शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल
अभिवादन
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दया,प्रेम,करुणा,सहानुभूति,समानुपातिक भाव और विचारों से सहज आकर्षित होना मानवीय मन की विशेषता रही है। किंतु वर्तमान परिवेश में सामाजिक अनुभूतियों के बीच में फैलती राजनीति अपनत्व की भावनाओं को चूसकर अपने में समाहित कर रही है।
हमारी व्यापक सोच और सार्वभौमिकता मानो सिकुड़कर
राजनीतिक गलियारों में किसी न किसी झंडे के नीचे
लामबंद होकर स्वयं का अस्तित्व तलाश रही है।
आँखों में पंथवादी और पक्षवादी पट्टी लगाये हम समाज का मानवतावादी,प्रकृतिवादी पक्ष देखने और समझ पाने में
असमर्थ हो गये हैं।
परस्पर समूह के दोषोंं की विवेचना में लीन हमारी सीमित राजनीतिक सोच हमें मनुष्य की प्रवृत्तिगत दोषों के विषय में सोचने ही नहीं देती है। हम क्षमा करना भूल गये हैं।
हर बात पर उत्तेजना, अपशब्द,नीचा दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, किसी से सरलता से टूटने या जुड़ने का कारण अब आपसी सामंजस्य, सद्भावना नहीं रही,
शुद्ध राजनीति विचारों का मेल ही रिश्तों की प्रगाढ़ता का पैमाना हो गया है।
सोचती हूँ
क्या अंतर्मन की कोमल भावनाएँ भी भविष्य में समर्थन एवं विरोध के
दलों में बंटकर राजनीति की बलि चढ़ जायेगी?
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आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-
मौलिकता उस काग़ज़ की तरह है
जिस पर निब चला-चला कर
क़लम की परख की जाती है।
कट्टम-काटी अब सिर्फ़ खेल नहीं है
इसने कविताओं पर भी
क़लम चलानी शुरू कर दी है
मेरी भोली चिड़िया,तेरी चीत्कारों
कि प्रकृति अब अहमी मनुष्य को रक्तिम
अश्रुओं का स्वाद चखाने पर आमादा है
तुझे कैद करनेवाला बर्बाद है।।
मेरे मन की मरुभूमि की रेत पर
अंकित ये निशान आज भी
उतने ही स्पष्ट और ताज़े हैं
जितने वो उस दिन थे
जब वर्षों पहले मुझसे
आख़िरी बार मिल कर
अतिथि कवि प्रसन्न हो कविता सुनाने लगे और आतिथेय वाह! वाह! करने लगे। इधर कविता समाप्त हुई, उधर कवि जी के सब्र का बांध टूटा...आपने बहुत अच्छी कविता सुनाई अब मेरा छंद सुनिए। प्रशंसा से मुग्ध मेहमान जी ने कहा..हां, हां, सुनाइए। मेजबान कवि जी ने अपना ताजा छंद सुनाया और मेहमान कवि जी ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करी।
फिर क्या था सब भूखे भेड़िये की तरह उसकी लिट्टी पर टूट पड़े हर एक ने जी भरकर खाया ,उसने पापा से भी कहा -" अरे ,अंकल जी आप नहीं खोओगे ,अरे खाओ- खाओ, मैं पैसे नहीं लूंगा "पापा मेरे बड़े मधुरभाषी थे उन्हेने बड़े प्यार से कहा -"अरे ,बेटा जी आप आने में देर कर दिए थे..हम तो आपके आने से पहले ही खाना खा चुके थे वरना लिट्टी तो
मेरा पसंदीदा हैं..आप बीस के चार भी देते तो खा लेता ..लेकिन
अब नहीं ,आपकी लिट्टी फ्री हैं मेरा पेट तो नहीं " फिर पापा धीरे से
मुझसे बोले -" बेटा मुझे तो दाल में कुछ काला लग रहा हैं ,आप
चुपचाप जाकर ऊपर वाले बर्थ पर सो जाओं। " मैं सोने चले गई।
मगर नींद कहाँ आ रही थी बस सोने का नाटक कर रही थी।
....
हम-क़दम का नया विषय
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कल का अंक पढ़ना न भूलें
कल आ रही हैं विभा दी अपनी
विशेष प्रस्तुति लेेेकर।
-श्वेता
यतीन्द्र कुमार या यतीश कुमार! चिंतन की खुराक वाली भूमिका से सजा सुंदर संकलन।
जवाब देंहटाएंजी बहुत आभारी हूँ विश्वमोहन जी।
हटाएंसुप्रभात।
सादर।
अति हर चीज की बुरी अतः छूटकी भूमिका में लिखी बात गहरा असर ना छोड़े... चिंतन हो बस... सदा स्वस्थ्य रहो
जवाब देंहटाएंउम्दा लिंक्स चयन.. सराहनीय प्रस्तुतीकरण
शुभमय प्रभात, बहुत सुंदर रचना प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंलॉक डाऊन खुलने के बाद
जवाब देंहटाएंआज सखी
सादर अभिनन्दन
काफी दिनों के पश्चात
एक चिन्तन पढ़ने को मिला
आभार
सादर
सुंदर प्रस्तुति श्वेता ।
जवाब देंहटाएं" क्या अंतर्मन की कोमल भावनाएँ भी भविष्य में समर्थन एवं विरोध के
जवाब देंहटाएंदलों में बंटकर राजनीति की बलि चढ़ जायेगी? "
चिंतनीय प्रश्न ,एक बार सबको इस प्रश्न पर चिंतन जरूर करना चाहिए।
विचारणीय, उन्दा भूमिका के साथ बेहतरीन प्रस्तुति श्वेता जी ,मेरी संस्मरण को स्थान देने के लिए और मेरी रचना के पंक्तियों को आज का शीर्षक बनाने के लिए तहे दिल से आभार आपका ,सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं ,सादर नमन
सुन्दर सार्थक सशक्त सूत्रों का संकलन आज की हलचल में ! मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार रवीन्द्र जी ! सादर वन्दे !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन व सुंदर संकलन !
जवाब देंहटाएंइस कठिन समय में सभी सुरक्षित व स्वस्थ रहें