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शनिवार, 23 अप्रैल 2022

3372... हुँकार

            

हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...

हुँकार

शायद नाच रही थी वो माटी भी,

अपने ही एक सपूत की लिखी इस कविता की धुन में खोई –

“मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का,

चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं

पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी,

समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं”.

हुँकार

सारा छाँटेगा अँधियार

अब विरोध का देख निकलना है दिनकर। 33

सबसे चाहें यही करार

क़लम करें हम लोग व्यवस्था का ये सर। 34

आज कान्ति का बजे सितार

पूरे भारत-बीच गूँजते अपने स्वर। 35

हुँकार

रण में हर ले मृत्यु को,

क्या उसे मांगने जाएगा ,

लेकर के अबलम्ब काल का

मिलने उससे पाएगा,

यदि ऐसा तू करे वीर,

तो वो तुझको धिक्कारेगी

हिमालय

तू  तरुण  देश  से  पूछ  अरे,

गूंजा यह  कैसा ध्वंस-राग ?

अम्बुधि-अंतस्तल-बीच छिपी

यह सुलग रही है कौन आग ?

प्राची    के   प्रांगन - बीच   देख,

जल रहा स्वर्ण-युग अग्नि-ज्वाल,

नरेश

अपने लब्झोको छुपाकर रखना

कभी मेरी कविताके लिये काम आंयेगे

अपने होठोकी लाली बचाकर रखना

कभी गुलाबोको शरमानेमे काम आंयेगे

अपनी प्यास बरकर्रार रखना

तभी तो इस बादलको बरसने काम आयेगे आप..

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पुनः भेंट होगी...
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4 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात दीदी
    सदाबहार प्रस्तुति..
    आभार..
    सादर नमन..

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर सार्थक रचनाएँ ।
    बढ़िया प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  3. पथप्रदर्शक, अत्यंत विचारणीय भूमिका के साथ सभी रचनाएँ मन में जोश भर रही ।
    उत्कृष्ट संकलन के लिए आभार दी।

    प्रणाम दी
    सादर।

    जवाब देंहटाएं

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