -------

वो प्रेम ही क्या ......

वो प्रेम ही क्या

जो दूसरों के मनोरंजन के लिए

खेल वाला गुड्डा-गुड्डी बनकर

सबको खुश कर जाए

फिर अपने बीच होते

पारंपरिक खटरागी खटर-पटर से

सबों को मिर्च-मसाला दे कर

खूब तालियां बजवाए


लीजिए साहब प्रेम की तो बतकहियाँ खूब होती हैं  लेकिन हमारे बुद्धिजीवी लोग भी कम नहीं कुछ कहने में ....... अब जावेद जी को कौन नहीं जानता ? जी हाँ जावेद अख्तर जी ...... कभी कभी बेतुके बयान दे बैठते हैं और हमारे वोकल बाबा छोड़ते नहीं उनको  -- 

जबान संभाल के श्रीमान, संघ नहीं है तालिबान!

राजनीति में बहुत कुछ कहा-सुना जाता है।  राजनेता और उनके समर्थक एक तरह से मानकर चलते है कि लोकतंत्र में उन्हें कुछ भी कहने- करने का अधिकार है । इसके साथ ही लोगों को गुमराह करने और फेक  नैरेटिव के निर्माण का विशेषाधिकार भी उन्हें प्राप्त है। मेरी पार्टी को छोड़कर बाकी सारी पार्टियाँ बेकार हैं जैसा विचार रखना और उसका बचाव करना इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। राजनेताओं और उनके समर्थकों की इसी खुशफहमी के चलते हमें उनकी अच्छी के साथ-साथ  बकवास बातें भी लगातार सुनने को मिलती हैं और सुनने को मिलते हैं जरूरत से ज्यादा ग़ैर जिम्मेदाराना बयान। तमाम सिलेब्रिटी यानी जाने-पहचाने या पब्लिक फिगर भी बेतुके बयान देने से नहीं चूकते है। ऐसे ही चंद बयानों के पोस्टमॉर्टम पर ये लेख आधारित है। लेकिन पहले उस  घटना का जिक्र करना ज़रूरी है जिसके सन्दर्भ में बहुत से बेतुके बयान दिए गए हैं या दिए जा रहे हैं। 


चलिए हो गयी बहुत बयानबाजी ........ उम्मीद है आज के लिंक्स का आप सब ही भर पूर आनंद उठाएंगे ..... अपनी प्रतिक्रिया से अवगत  कराइएगा ..... 

 चलते चलते -----

एक बहुत संवेदनशील रचना ...... अफगान में होने वाले क्रूरतम व्यवहार पर एक भावपूर्ण सशक्त कविता ..


(अफगानिस्तान के वर्तमान हालात पर एक व्याकुल


 कविता)  गिरीश पंकज जी .... 



जूझ रही 'आदमखोरों' से, हर औरत अफगान की।
नादानों को कहाँ सूझती हैं बातें सम्मान की।।

नाम भले मज़हब का लेते, पर मज़हब से दूर  हुए।
हाथों  में हथियार थाम कर, नामरदे सब क्रूर हुए।
छीन लिया महिलाओं का हक, कैद किया अधिकारों को। 
शर्म नहीं आती है थोड़ी, मजहब के हत्यारों को।
विश्व देखता दुःखद कहानी, अब तो तालिबान की।
जूझ रही आदमखोरों से, हर औरत अफगान की।।

फिर मिलते हैं अगले सोमवार इसी समय , इसी मंच पर ..... तब तक के लिए ब्लोगिंग कीजिये ...... टिप्पणियाँ दीजिये  .....................

नमस्कार 

संगीता स्वरुप ... 





26 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय दीदी
    बहुत सुन्दर रचनाएँ
    गिरीश भैय्या जी की पेरौडी बढ़िया है
    (इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की)
    शानदार शब्दविन्यास है
    आभार
    सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुक्रिया यशोदा ।
      वैसे पैरोडी में हास्य रचनाएँ शामिल की जाती हैं ।

      हटाएं
  2. बहुत सुंदर और सार्थक लिंकों का चयन। सभी रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाइयां व शुभकामनाएं। आदरणीया संगीता स्वरूप(गीत)जी को ढेर सारी बधाईयाँ और शुभकामनायें। सादर ।

    जवाब देंहटाएं
  3. "जूझ रही 'आदमखोरों' से, हर औरत अफगान की।" बहुत सुंदर, तालिबानी सोच ही ऐसा है..वह सम्मान और हक की बात कैसे करेंगी"?

    जवाब देंहटाएं
  4. जी दी,
    आपकी लिखी भूमिका पर मेरे विचार-
    हिंदी को नारों की नहीं हमारे विश्वास की जरुरत है।
    हिंदी को दया की नहीं सम्मान की आवश्यकता है।
    हिंदी माध्यम से पढ़ने वालों को एक वर्ग विशेष से जोड़कर देखा जाता है जो अविकसित है और कुछ नहीं तो फिसड्डी का तमगा तो मिल ही जाता है,हिंदी पढ़कर पेटभर रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल से होता है , आखिर क्यों हमारी शिक्षा-प्रणाली को इतना समृद्ध नहीं किया गया और जब हमने विदेशी भाषा को आत्मसात कर ही लिया है तो सिर्फ़ दिवस के नाम पर उसे गरियाने का कोई औचित्य भी नहीं समझ आता। शुद्ध हिंदी लिखना आज की पीढ़ी के लिए बेहद कठिन कार्य है। स्कूलों में हिंदी के सिखाने वाले या तो कम जानकारी रखते हैं या बच्चों की छोटी-छोटी अशुद्धियों पर ध्यान नहीं देते,सिखाने के नाम पर खानापूर्ति भी हिंदी के त्रुटिपूर्ण गिरते स्तर की वजह है।
    राजभाषा के सम्मान का अर्थ किसी दूसरी भाषा का विरोध नहीं है। पर हाँ,अंग्रेज बनते भारतीयों तक यह संदेश अवश्य पहुँचाना है कि आपके देश की राजभाषा आपका अभिमान बने तभी आप आत्मसम्मान और गर्व से दूसरे देशों के समक्ष गौरव की अनुभूति कर पायेंगे।
    थोड़ा-सा लंबी हो गयी है झेल लीजिए।
    सभी समसामयिक रचनाएँ उत्कृष्ट हैं।
    सुंदर सुरूचिसंपन्न सोमवारीय विशेषांक के लिए आभार दी।

    सप्रेम प्रणाम
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. थोड़ी-सी लंबी हो गयी है प्रतिक्रिया झेल लीजिएगा🙏

      हटाएं
    2. यही तो हमारी हिन्दी की विडंबना है कि अपने विचार को प्रभावी ढंग से रखते हुए भी क्षमा की मनोदशा में हम ही आ जाते हैं । आपके विचारों को समझने की आवश्यकता है न कि झेलने की । निज सम्मान ही पर सम्मान को उन्मुख करता है । आभार ।

      हटाएं
    3. आपका स्नेहिल समर्थन अमूल्य है अमृता जी।
      बहुत शुक्रिया
      सादर।

      हटाएं
    4. प्रिय श्वेता ,
      तुम्हारा लिखा एक एक शब्द सत्य है । हिंदी को सम्मान की ज़रूरत है । इतने वर्षों की आज़ादी के बाद होना तो ये चाहिए था कि जिसको हिंदी नहीं आती हो उसे गरियाया जाय 😄😄 लेकिन होता उल्टा है ।खैर अपने विचार लिखते समय शब्द सीमा से बंधने की आवश्यकता नहीं है । यहॉं झेलने वाली बात नहीं है । खुशी होती है जब कोई भी आने विचार रखता है । प्रस्तुति को सराहने के लिए धन्यवाद ।

      हटाएं
    5. अमृता जी ,
      आपने बिल्कुल सही कहा ।
      "आपके विचारों को समझने की आवश्यकता है न कि झेलने की । निज सम्मान ही पर सम्मान को उन्मुख करता है "
      👍👍👍👍
      आभार

      हटाएं
  5. हिन्दी के सत्य को वर्तमान संदर्भ से जोड़ते हुए विस्मय-विमुग्ध करती प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आपको । विभिन्न विषयों में एक संवेदनशील सामंजस्य सर्वोत्तम चयन को इंगित कर रहा है । जो किंचित मात्र भी भानुमती का कुनबा जैसा नहीं है । हार्दिक आभार एवं शुभकामनाएँ आपको ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अमृता जी ,
      आपकी प्रतिक्रिया निश्चित ही ऊर्जा का स्रोत बन जाती है । हृदयतल से आभार ।

      हटाएं
  6. हिन्दी की स्थिति के लिए उसके शुभचिंतक ही जिमीदार हैं. लिंक बढ़िया हैं. जाते हैं

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कुछ ज्यादा ही चिंता दिखा देते हैं ऐसे शुभचिंतक ।
      शुक्रिया ।

      हटाएं
  7. चल रही है कछुए की चाल..
    चलते-चलते 44 देशों तक पहुंच गई
    आवारा हूँ ने रूस में धूम मचा दिया
    अटल-मोदी ने हिन्दी में सभागार को संबोधित
    कर पूरे विश्व को आश्चर्य में डाल दिया।.
    साहस कर रहे हैं और करते रहेंगें..
    सादर प्रणाम..

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दिग्विजय जी ,
      हिंदी अपनी मंथर गति से निरंतर आगे बढ़ रही है लेकिन हम भारतीयों की ही मानसिकता का क्या करें जो अंग्रेज़ी में कमज़ोर होनेवलों को निम्न दृष्टि से देखते हैं ।

      हटाएं
    2. आदरणीय दीदी
      आक्रमण हुआ भारत में
      मुट्ठी भर सैनिकों के साथ मुगल आए
      साथ में उर्दू लाए,मस्जिद बनाए
      अपनी सेना में भारतीयों को शामिल कर
      मुसलमान भी बनाए..शैने-शैने नए मुसलमानों
      नें अपनी आबादी बढ़ाई..
      कुछ वर्षों के बाद अंग्रेज आए, शुद्ध व्यापार किया..लोगों को नौकरी पर रक्खा..चर्च भी बनाए...कतिपय ज़रूरतमंद लोगों की जरूरतें सशर्त पूरी की इसाई धर्म में दीक्षित कर..
      उपरोक्त दोनों कौम नें भारतीय राजाओं के बिखराव का भरपूर लाभ उठाया..
      पहले भारत में न तो मुसलमान थे और न ही इसाई..
      अंग्रेज और मुसलमान तो गए...
      छोड़ गए उर्दू और अंग्रेजी और साथ ही आपसी वैमनस्यता का पुरस्कार भी दे गए...
      और हिन्दी भाषा के साथ उर्दू और अंग्रेजी के शब्द भी उच्चारित होने लगे..
      कुल मिलाकर हिन्दी अमर रहे के उद्घोष के साथ..
      सादर प्रणाम

      हटाएं
  8. हिन्दी किसी दिवस की मोहताज नहीं सभी अंग्रेजी गुलामों को ये बात शीघ्र समझ आयेगी कि हिन्दी के विकास एवं विस्तार में ही सबका विकास निहित है ....
    उत्कृष्ट लिंको से सजी लाजवाब प्रस्तुति
    सभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सुधा जी ,
      जन जन में व्याप्त भाषा है जिसे केवल अपने ही घर में सम्मान की आवश्यकता है । प्रस्तुति सराहने के लिए आभार ।

      हटाएं
  9. सुंदर और सारगर्भित अंकों का चयन किया है आपने, सभी को हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  10. आदणीय मैम नमस्‍तें !

    कहां से लाती है मन को उत्‍साहित करने वाले शब्‍दों के संग्रह , कृप्‍या अपना अनुभव यु ही साझा करते रहें । अति सुंदर एवं भावानात्‍मक ! आभार इस लिंक का ।

    जवाब देंहटाएं

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