न तो वसंत और न ही ग्रीष्म में और न ही वर्षा ऋतु में इतनी सुंदरता होती है जितनी मैंने एक शरद ऋतु के चेहरे में महसूस करती हूँ।
शरद ऋतु - स्वाद और कोमलता के मन पर अजीब और अटूट प्रभाव का वह मौसम - वह मौसम जिसने हर कवि से वर्णन के कुछ प्रयास, या भावना की कुछ पंक्तियाँ पढ़ी हो।
शरद ऋतु मधुर मौसम है, और हम फलों में लाभ से अधिक फूलों में जो खोते हैं।
वह शांत उदासी जो मुझे पसंद है - जो जीवन और प्रकृति में सामंजस्य स्थापित करती है। पक्षी अपने प्रवास के बारे में सलाह-मशविरा कर रहे हैं, पेड़ अस्त-व्यस्त या क्षय के हल्के रंग धारण कर रहे हैं, और जमीन को बिखेरना शुरू कर रहे हैं, ताकि किसी के कदमों की आहट से पृथ्वी और हवा की शांति में खलल न पड़े, ऐसा मदिर संगीत जो बेचैन आत्मा के लिए एक मौन अनुभूति का स्वर है। शरद ऋतु! मेरी आत्मा इससे जुड़ी हुई है, और यदि मैं एक पक्षी होती तो मैं लगातार शरद ऋतु की तलाश में सारी पृथ्वी पर उड़ती फिरती।
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यूँ तो अनगिनत रंग है जीवन में प्रकृति के,
कुछ खूबसूरत रंग जो मुझे पसंद है प्रकृति के
उसे चुनकर लाई हूँ आप भी पढ़िए और महसूस कीजिए।
शरद-अज्ञेय
सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी
गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी
दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब
ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी
बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली
शरद की धूप में नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली
झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते
झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली
बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती
उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती
गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी
शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती
मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती
कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती!
घर-भवन-प्रासाद खण्डहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में
गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती!
साँझ! सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया
हार का प्रतीक - दिया सो दिया, भुला दिया जो किया!
किन्तु शारद चाँदनी का साक्ष्य, यह संकेत जय का है
प्यार जो किया सो जिया, धधक रहा है हिया, पिया!
शरद प्रात का गीत / निर्मला जोशी
घोल कर मेंहदी उषा
धनवान सी आई अकेली।
मौन हो मन वाटिका की
बिन कहे रंग दी हथेली।
दृष्टि में तब खिल उठे जलजात कितने ही अचानक
सुरभि सी उड़ती हुई पल-पल किया गुंजार मैंने।
जब कलाधर की कलाएं
खूब विकसित हो रही थीं।
कल्पना की तूलिका से
मैं दिशाएं रंग रही थी।
इन छलकती, ऊंघती-सी अनमनी इन प्यालियों में
प्राण अपने भी मिलाकर पा लिया संसार मैंने।
कह न पाए इस धरा के
होंठ जो सच्ची कहानी।
या विजन में इन ऋचाओं की
कथा कोई पुरानी।
साधना तप में तपे जब भोर के स्वर सुन रही थी
तब कहीं मन खोलने का पा लिया अधिकार मैंने।
फिर उतरते और चढ़ते
व्योम से ये ज्योति निर्झर।
एक दर्पण सामने कर
भाव झरते नेह अंतर।
जो लहर को खिलखिला देता पवन का एक झोंका
मुक्त होकर ले लिया उस मुक्ति का आधार मैंने।
सुमित्रा नंदन पंत/शरद चाँदनी
शरद चाँदनी!
विहँस उठी मौन अतल
नीलिमा उदासिनी!
आकुल सौरभ समीर
छल छल चल सरसि नीर,
हृदय प्रणय से अधीर,
जीवन उन्मादिनी!
अश्रु सजल तारक दल,
अपलक दृग गिनते पल,
छेड़ रही प्राण विकल
विरह वेणु वादिनी!
जगीं कुसुम कलि थर् थर्
जगे रोम सिहर सिहर,
शशि असि सी प्रेयसि स्मृति
जगी हृदय ह्लादिनी!
शरद चाँदनी!
निदा फाजली/ शरद ऋतु
कुहरे की झीनी चादर में
यौवन रूप छिपाए
चौपालों पर
मुस्कानों की आग उड़ाती जाए
गाजर तोड़े
मूली नोचे
पके टमाटर खाए
गोदी में इक भेड़ का बच्चा
आँचल में कुछ सेब
धूप सखी की उँगली पकड़े
इधर-उधर मँडराए
वीरेंद्र डंगवाल/मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का उष्म ताप
मैं हूँ वसन्त में सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूंगफली को छाँट कर
चबाता फ़ुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ
इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज है
एक फ़ेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप हो कर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता रहूँगा ही
हर बार भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर
एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा ।
शुद्ध साहित्यिक अंक
जवाब देंहटाएंआनंदित हुई
आभार
सादर
अत्यंत हृदयस्पर्शी रचनाये... ❤️🙏
जवाब देंहटाएंआदरणीया मैम, सादर प्रणाम। सुबह-सुबह यह अनुपम स्वर्णिम अंक पढ़ कर मन आनंदित है। समस्त प्रकृति का सौंदर्य आज शब्दों में ढल कर एक जगह एकत्र हो गया हो मानो।कोमल और सात्विक भावों से परिपूर्ण मन को आनंदित करती आज की यह हलचल सदैव स्मरण रहेगी। इसे सहेजकर रख रही हूँ अपने पास।
जवाब देंहटाएंअनुपम अंक
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