हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...
शब्दों के कुछ समूह हमारी चेतना पर अचानक एक हथौडे़ की तरह पड़ते हैं, और हमें बुरी तरह झिंझोड़ डालते हैं. दरअसल हथौडे़ की तरह पड़ने और बुरी तरह झिंझोड़ डालने वाली उपमाओं के पीछे होता यह है कि इन शब्दों ने हमारे सोचने के तरीके पर कुठाराघात किया है, हमें हमारी सीमाएं बताई हैं, और हमारी छाती पर चढ़ कर कहा है, देखो ऐसे भी सोचा जा सकता है, ऐसे भी सोचा जाना चाहिए.
जो मन चाहा ,लिख दिया।
सन्दर्भ-व्याख्या-क्या पता ?
रजाई में दुबक कर लिख डाली ,
अँधेरे की कविता।
नदी में डुबकी लगा ,
लिख डाली रोमानिया की सविता।
कहाँ रहे अब वह बिम्ब , प्रतिमान ,
जो समाज को झकझोरे।
दुनिया के सबसे विशाल और समर्थ साम्राज्य को अपने कदमो पर झुका दिया था, उन कदमो को उखाड़ना आसान भी नहीं है। 'चल पड़े जिधर दो डग मग मे, चल पड़े कोटि पग उसी ओर !'
किसी बात को कठिन शब्दों में कहना साधारण भाषा का प्रयोग ना कर असमान भाषा का प्रयोग समाज शैली का लक्ष्य है। इसमें भाषा कठिन और जटिल होती है। यह शैली भाव की कमी छिपाने के लिए भाषा के सामासिक गठन को उद्देश्य मानती है।कि यही कारण है उनके भाव में जटिलता के कारण भाषा में और जटिलता आ जाती है। यह शैली उन लेखकों के लिए उपयुक्त है जिन्हें वस्तुतः कुछ कहना नहीं है, केवल भाषा जाल की निर्माण करना है।
“मैं जानती हूँ कि तुम्हारे चले जाने पर मेरे अंतर को एक रिक्तता छा लेगी, और बाहर भी संभवत: बहुत सूना प्रतीत होगा। फिर भी मैं अपने साथ छल नहीं कर रही। मैं हृदय से कह्ती हूँ तुम्हें जाना चाहिए...यहाँ ग्राम प्रांतर में रहकर तुम्हारी प्रतिभा को विकसित होने का अवकाश कहाँ मिलेगा... तुम्हें आज नई भूमि की आवश्यकता है जो तुम्हारे व्यक्तित्व कोअधिक पूर्ण बना सके...।”
सदा की तरह
जवाब देंहटाएंलाजवाब अंक
सादर नमन..
विविधतापूर्ण रचनाओं से परिपूर्ण उत्कृष्ट अंक । बहुत आभार आदरणीय दीदी 👏👏💐💐
जवाब देंहटाएंवाह अति सुन्दर संकलन
जवाब देंहटाएंसुंदर संकलन
जवाब देंहटाएंसादर