।।प्रातः वंदन ।।
"स्वस्ति,स्वस्ति तेरा आना!
ओ रोशनी की बेटी,
आसमान की हरिणी,किरणों के केश वाली।
सपनों के आँचल वाली!देवताओं की ईर्ष्या,मनुष्यों की आशा,राक्षसों की विपत्ति,अमीरों की अनदेखी,ग़रीबों की मसीहा!"
मदन वात्स्यायन
दिनों का ढलना और उगना नित्य प्रक्रिया है पर नव आशातीत विचार, उमंग संग चलने के लिए एक बार फिर शब्दों के सागर में डूबते हुए ..लिजिए आज की पेशकश में शामिल हैं..पर...✍️
जीवन इक लय में बढ़ता है
जागे भोर साँझ सो जाये,
कभी हिलोर कभी पीड़ा दे
जाने क्या हमको समझाये !
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"अब अपना काम भी समेटो और सामान भी। आखिर बुढ़ापा है माँ तुम्हारा । हमें तो यह पुराने जमाने का कुछ चाहिए नहीं । जिसे देना है दो ,जिसे बांटना है उसे बाँटों। और हाँ ,इन पेंटिग्स का क्या होगा जिनमें तुम्हारी जान बसी है..
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तू दुश्मन है तेरी हर बात पर अमल हूँ
दोस्तों से ज्यादा तुझपर विश्वास करता हूँ ।
मैं जानता हूँ तू आएगा खंजर लिये सामने से
पर अपना तो पीठ पर वार करता है।..
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ढ़लती शाम
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मुझे इन मेमनों को कसाई कहना है
और जल्लादों को सिपाही कहना है
लगाई है ऐसी बंदिश जेहन पर मेरे
मुझे अपने क़ातिलों को भाई कहना है ..
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
लगाई है ऐसी बंदिश जेहन पर मेरे
जवाब देंहटाएंमुझे अपने क़ातिलों को भाई कहना है ..
सुंदर अंक
आभार
सादर
बहुत सुंदर!
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सराहनीय अंक।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर प्रस्तुति
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