जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम ।
दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानों काम ।।
©कबीर
सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
एक-एक दिन कर हम अठारह सौ पर आ गये
हौले-हौले लू को लीलते मानसून जैसे आता है
©रामकृष्ण सिंगी
लो! गगन में बदलियां छाने लगी हैं।
मानसूनी घटाओं की आहटें आने लगी हैं ।।1।।
सूखे जलाशयों की गर्म आहों से।
तड़कते खेतों की अबोल करुण चाहों से।
किसानों की याचनाभरी निगाहों से।
निकली प्रार्थनाएं असर दिखलाने लगी हैं।
...बदलियां छाने लगी हैं ।।2।।
हवाएं भी पतझड़ी पत्ते बुहारने लगीं।
मानसूनी फिजाओं का पथ संवारने लगीं।
टीसभरे स्वर में टिटहरियां पुकारने लगीं।
प्रकृति अपना चतुर्मासी मंच सजाने लगी है।
...बदलियां छाने लगी हैं ।।3।।
जीवन जल का पर्यायवाची शब्द है और बादल का एक नाम पर्जन्य भी है।
पर्जन्य या परजन्य अर्थात जो दूसरों के लिए हो, परोपकारी हो।
कवि धनानंद ने कहा है -
'पर कारज देह को धारे फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौं।'
उन्होंने कहा था, “जब आपको
किसी कार्य के बारे में दुविधा हो,
उस समय आप देश के उस
सबसे ग़रीब व्यक्ति के चेहरे की याद कीजिए
जिसे आपने कभी देखा है और अपने से प्रश्न कीजिए कि
जो कदम आप उठाने जा रहे हैं, उससे कोई लाभ होगा या नहीं?”
यही तो है ,
कहानी
प्रत्येक
महापुरुष की
उपकार
स्व - का नहीं
पर का उपकार
सौम्य मुस्कराते हत्यारे हैं
जो खरीदते हैं रेशम, नायलॉन, सिगार,
हैं छोटे-मोटे आततायी और तानाशाह ।
वे खरीदते हैं देश, लोग, समंदर, पुलिस, विधान/ सभाएं,
दूरदराज के इलाके जहां गरीब इकट्ठा करते हैं/ अनाज
जैसे कंजूस जोड़ते हैं सोना,
कभी इधर,कभी उधर छिटक रहे थे….
बार बार रास्ता भटक रहे थे….
इरादा कहानी लिखने का था….
पर कविता लिखवाने पर अड़े थे….
कलम ने सहृदयता के साथ, उदारता दिखायी
का पूरण ज्ञानी भलो , कै तो भलो अजाण।
मूढमति अधवीच को ,जळ मां जिसों पखाण।।
भावार्थ; या तो पूरा जानकर हो या
पूरा अजान हो दोनों ही ठीक है,
लेकिन जो मूढ़ आधा जानकर है
वह तो जल में पड़े पाषण की तरह है।
चिंता बुधि परखिये , टोटे परखिये त्रिया।
सगा कुबेल्याँ परखिये , ठाकुर गुनाह कियां।।
भावार्थ;बुधि की परीक्षा चिंता के समय ,
स्त्री की घर में आर्थिक स्थिति ख़राब होने पर ,
सम्बन्धियों की ख़राब
समय आने पर व मालिक की परीक्षा गुनाह करने पर।
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पुन: मिलेंगे...
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*शरीर एवं राष्ट्र.... दोनों को स्वस्थ रखने का...*
*एक ही उपाय है*,
*👍 " चीनी बन्द " 👍*
शरीर के लिए *" देसी गुड़"* और
राष्ट्र के लिए *"देसी गुड्स/Goods"*
हम-क़दम के अगले अंक का विषय-
'प्रतीक्षा'
इस विषय पर सृजित आप अपनी रचना आज शनिवार (20 जून 2020) तक कॉन्टैक्ट फ़ॉर्म के माध्यम से हमें भेजिएगा।
चयनित रचनाओं को आगामी सोमवारीय प्रस्तुति (22 जून 2020) में प्रकाशित किया जाएगा।
उदाहरणस्वरूप कविवर
डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी की कविता-
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"मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?
मौन रात इस भाँति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर, अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं, कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?
तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले, पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले, साँसें घूम-घूम फिर-फिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं, मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?
उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले, अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपने होश सम्हाले, तारों की महफिल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से, मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती, रगरग में चेतनता घुल कर, आँसू के कण-सी झर जाती, नमक डली-सा गल अपनापन, सागर में घुलमिल-सा जाता, अपनी बाँहों में भर कर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?"
साभार : हिंदी समय
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बेहतरीन अंक..परोपकार..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ अंक.1800 के लिए
सादर नमन...
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति आभार आपका मन बहुत ही प्रसन्न है कि आज हम इस ब्लॉग पर अट्ठारह सौ अंक पूरे कर चुके हैं आप सभी पाठकों का हमें प्रथम अंक से सहयोग मिल रहा है इसके लिए मैं आप सभी का हृदय की गहराइयों से धन्यवाद करता हूं
जवाब देंहटाएं🙏🌹🙏सुप्रभात और प्रणाम आदरणीय दीदी🙏🌹🙏
जवाब देंहटाएंसबसे पहले पंच लिंकों को और सभी रचनाकारों पाठकों को 1800वी प्रस्तुति की हार्दिक बधाई। एक से 1800 का आंकड़ा अपने आप में बहुत विशिष्ट है। ये लाखों तक निर्बाध पंहुचे , यही कामना है। आज की विशेष प्रस्तुति में नैतिकता की राह दिखाती रचनाएँ बहुत खास हैं। बापू जैसे लोग दुबारा पैदा होंगें शायद ये नामुमकिन है पर उनकी प्रेरक सोच अपना कर, सादा जीवन उच्च विचार की राह पर चलना बहुत कठिन नहीं है। अरुंधती राय की विचार धारा ने मुझे कभी प्रभावित नहीं किया पर उनका अनुदित लेख अच्छा है। उसमें ' कथित ' परोपकारियों की पोल खोलती कविता लाजवाब है। शुद्ध परोपकार से इतर परोपकारियों का धन्धा खूब फलता फूलता है जिसमें परोपकार से ज्यादा स्व उपकार फलता फूलता है। नदी पर काव्य रचना मन को छू गई। दूसरों का निस्वार्थ उपकार बस प्रकृति करती है । वृक्ष अपनी छाया में कभी नहीं सोते ना कभी अपने फल खाते है। नदी अपना पानी नही पीती । प्रकृति से बढ़कर परोपकारी कौन होगा?? सुंदर , लाजवाब अंक के लियेशुभकामनाएँ। सभी रचनाएँ हृदयग्राही हैं। सादर🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹🌹
इस मंच के माध्यम से एक बात और कहना चाहूँगी । दूसरों का मान -सम्मान कायम रखना भी दूसरों पर उपकार है। आजकल सरेमंच कुछ दूसरों का मानमर्दन करने का चलन बढ़ता जा रहा है, ये बहुत ही दुखद है। बेवजह ऐसा करने से , दूसरों का सम्मान घटाते - इंसान का खुद का सम्मान कम हो जाता है। यदि आप सम्मान चाहते हैं तो दूसरों को सम्मान दें । इस परोपकार को भी अपनाएं।सादर🙏🙏
जवाब देंहटाएंसमझने वाली बात है.. दूसरों के द्वारा दूसरों का मान मर्दन करना...
हटाएंमान लीजिए आपकी कोई गलती नहीं, मेरा मूड उखड़ा हो और मैं बिना वजह आपको अपशब्द कह दूँ , किसी तरह का लाँछन लगा दूँ तो क्या इससे आपका अपमान होगा या मेरे संस्कार, परवरिश-परिवेश पर सवाल उठेगा.. और इसे इस तरह समझती हूँ मुझे कोई कुछ पकड़ाए और मैं उसे नहीं थाम लूँ तो वो चीज कहाँ रह जायेगा... सादर
जी शायद मैं समझ नहीं पाई🙏🙏
हटाएंध्येय बनाएं
जवाब देंहटाएंआप सम्मान चाहते हैं तो दूसरों को सम्मान दें । इस परोपकार को भी अपनाएं
सादर
समझ नहीं पाई..
हटाएंसादर प्रणाम दी।
जवाब देंहटाएंखट्टी मीठी स्मृतियां संजोते साथ साथ चलते 1800 वाँ कदम रखे हैं आज।
आप यशोदा दी एवं कुलदीप जी इस संघर्षपथ के पल-पल बदलते परिदृश्य के साक्षी रहें है। सभी को मेरा सादर नमन।
विषयानुरूप सदैव ही आपके द्वारा संयोजित अंक विशेष होते हैं। परोपकार पर आधारित सभी सूत्र लाज़वाब है।
संग्रहणीय संकलन दी।
सादर।
बेहतरीन प्रस्तुति, पग-पग बढते हुए शानदार कदम , ढेरों शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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