आज मई का अंतिम दिन......
चार लॉक-डाउन भोग चुके हैं.....
कल से पांचवे की तैयारी.....
3 महीने से अधिक समय हो गया......
हम सबने सबसे अधिक समय.....
करोना पर चर्चा ही की होगी.....
टीवी चैनलों या सोशल मिडिया पर भी.....
बस करोना ही करोना.....
कभी विश्व के आंकड़े....
कभी देश के.....
कभी अपने राज्य व शहर में.....
करोना संक्रमितों की संख्या....
बढ़ती देख....चिंतित ही होते रहे हैं......
शायद आज कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा.....
जो परेशान न हो.....
जो भय-भीत न हो......
कब होगा....ये तांडव समाप्त.....
हमे और अच्छे दिन नहीं चाहिये.....
बस वो दिन ही अच्छे थे.....
जब करोना नहीं था.....
मजदूरों के पलायन पर कविता
वस्तुस्थिति से वाक़िफ हर एक इंसान
जूझ रहा सूक्ष्म एक वायरस से जहान
गर्भवती महिलाएं बूढ़े-बच्चे नौजवान
चल पड़े हैं पैदल देखो बिना समाधान ।
कई हादसों के हो गये असमय शिकार
दबी वक्त के सन्नाटे में रह गई चित्कार
व्यवस्थायें तो हुईं मगर बिलम्ब हो गया
हताशा ने तोड़ा सबर का बंध छल गया ।
मशहूर हूँ तेरे दर्द के कारण।
नज़रें तुम्हारी, हुस्न तुम्हारा,
और हम पर कत्ल का इल्ज़ाम आया,
झुमकों ने तुम्हारी शरारत की,
तब जाकर मयख़ाने में जाम आया।
डर
भूख भी
मरने की
वजह हो सकती है
भूखे लोग
डरे रहते हैं कि
मर न जाएं
डरे लोग
दुबके हैं
पर भूख और डर की समग्रता
करवा रही है
चाह -अचाह
लोग ठिठकते हैं पल भर को उसे निहार
भँवरे गीत सुनाते हैं
तितलियाँ तृप्त होती हैं पराग से
वह किसी घड़ी चुपचाप झर जाता है !
वे भी मेरी निष्पक्षता और मंतव्य को समझते थे।
पिता नाखुश ही रहा। उसके इस बर्ताव से युवक को दुःख के साथ-साथ क्रोध भी बहुत आया और उसने अपने पिता से कहा कि लगता है आप मेरी सफलता से ईर्ष्या करते हैं !
मेरी यशो-कीर्ति आपको अच्छी नहीं लगती। आप किसी दुर्भावना के तहत मेरी हर कृति में खामियां निकाल देते हैं ! ऐसा क्यों ? आज आपको बताना ही पडेगा ! अपने पुत्र की बात सुन शिल्पकार गंभीर हो गया ! पर आज समय आ पहुंचा था सच बताने का ! उसने अपने बेटे को शांत हो जाने को कहा और बोला कि मैं तुम्हें अपने से भी बड़ा शिल्पकार बनता हुआ देखना चाहता हूँ ! इसीलिए मैं तुम्हारी हर कलाकृति में मीन-मेख निकाला करता हूँ और इसीलिए अब तक तुम अपनी कला को और बेहतर करने के लिए जुट जाते थे। मुझे पता था कि जिस दिन मैंने तुम्हारी कला की प्रशंसा कर दी; उसी दिन तुम संतुष्ट हो जाओगे !
छलावा
जीवन कोल्हू के वर्तुल में
निरंतर जोते हुए
बैल की तरह
जिसे कभी कौतूहल
तो कभी सहानुभूति से
देखा जाता है,
उनके प्रति
सम्मान और प्रेम का
प्रदर्शन
छलावा के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
महामारी
लोग तड़प कर बीमारी से मर रहें हैं,
सब चुप है पर कुछ नहीं कर रहे |
इस महामारी में जाति धर्म है
इस बार केवल एक दूजे के लिए मर्म हो |
लड़ना है इस महामारी से अगर,
मिल जुलकर चलना होगा हर डगर |
धन्यवाद।
बहुत बेहतरीन प्रस्तुति! आभार और बधाई!
जवाब देंहटाएंशुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंइकत्तीस मई
लॉकडाउन समाप्ति घोषणा
वेलकम 31 मई
आभार
सादर
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आदरणीय कुलदीप जी मेरी रचना शामिल करने के लिए।
सादर।