शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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सुबह का चलकर शाम में ढलना/जीवन का हर दिन जिस्म बदलना।
हसरतों की रेत पे दर्या उम्मीद की/ख़ुशी की चाह में मिराज़-सा छलना।
चुभते हो काँटें ही काँटे तो फिर भी/ज़ारी है ग़ुल पे तितली का मचलना।
वक़्त के हाथों से ज़िंदगी फिसलती है/नामुमकिन इकपल भी उम्र का टलना।
अंधेरे नहीं होते हमसफ़र ज़िंदगी में/सफ़र के लिये तय सूरज का निकलना।
आइये अब आज की रचनाएँ पढ़ते है-
रिश्तों में जंजीर नहीं है
काँटा तो है पीर नहीं है
लहरें तोड़ किनारे बहतीं
हृदय नदी के धीर नहीं है
बिगड़ गईं तानें मौसम की
कुपित बादलों का अनुराग .
ऐसी भी क्या आज
जरूरत धूल उड़ाने की
फर्श पुराने को उखाड़कर
नया लगाने की
चिन्ता कुछ भी नहीं
पुराना कर्ज पटाने की
लिया जहाँ से जो कुछ वह
वापस लौटाने की
वक्त हुआ सतनाम
ओढ़नी
आज ओढ़ने का !!
दोस्त भी कब छूट गए पता ही नहीं चला और अब ना जाने कौन सा युग शुरू हुआ जिसे समझना मेरे लिए तो बहुत मुश्किल हो रहा है।आज त्योहार सिर्फ सोशल मीडिया पर दिखावा भर बन कर रह गया है। सजना-संवरना सब कुछ हो रहा है है मगर, उत्साह- उमंग, श्रद्धा-भक्ति, प्यार और अपनापन ना जाने कहा खो गया। त्योहारों पर भी सिर्फ अपने परिवार के दो चार सदस्य वो भी त्योहारों से जुड़े रस्मों को बस दिखावे के तौर पर निभाकर गुम हो जाते हैं इस मोबाइल रूपी मृग मरीचिका में।
थोड़ा सा पागल हो जाना
स्वीकार मुझे
तुम बिन जीना कितना दुश्वार मुझे।।
बिना पैर के चलती हूं
बिना हंसी के हंसती हूं
तुम बिन कहां कोई व्यवहार मुझे ।।
इस दौरान सामुदायिक रूप से लोक वाद्य-यंत्रों .. ढोल-दमाऊँ की थाप पर पारम्परिक लोकनृत्य "चाँछड़ी और झुमेलों" के साथ-साथ गीत-संगीत और आमोद-प्रमोद का माहौल व्याप्त रहता है। इस अवसर पर प्रसिद्ध गढ़वाली लोकगीतों- "भैला ओ भैला, चल खेली औला, नाचा कूदा मारा फाल, फिर बौड़ी एगी बग्वाल" या "भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अँधेरो भगलू" आदि को गाए जाते हैं। इस अवसर पर कहीं-कहीं पर "गैड़" यानी रस्साकस्सी का भी खेल खेला जाता है।
जी ! .. सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका .. मेरी बतकही को इस मंच पर अपनी अनुपम प्रस्तुति में सम्मिलित करने हेतु .. आज की प्रस्तुति की भूमिका में आपकी पाँचों जोड़ी पंक्तियाँ ( विधा मालूम नहीं 🙏) मानो प्राणियों के निर्माण के लिए अटल सत्य - पंच तत्वों की तरह ही .. अटल सत्य है .. शायद ...
जवाब देंहटाएं"चुभते हो काँटें ही काँटे तो फिर भी/ज़ारी है ग़ुल पे तितली का मचलना।
वक़्त के हाथों से ज़िंदगी फिसलती है/नामुमकिन इकपल भी उम्र का टलना।" .. अद्भुत !!! ...
देर हो गई आज
जवाब देंहटाएंफिर भी देर आए
तंदुरुस्त...
एक बेहतरीन अंक
आभार..
सादर
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति,मेरी पोस्ट को भी स्थान देने के लिए दिल से शुक्रिया श्वेता जी, काफी व्यस्तता के कारण लिखना पढ़ना बिल्कुल छुट गया था, लेकिन ये ब्लॉग जगत तो हमारा सबसे सुकून भरा घर है तो सुकून के खातिर इसी में बसेरा लेने आना ही पड़ता है।आप सभी को मेरा सप्रेम नमस्कार 🙏
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