।।प्रातः वंदन ।।
"पौ फटी....
चुपचाप काले स्याह भँवराले अंधेरे की घनी चादर हटी..
मग़रूर आँखों में गई भर जोत
जब फूटा सुनहला सोत..
सिंदूरी सबेरा बादलों की सैंकड़ों स्लेटी तहों को
चीरकर इस भाँति उग आया
कि जैसे स्नेह से भर जाय मन की हर सतह..!! "
जगदीश गुप्त
सुबह की नर्म, उमस भरी बढ़तीं धूप संग चल रहा बहुत कुछ आजकल, जब भी नई कुछ बात होतीं है...चलिए ये तो हुई जमाने की बात हम बढ़ते हैं ब्लॉग की दुनिया में..कि हमें...✍️
इश्क -ओ - की बंदिशों में बंधकर रहना नहीं आता..
ये दायरे, ये बंदिशें
किसी और पर थोपो
मैं हवा का झोंका हूं
मुझे आवारगी पसंद है.
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योग कर निरोग हों
जल,अग्नि,भू, नभ, वायु
का इस हृदय में संयोग हो ।
आइए नित भोर संग
हम योग कर निरोग हों ॥
ये सृष्टि, ये धरती, गगन..
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खाली बन्द मुट्ठियाँ
वह मुस्कान जो आँखों और
ओठों से बाहर आकर
अपने अस्तित्व से विभोर करने से पहले ही
इर्द-गिर्द की रेखाओं में..
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।। इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️
दिलखुश गुप्त जी की रचना से आगाज
जवाब देंहटाएंमन प्रसन्न हुआ..
आभार..
सादर...
सुंदर सराहनीय और सामयिक अंक ।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार पम्मी जी ।
सभी रचनाकारों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
वाह
जवाब देंहटाएंउम्दा चयन
बेहतरीन रचनाओं का चयन आदरणीय पम्मी जी,सादर नमन
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाओं का चयन
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