गर देखोगे, परछाईं ही उभरेगी दर्पण में,
बुन जाएंगे जाले, ये भ्रम जीवन में,
उलझाएंगे ही, ये धागे मिथ्या में,
सुख, कब तक ये दे पाएंगे?
इक छल है, तृष्णा है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!
ये ज़रूर तुम्हारी आँखों का भ्रम होगा
भागता साया किसी और का देखा होगा
राह तकते तकते बीत गयी उम्र आधी
तुमने भी लाचार क़दमों को घसीटा होगा
नित नए की कल्पना परिकल्पना अतिकल्पना की गई है।
चौकसी सतर्कता आवश्यक है सांस तक के लिए,
एक जरूरी कवायद। सांस में ही मत उलझे रहना,
कुछ नहीं मिटा है, कभी कुछ नहीं मिटेगा।
इस भरोसे के भरोसे अवश्य टिके रहना।
यही पुराना साल है, यही नया साल है। यही खुशियां हैं,
खुशियां जो कहीं नहीं गई हैं,
बस नए साल के भ्रम में अब कही गई हैं।
अपने भीतर के मैं से
रात-दिन उलझता
बेचैनी और घबराहट के
डंक सहता
खुद से सवाल पर सवाल करता
बार-बार स्वयं को सराहता हूँ
कहानी और कविता में
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पुन: मिलेंगे...
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व्यंग्यकार पदमश्री शरद जोशी जी की लघुकथा-
शरद जोशी
"लोमड़ी पेड़ के नीचे पहुँची। उसने देखा ऊपर की डाल पर एक कौवा बैठा है, जिसने मुँह में रोटी दाब रखी है। लोमड़ी ने सोचा कि अगर कौवा गलती से मुँह खोल दे तो रोटी नीचे गिर जाएगी। नीचे गिर जाए तो मैं खा लूँ।
लोमड़ी ने कौवे से कहा, ‘भैया कौवे! तुम तो मुक्त प्राणी हो, तुम्हारी बुद्धि, वाणी और तर्क का लोहा सभी मानते हैं। मार्क्सवाद पर तुम्हारी पकड़ भी गहरी है। वर्तमान परिस्थितियों में एक बुद्धिजीवी के दायित्व पर तुम्हारे विचार जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। यों भी तुम ऊँचाई पर बैठे हो, भाषण देकर हमें मार्गदर्शन देना तुम्हें शोभा देगा। बोलो... मुँह खोलो कौवे!’
इमर्जेंसी का काल था। कौवे बहुत होशियार हो गए थे। चोंच से रोटी निकाल अपने हाथ में ले धीरे से कौवे ने कहा - ‘लोमड़ी बाई, शासन ने हम बुद्धिजीवियों को यह रोटी इसी शर्त पर दी है कि इसे मुँह में ले हम अपनी चोंच को बंद रखें। मैं जरा प्रतिबद्ध हो गया हूँ आजकल, क्षमा करें। यों मैं स्वतंत्र हूँ, यह सही है और आश्चर्य नहीं समय आने पर मैं बोलूँ भी।’
इतना कहकर कौवे ने फिर रोटी चोंच में दबा ली।"
-शरद जोशी
हमेशा की तरह लाज़वाब शानदार प्रस्तुति सभी रचनाएँ लाज़वाब है।
जवाब देंहटाएंआपका ऐसे रचनात्मकता से लिंक संयोजन मुझे बहुत पसंद है दी।
संग्रहणीय संकलन।
सादर प्रणाम दी।
सादर नमन
जवाब देंहटाएंअब तो आप ग्रीन कार्ड ले ही लीजिए
कहां एक माह की छुट्टी में गई थी आप
आधा साल बीत गया
भ्रम और उपापोह
ये विषय भी नया है
सही उपयोग
सादर नमन
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंखूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़ियाँ।
जवाब देंहटाएंवाह! हमेशा की तरह शानदार अंकआदरणीय
जवाब देंहटाएंदीदी। यूँ तो भ्रम है जीवन है और जीवन है भ्रम। पर इतने भ्रम देख पढ़कर विस्मय सा हो गया । आपके शोध को नमन। ये पंक्तियाँ मानो समस्त प्रस्तुति का सार है है ___
तूफाँ हैं दो पल के, खुद बह जाएंगे,
बहती सी है ये धारा, कब तक रुक पाएंगे,
परछाईं हैं ये, हाथों में कब आएंगे,
ये आते-जाते से, साए हैं घन के,
छाया, कब तक ये दे पाएंगे?
इक भ्रम है, मिथ्या है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!।
एक की प्रस्तुति विशेष के लिए बधाई और शुभकामनायें🙏🙏सादर प्रणाम🙏🙏
सबके टिप्पणियों के संग आपके विशेष टिप्पणी से बेहद ख़ुशी मिलती है... हार्दिक आभार आपका
हटाएं🙏🙏🙏🙏🌷🌷🥰
हटाएंअति सुन्दर प्रस्तुति।
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